: सच यह है कि रवीश कुमार भी दलाल पथ के यात्री हैं : ब्लैक स्क्रीन प्रोग्राम कर के रवीश कुमार कुछ मित्रों की राय में हीरो बन गए हैं। लेकिन क्या सचमुच? एक मशहूर कविता के रंग में जो डूब कर कहूं तो क्या थे रवीश और क्या हो गए हैं, क्या होंगे अभी! बाक़ी तो सब ठीक है लेकिन रवीश ने जो गंवाया है, उसका भी कोई हिसाब है क्या? रवीश कुमार के कार्यक्रम के स्लोगन को ही जो उधार ले कर कहूं कि सच यह है कि ये अंधेरा ही आज के टीवी की तस्वीर है! कि देश और देशभक्ति को मज़ाक में तब्दील कर दिया गया है। बहस का विषय बना दिया गया है। जैसे कोई चुराया हुआ बच्चा हो देशभक्ति कि पूछा जाए असली मां कौन? रवीश कुमार एंड कंपनी को शर्म आनी चाहिए।
आपको क्या लगता है कि बिना प्रणव राय की मर्जी के रवीश कुमार एनडीटीवी में सांस भी ले सकते हैं? एक समय था कि इंडियन एक्सप्रेस में अरुण शौरी का बड़ा बोलबाला था। उनकी न्यूज़ स्टोरी बड़ा हंगामा काटती रहती थीं। बाद के दिनों में वह जब इंडियन एक्सप्रेस से कुछ विवाद के बाद अलग हुए तो एक इंटरव्यू में डींग मारते हुए कह गए कि मैं अपनी स्टोरी के लिए कहीं जाता नहीं था, स्टोरी मेरी मेज़ पर चल कर आ जाती थी। रामनाथ गोयनका से पूछा गया अरुण शौरी की इस डींग के बारे में तो गोयनका ने जवाब दिया कि अरुण शौरी यह बात तो सच बोल रहा है क्योंकि उसे सारी स्टोरी तो मैं ही भेजता था, बस वह अपने नाम से छाप लेता था। अब अरुण शौरी चुप थे।
लगभग हर मीडिया संस्थान में कोई कितना बड़ा तोप क्यों न हो उस की हैसियत रामनाथ गोयनका के आगे अरुण शौरी जैसी ही होती है। बड़े-बड़े मीडिया मालिकान ख़बरों के मामले में एडीटर और एंकर को डांट कर डिक्टेट करते हैं। हालत यह है कि कोई कितना बड़ा तोप एडीटर भी नगर निगम के एक मामूली बाबू के ख़िलाफ़ ख़बर छापने की हिमाकत नहीं कर सकता अगर मालिकान के हित वहां टकरा गए हैं। विनोद मेहता जब पायनियर के चीफ़ एडीटर थे तब उन्हें एलएम थापर ने दिल्ली नगर निगम के एक बाबू के ख़िलाफ़ ख़बर छापने के लिए रोक दिया था। सोचिए कि कहां थापर, कहां नगर निगम का बाबू और कहां विनोद मेहता जैसा एडीटर! लेकिन यह बात विनोद मेहता ने मुझे ख़ुद बताई थी। तब मैं भी पायनियर के सहयोगी प्रकाशन स्वतंत्र भारत में था। मैं इंडियन एक्सप्रेस के सहयोगी प्रकाशन जनसत्ता में भी प्रभाष जोशी के समय में रहा हूं। इंडियन एक्सप्रेस, जनसत्ता के भी तमाम सारे ऐसे वाकये हैं मेरे पास। पायनियर आदि के भी। पर यहां बात अभी क्रांतिकारी बाबू रवीश कुमार की हो रही है तो यह सब फिर कभी और।
अभी तो रवीश कुमार पर। वह भी बहुत थोड़ा सा। विस्तार से फिर कभी। रवीश कुमार प्रणव राय के पिंजरे के वह तोता हैं जो उन के ही एजेंडे पर बोलते और चलते हैं। इस बात को इस तरह से भी कह सकते हैं कि प्रणव राय निर्देशक हैं और रवीश कुमार उनके अभिनेता। प्रणव राय इन दिनों फेरा और मनी लांड्रिंग जैसे देशद्रोही आरोपों से दो चार हैं। आप यह भी भूल रहे हैं कि प्रणव राय ने नीरा राडिया के राडार पर सवार रहने वाली बरखा दत्त जैसे दलाल पत्रकारों का रोल माडल तैयार कर उन्हें पद्मश्री से भी सुशोभित करवाया है। अब वह दो साल से रवीश कुमार नाम का एक अभिनेता तैयार कर उपस्थित किए हुए हैं। ताकि मनी लांड्रिंग और फेरा से निपटने में यह हथियार कुछ काम कर जाए।
रवीश कुमार ब्राह्मण हैं पर उनकी दलित छवि पेंट करना भी प्रणव राय की स्कीम है। रवीश दलित और मुस्लिम कांस्टिच्वेन्सी को जिस तरह बीते कुछ समय से एकतरफा ढंग से एड्रेस कर रहे हैं उससे रवीश कुमार पर ही नहीं मीडिया पर भी सवाल उठ गए हैं। रवीश ही क्यों रजत शर्मा, राजदीप सरदेसाई, सुधीर चौधरी, दीपक चौरसिया आदि ने अब कैमरे पर रहने का, मीडिया में रहने का अधिकार खो दिया है, अगर मीडिया शब्द थोड़ा बहुत शेष रह गया हो तो। सच यह है कि यह सारे लोग मीडिया के नाम पर राजनीतिक दलाली की दुकान खोल कर बैठे हैं। इन सबकी राजनीतिक और व्यावसायिक प्रतिबद्धताएं अब किसी से छुपी नहीं रह गई हैं। यह लोग अब गिरोहबंद अपराधियों की तरह काम कर रहे हैं। कब किस को उठाना है, किस को गिराना है मदारी की तरह यह लोग लगे हुए हैं। ख़ास कर प्रणव राय जितना साफ सुथरे दीखते हैं, उतना हैं नहीं।
अव्वल तो यह सारे न्यूज चैनल लाइसेंस न्यूज चैनल का लिए हुए हैं लेकिन न्यूज के अलावा सारा काम कर रहे हैं। चौबीस घंटे न्यूज दिखाना एक खर्चीला और श्रम साध्य काम है। इस लिए यह चैनल भडुआगिरी पर आमादा हैं। दिन के चार-चार घंटे मनोरंजन दिखाते हैं। रात में भूत प्रेत, अपराध कथाएं दिखाते हैं। धारावाहिकों और सिनेमा के प्रायोजित कार्यक्रम , धर्म ज्योतिष के पाखंडी बाबाओं की दुकानें सजाते हैं। और प्राइम टाइम में अंध भक्ति से लबालब विचार और बहस दिखाते हैं। देश का माहौल बनाते-बिगाड़ते हैं। और यहीं प्रणव राय जैसे शातिर, रजत शर्मा जैसे साइलेंट आपरेटर अपना आपरेशन शुरू कर देते हैं। फिर रवीश कुमार जैसे जहर में डूबे अभिनेता, राजदीप सरदेसाई जैसे अतिवादी, सुधीर चौधरी जैसे ब्लैकमेलर, अभिज्ञान प्रकाश जैसे डफर, दीपक चौरसिया जैसे दलाल, चीख़-चीख़ कर बोलने वाले अहंकारी अर्नब गोस्वामी जैसे बेअदब लोग सब के ड्राईंग रूम, बेड रूम में घुस कर मीठा और धीमा जहर परोसने लगते हैं।
लेकिन सरकार इतनी निकम्मी और डरपोक है कि मीडिया के नाम पर इस कमीनगी के बारे में पूछ भी नहीं सकती। कि अगर आप ने साईकिल बनाने का लाईसेंस लिया है तो जहाज कैसे बना रहे हैं? ट्यूब बनाने का लाईसेंस लिया है तो टायर कैसे बना रहे हैं। दूसरे, अब यह स्टैब्लिश फैक्ट है कि सिनेमा और मीडिया खुले आम नंबर दो का पैसा नंबर एक का बनाने के धंधे में लगे हुए हैं । तीसरे ज़्यादातर मीडिया मालिक या उनके पार्टनर या तो बिल्डर हैं या चिट फंड के कारोबारी हैं। इनकी रीढ़ कमज़ोर है। लेकिन सरकार तो बेरीढ़ है । जो इन से एक फार्मल सवाल भी कर पाने की हैसियत नहीं रखती। सरकार की इसी कमज़ोरी का लाभ ले कर यह मीडिया पैसा कमाने के लिए देशद्रोह और समाजद्रोह पर आमादा है। रवीश कुमार जैसे लोग इस समाजद्रोह के खलनायक और वाहक हैं । लेकिन उन की तसवीर नायक की तरह पेश की जा रही है। रवीश कुमार इमरजेंसी जैसा माहौल बता रहे हैं। पहले असहिष्णुता बताते रहे थे। असहिष्णुता और इमरजेंसी उन्होंने देखी नहीं है। देखे होते तो मीडिया में थूक नहीं निकलता, बोलना तो बहुत दूर की बात है। हमने देखा है इमरजेंसी का वह काला चेहरा। वह दिन भी देखा है जब खुशवंत सिंह जैसा बड़ा लेखक और उतना ही बड़ा संजय गांधी का पिट्ठू पत्रकार इलस्ट्रटेटेड वीकली में कैसे तो विरोध के बिगुल बजा बैठा था। अपनी सुविधा, अपना पॉलिटिकल कमिटमेंट नहीं, मीडिया की आत्मा को देखा था। रवीश जैसे लोग क्या देखेंगे अब? इंडियन एक्सप्रेस ने संपादकीय पेज को ख़ाली छोड़ दिया था। खैर वह सब और उस का विस्तार भी अभी यहां मौजू नहीं है।
बैंक लोन के रूप में आठ लाख करोड़ रुपए कार्पोरेट कंपनियां पी गई हैं। सरकार कान में तेल डाले सो रही है। किसानों की आत्म हत्या, मंहगाई, बेरोजगारी, कार्पोरेट की बेतहाशा लूट पर रवीश जैसे लोगों की, मीडिया की आंख बंद क्यों है। मीडिया इंडस्ट्री में लोगों से पांच हज़ार दो हज़ार रुपए महीने पर भी कैसे काम लिया जा रहा है? नीरा राडिया के राडार पर इसी एनडीटीवी की बरखा दत्त ने टू जी स्पेक्ट्रम में कितना घी पिया, है रवीश कुमार के पास हिसाब? कोयला घोटाला भी वह इतनी जल्दी क्यों भूल गए हैं। रवीश किस के कहे पर कांग्रेस और आप की मिली जुली सरकार बनाने की दलाली भरी मीटिंग अपने घर पर निरंतर करवाते रहे? बताएंगे वह? रवीश के बड़े भाई को बिहार विधान सभा में कांग्रेस का टिकट क्या उनकी सिफ़ारिश पर ही नहीं दिया गया था? अब वह इस भाजपा विरोधी लहर में भी हार गए यह अलग बात है। लेकिन इन सवालों पर रवीश कुमार ख़ामोश हैं। उन के सवाल चुप हैं।
अब ताज़ा-ताज़ा गरमा-गरम जलेबी वह जे एन यू में लगे देशद्रोही नारों पर छान रहे हैं। जनमत का मजाक उड़ा रहे हैं। देश को मूर्ख बना रहे हैं। हां, रवीश के सवाल जातीय और मज़हबी घृणा फैलाने में ज़रूर सुलगते रहते हैं। कौन जाति हो? उन का यह सवाल अब बदबू मारते हुए उनकी पहचान में शुमार हैं। जैसे वह अभी तक पूछते रहे हैं कि कौन जाति हो? इन दिनों पूछ रहे हैं, देशभक्त हो? गोया पूछ रहे हों तुम भी चोर हो? दोहरे मापदंड अपनाने वाले पत्रकार नहीं, दलाल होते हैं। माफ़ कीजिए रवीश कुमार आप अब अपनी पहचान दलाल पत्रकार के रूप में बना चुके हैं। दलाली सिर्फ़ पैसे की ही नहीं होती, दलाली राजनीतिक प्रतिबद्धता की भी होती है। सुधीर चौधरी और दीपक चौरसिया जैसे लोग पैसे की दलाली के साथ राजनीतिक दलाली भी कर रहे हैं। आप राजनीतिक दलाली के साथ-साथ अपने एनडीटीवी के मालिक प्रणव राय की चंपूगिरी भी कर रहे हैं। और जो नहीं कर रहे हैं तो बता दीजिए न अपनी विष बुझी हंसी के साथ किसी दिन कि प्रणव राय और प्रकाश करात रिश्ते में साढ़ू लगते हैं। हैS हैS ऊ अपनी राधिका भाभी हैं न, ऊ वृंदा करात बहन जी की बहन हैं। हैS हैS, हम भी क्या करें?
सच यह है कि जो काम, जो राजनीतिक दलाली बड़ी संजीदगी और सहजता से बिना लाऊड हुए रजत शर्मा इंडिया टीवी में कर रहे हैं, जो काम आज तक पर राजदीप सरदेसाई कर रहे हैं, जो काम ज़ी न्यूज़ में सुधीर चौधरी, इण्डिया न्यूज़ में दीपक चौरसिया आदि-आदि कर रहे हैं, ठीक वही काम, वही राजनीतिक दलाली प्रणव राय की निगहबानी में रवीश कुमार जहरीले ढंग से बहुत लाऊड ढंग से एनडीटीवी में कर रहे हैं। हैं यह सभी ही राजीव शुक्ला वाले दलाल पथ पर। किसी में कोई फर्क नहीं है। है तो बस डिग्री का ही।
निर्मम सच यह है कि रवीश कुमार भी दलाल पथ के यात्री हैं। अंतिम सत्य यही है। आप बना लीजिए उन्हें अपना हीरो, हम तो अब हरगिज़ नहीं मानते। अलग बात है कि हमारे भी कभी बहुत प्रिय थे रवीश कुमार तब जब वह रवीश की रिपोर्ट पेश करते थे। सच हिट तो सिस्टम को वह तब करते थे। क्या तो डार्लिंग रिपोर्टर थे तब वह। अफ़सोस कि अब क्या हो गए हैं! कि अपनी नौकरी की अय्यासी में, अपनी राजनीतिक दलाली में वह देशभक्त शब्द की तौहीन करते हुए पूछते हैं देशभक्ति होती क्या है? आप तय करेंगे? आदि-आदि। जैसे कुछ राजनीतिज्ञ बड़ी हिकारत से पूछते फिर रहे हैं कि यह देशभक्ति का सर्टिफिकेट क्या होता है?
लेखक दयानंद पांडेय लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं.
पंकज झा
February 21, 2016 at 2:04 pm
सुन्दर…शत-प्रतिशत शब्दशः सहमत.
Manish Kumar Srivastava
November 6, 2016 at 3:10 am
Very genuine article
Anand
January 25, 2017 at 9:41 am
Sunil Janardan Yadav
Yesterday at 8:33am
ब्राह्मण जात NDTV का रविश कुमार (पांडे) JNU में आंदोलन कर रहे छात्रों पर कोई प्राइम टाइम नहीं चला रहा है ,क्योकि आन्दोलन करनेवाले छात्र जात से कनैया कुमार की तरह ब्राह्मण नहीं है ।
साभार-फेसबुक से….
Navin kumar jain Kumar Jain
March 30, 2017 at 3:56 am
रबीश कुमार जी,सच कहूं,वह “गुदड़ी के लाल” है बैसे पश्चिम बंगाल मे बंगला भासा मे रविश ,पुराने मकान के मलबा को कहा जाता है,किन्तु यह रबीश ने सिद्ध किया मलबा ही सही नींब की भीत को मजबूत करने के काम भी आता है,हम भी देस के लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की भीत ही है,जो जनता को उनकी आकांछा से परिचित कारबता है,वह भाई रबीश बाह ,आप का स्वागतम,यदि कुत्ता भोकते है भोकने दो,हम भोकने का जबाब भोक कर नहीं,काम से देंगे,
Arvind Singh Yugandhar
April 6, 2017 at 10:51 am
सर….दयानन्द जी आपने बहुत सही कहा है दलाली करने वालों के सन्दर्भ में।
DINESH KUMAR GUPTA
August 19, 2018 at 2:18 pm
दलाल पथ के पथिकों के असली चेहरा दिखाने के लिए बहुत-बहुत आभार ।