Connect with us

Hi, what are you looking for?

सियासत

शेखर गुप्ता ने प्रभाष जोशी को कलंकित किया

ये भ्रष्ट पत्रकारिता की चरम सीमा है. शेखर गुप्ता ये कह रहे हैं कि पत्रकारों की उपस्थिति में, जिसमें वो स्वयं थे वहां पर, विश्‍वनाथ प्रताप सिंह ने यह पैसा लिया. उन्होंने अपने गवाही के तौर पर लिखा कि वहां पर इस साल पद्म पुरस्कार पाये हुए एक पत्रकार भी उपस्थित थे. इस साल तीन पत्रकारों को पद्मपुरस्कार मिला है, जिनमें श्री रजत शर्मा, श्री राम बहादुर राय और स्वपन दास गुप्ता शामिल हैं.

<p>ये भ्रष्ट पत्रकारिता की चरम सीमा है. शेखर गुप्ता ये कह रहे हैं कि पत्रकारों की उपस्थिति में, जिसमें वो स्वयं थे वहां पर, विश्‍वनाथ प्रताप सिंह ने यह पैसा लिया. उन्होंने अपने गवाही के तौर पर लिखा कि वहां पर इस साल पद्म पुरस्कार पाये हुए एक पत्रकार भी उपस्थित थे. इस साल तीन पत्रकारों को पद्मपुरस्कार मिला है, जिनमें श्री रजत शर्मा, श्री राम बहादुर राय और स्वपन दास गुप्ता शामिल हैं.</p>

ये भ्रष्ट पत्रकारिता की चरम सीमा है. शेखर गुप्ता ये कह रहे हैं कि पत्रकारों की उपस्थिति में, जिसमें वो स्वयं थे वहां पर, विश्‍वनाथ प्रताप सिंह ने यह पैसा लिया. उन्होंने अपने गवाही के तौर पर लिखा कि वहां पर इस साल पद्म पुरस्कार पाये हुए एक पत्रकार भी उपस्थित थे. इस साल तीन पत्रकारों को पद्मपुरस्कार मिला है, जिनमें श्री रजत शर्मा, श्री राम बहादुर राय और स्वपन दास गुप्ता शामिल हैं.

मैंने सबसे पहले रजत शर्मा जी से फोन पर पूछा कि क्या आप 1988 में इलाहाबाद में थे और क्या आपके सामने विश्‍वनाथ प्रताप सिंह को साढ़े सात लाख रुपये या आठ लाख रुपये दिए गए थे और क्या प्रभाष जोशी ने ये रुपये दिए थे? पत्रकारिता के नए सिद्धांत गढ़ने वाले और कोई नहीं, पत्रकारिता के सिरमौर माने जाने वाले बड़े पत्रकारों में से ही एक हैं. बे-सिर पैर की, जो साबित न हो सके, ऐसी खबरें और ऐसी चीजों का उद्घाटन, जिनसे मृत व्यक्तियों का संबंध हो और जो अपनी सफाई देने न आ सकें, ऐसी परिपाटी शुरू करने वाले पत्रकार शेखर गुप्ता हैं. शेखर गुप्ता भारतीय पत्रकारिता में अहम स्थान रखते हैं और उनका मानना है कि उन्होंने बहुत सारे रहस्योद्घाटन किए हैं. उनके अच्छे कामों को सलाम करना चाहिए, लेकिन उनके उन कामों को, जो अच्छे नहीं है, बल्कि पत्रकारिता के नाम पर धब्बा माने जा सकते हैं, ऐसे कामों की आलोचना भी की जानी चाहिए. 

Advertisement. Scroll to continue reading.

मुझसे टेलीविजन के एक बड़े संपादक ने कहा कि पत्रकारों के खिलाफ हमें कोई स्टोरी नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वैसे ही पत्रकार लोगों के निशाने पर रहते हैं. इसलिए मैं सिद्धांततः पत्रकारों के खिलाफ कोई भी रिपोर्ट करने के खिलाफ हूं. मैं उनका चेहरा देखता रह गया. वे पत्रकारिता से ज्यादा मित्रता को महत्व देते हैं. अगर यही काम कोई नया पत्रकार करे तो इन बड़े लोगों के मुंह से आसानी से निकल जाता है कि इसे पत्रकारिता की एबीसीडी नहीं पता और ये पत्रकारिता में जबरदस्ती तलवारबाजी कर रहा है. पर यही काम अगर शेखर गुप्ता करें तो उसके ऊपर लोगों की जुबान भी बंद हो जाती है और कलम भी. मैं शेखर गुप्ता की बड़ी इज्जत करता था. उनकी पत्रकारिता का प्रशंसक भी था. जिस समय वो बड़े पत्रकार माने जाते थे, उस समय मैं उनका दीवाना भी था. दरअसल, मैं उन्हें रविवार के संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह के दोस्त की नज़र से देखता था. और मेरा मानना था कि सुरेंद्र प्रताप सिंह का रिश्ता किसी भी ओछे व्यक्ति से नहीं होगा. 

मैंने उन्हें कोलकाता में सुरेंद्र प्रताप सिंह के साथ एक बहुत छोटे से नुक्कड़ जैसे होटल में बातें करते घंटो देखा है. उस बातचीत में शेखर गुप्ता ही ज्यादा बोलते थे, सुरेंद्र प्रताप सिंह केवल श्रोता की मुद्रा में रहते थे. मैं ऐसी कई बैठकों में खामोश विद्यार्थी की तरह बैठा रहता था. शेखर गुप्ता ने पत्रकारिता में नेतृत्व संभाला और उनकी रिपोर्ट्स को पढ़कर ऐसा लगता था कि शेखर गुप्ता सही लिख रहे हैं और अचानक मेरा साबका शेखर गुप्ता की पत्रकारिता के उस चेहरे से पड़ा, जिस चेहरे ने मेरे जैसे श्रद्धा करने वाले व्यक्ति को तोड़ दिया. तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह को लेकर शेखर गुप्ता की रिपोर्ट के कुछ हिस्से मेरे सामने घटित हुए. उन घटनाओं में शेखर गुप्ता स्वयं शामिल थे, लेकिन शेखर गुप्ता ने जब उन्हें रिपोर्ट किया तो कुछ चीजों को बिल्कुल उड़ा दिया और कुछ चीजों को पूर्णतः गलत दर्शाया. जब मैंने शेखर गुप्ता के इस कर्म की आलोचना अपने अखबार में की तो शेखर गुप्ता खामोश रहे. इसके दो ही कारण हो सकते हैं. या तो शेखर गुप्ता मेरे जैसे साधारण पत्रकार की बात का उत्तर देना अपनी शान के खिलाफ समझते रहे हों या फिर उनके पास उत्तर रहे ही न हों. 

Advertisement. Scroll to continue reading.

हालांकि उनके अखबार ने कई बार मेरे ऊपर हमला करने की कोशिश की, तब हमने उनके नेतृत्व में चलने वाले इंडियन एक्सप्रेस अखबार की पूरी पत्रकारिता के ऊपर सवाल उठाये. ये सवाल पत्रकार मित्रों के बीच तो चर्चा का विषय बने, लेकिन शेखर गुप्ता के बहरे कानों में और धुंधली आंखों में इनकी आवाज और इनकी चमक नहीं पहुंची. अब फिर शेखर गुप्ता ने एक नया कमाल किया है. उन्होंने उन दो मरे हुए व्यक्तियों के बारे में लिखा है, जिन्हें आम तौर पर हिंदुस्तान में पाक-साफ माना जाता है. हिंदी पत्रकारिता जगत के बड़े नामों में रहे प्रभाष जोशी को उन्होंने चौधरी देवी लाल का पैसे बांटने वाला दलाल साबित किया और विश्‍वनाथ प्रताप सिंह के ऊपर, जिन्हें हिंदुस्तान में आज तक किसी ने एक बूंद दाग का दोषी नहीं माना, चुनाव में बेशर्मी के साथ रुपये लेने वाला बताया. शेखर गुप्ता की अपनी रिपोर्ट में कॉन्ट्राडिक्शन ही कॉन्ट्राडिक्शन (विरोधाभास) है, क्योंकि 27 साल तक शेखर गुप्ता ने इसके बारे में कुछ नहीं लिखा, लेकिन अब 27 साल बाद उन्हें उनकी एक रिपोर्ट्स डायरी मिली, जिसमें उन्हें ये घटना लिखी दिखाई दी. हमनें उनकी 6 पेज की इंडिया टुडे की जून 88 की रिपोर्ट देखी है, जिसमें उन्होंने विश्‍वनाथ प्रताप सिंह के बारे में कुछ दूसरा ही लिखा है और आज वो उन्हें साढ़े सात लाख रुपये लेने वाला बता रहे हैं और देने वाले व्यक्ति का नाम प्रभाष जोशी बता रहे हैं. मैं उन दिनों चौथी दुनिया की तरफ से रिपोर्ट करने के लिए लगातार एक महीने इलाहाबाद में था. 

मैंने प्रभाष जोशी को इलाहाबाद में नहीं देखा. जनसत्ता के तत्कालीन संवाददाता हेमंत शर्मा 25 दिनों तक इलाहाबाद चुनावों को कवर करने के लिए इलाहाबाद में थे. उन्होंने प्रभाष जोशी को इलाहाबाद में नहीं देखा. विश्‍वनाथ प्रताप सिंह की पत्नी श्रीमती सीता देवी आज जीवित हैं, उन्होंने अपने घर में प्रभाष जोशी को नहीं देखा, और जितने भी लोग मुझे याद आ सकते थे, मैंने सबसे पता किया. किसी ने प्रभाष जोशी को इलाहाबाद में उस चुनाव में किसी ने नहीं देखा, लेकिन शेखर गुप्ता ने अपने सामने प्रभाष जोशी को साढ़े सात लाख रुपये लेकर विश्‍वनाथ प्रताप सिंह के घर ऐश महल में देखा और कई पत्रकारों की उपस्थिति में उन्हें पैसा देते हुए भी दिखा दिया. ये भ्रष्ट पत्रकारिता की चरम सीमा है. शेखर गुप्ता ये कह रहे हैं कि पत्रकारों की उपस्थिति में, जिसमें वो स्वयं थे वहां पर, विश्‍वनाथ प्रताप सिंह ने यह पैसा लिया. उन्होंने अपने गवाही के तौर पर लिखा कि वहां पर इस साल पद्म पुरस्कार पाये हुए एक पत्रकार भी उपस्थित थे. इस साल तीन पत्रकारों को पद्मपुरस्कार मिला है, जिनमें श्री रजत शर्मा, श्री राम बहादुर राय और स्वपन दास गुप्ता शामिल हैं. मैंने सबसे पहले रजत शर्मा जी से फोन पर पूछा कि क्या आप 1988 में इलाहाबाद में थे और क्या आपके सामने विश्‍वनाथ प्रताप सिंह को साढ़े सात लाख रुपये या आठ लाख रुपये दिए गए थे और क्या प्रभाष जोशी ने ये रुपये दिए थे? रजत शर्मा ने साफ कहा कि मैं उस समय तक वीपी सिंह से मिला ही नहीं था. मैंने स्वपनदास गुप्ता से पूछा, उन्होंने कहा रबिश, ये रिपोर्ट बकवास है. 

Advertisement. Scroll to continue reading.

मैं इलाहाबाद चुनावों में गया ही नहीं था. तीसरे सज्जन हिंदी पत्रकारिता का बड़ा नाम, तत्कालीन नवभारत टाइम्स के विशेष संवाददाता राम बहादुर राय ने कहा कि पारिवारिक परिस्थितियों के कारण और अपने संस्थान के रमेश चंद्रा द्वारा संपादक राजेंद्र माथुर को दिए गए आदेश के अनुसार इलाहाबाद नहीं गया. मेरा जाना वहां प्रतिबंधित कर दिया गया, क्योंकि उन दिनों राजीव गांधी बनाम विश्‍वनाथ प्रताप सिंह चल रहा था और मुझे माना जाता था कि मैं सही रिपोर्ट करता हूं तो मैं कहीं वी पी सिंह के पक्ष में रिपोर्ट न कर दूं, इसलिए मुझे इलाहाबाद जाने से रोक दिया गया. तब कौन पद्म पुरस्कार वाला व्यक्तिवहां उपस्थित था, जब वीपी सिंह को पैसे दिए गए और पैसे प्रभाष जोशी ने दिए. शेखर गुप्ता भ्रष्ट पत्रकारों की श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ माने जायेंगे, अगर शेखर गुप्ता अब भी उन पत्रकारों का नाम घोषित नहीं करते, जो उनके साथ इस घटना के गवाह थे. अगर शेखर गुप्ता इंडिया टुडे में ही लिखकर सात दिनों के भीतर नाम नहीं खोलते तो माना जाएगा कि शेखर गुप्ता न केवल भ्रष्ट पत्रकार हैं, बल्कि षड़यंत्रकारी पत्रकार भी हैं, जो कुछ लोगों के लिए ओछी पत्रकारिता करते हैं. शेखर गुप्ता को अगर इंडिया टुडे अब भी अपने यहां लिखने देता है तो मानना चाहिए कि इंडिया टुडे की पत्रकारिता भी इस देश में भ्रम फैलाने वाली, झूठ फैलाने वाली पत्रकारिता है. 

एक वक्त इंडिया टुडे, संडे के मुकाबले की पत्रिका थी. एक तरफ संडे था, एक तरफ इंडिया टुडे थी और लोग दोनों ही पत्रिकाओं को बहुत गंभीरता से पढ़ते थे. संडे बंद हो गया, लेकिन इंडिया टुडे चल रही है. संडे का संपादन एम जे अकबर करते थे और इंडिया टुडे का संपादन श्री अरुण पुरी करते थे. अरुण पुरी ने अपना एक बड़ा बिजनेस एंपायर बनाया और जिसमें उन्होंने अच्छे-अच्छे पत्रकारों को मौका दिया. उन लोगों ने अरुणपुरी की आशाओं को पूरा भी किया, लेकिन वहीं पर अभी जिस तरह की घटना इंडिया टुडे के जरिये देश के सामने आई है, उसने पत्रकारों का सिर, ईमानदार पत्रकारों का सिर शर्म से झुका दिया है. क्या मृत व्यक्तियों के बारे में लिखना शेखर गुप्ता का शगल बन गया है? उनकी ज्यादातर रिपोर्ट का टेल पीस या पुनश्‍च: मृत व्यक्तियों से जुड़ा होता है, जो अपनी सफाई देने नहीं आ सकते. और कम से कम ये घटना बताती है, जिसमें प्रभाष जोशी और वीपी सिंह शामिल हैं, कि शेखर गुप्ता पत्रकारिता में झूठ, मिथ्या और अपराध का सम्मिश्रण कर रहे हैं. इस घटना ने मेरे जैसे साधारण पत्रकार को हिला दिया है. मैं शेखर गुप्ता से कहना चाहता हूं कि पत्रकारिता के लिए जान हथेली पर रखनी पड़ती है, आंखों में आंखे डालकर सत्य से सामना करना होता है और तब लिखना होता है. मुझे शेखर गुप्ता जैसे पत्रकार के पतन के ऊपर दुःख है. 

Advertisement. Scroll to continue reading.

सबसे ज्यादा दुःख इस बात का है कि सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसे लोगों की आत्मा शेखर गुप्ता जैसे लोगों की रिपोर्ट देखकर, यह सोच कर कहीं न कहीं परेशान हो रही होगी कि शेखर गुप्ता उनके कभी दोस्त थे. भरी कड़ाही दूध में एक चुटकी नमक डाल कर उस पूरे दूध को फाड़ने जैसा है, पर इकट्ठा करना बहुत मुश्किल है. शेखर गुप्ता न कभी इसे समझे, न कभी इसे समझेंगे. पर मुझे इस बात का गर्व है कि शेखर गुप्ता अपनी चालाकी में, अपने झूठ में, अपनी ही रिपोर्ट का असत्य वर्णन कर गए कि प्रभाष जोशी ने पत्रकारों की उपस्थिति में विश्‍वनाथ प्रताप सिंह को साढ़े सात लाख रुपये दिए और विश्‍वनाथ प्रताप सिंह ने भी पत्रकारों की उपस्थिति में वो पैसे रख लिए. उनमें से कोई माई का लाल पत्रकार ऐसा नहीं था, जिसके अगुुआ शेखर गुप्ता माने जा सकते हैं, जिसने इसको रिपोर्ट किया हो और ये वो दौर था, जब राजीव गांधी, विश्‍वनाथ प्रताप सिंह के खिलाफ हल्का सा धब्बा तलाश रहे थे. ये सारे पत्रकार विश्‍वनाथ प्रताप सिंह के वेतनभोगी नहीं थे. उन दिनों शेखर गुप्ता इंडिया टुडे के रिपोर्टर थे. 

मैं बहुत दुःख के साथ ये शब्द लिख रहा हूं और मैं शेखर गुप्ता से आग्रह करता हूं कि उन पत्रकारों के नाम इंडिया टुडे के उसी कॉलम में खोलें, जिसमें उन्होंने ये मिथ्या भाषण किया है. अगर वो नाम खोलते हैं और एक गवाह उनके समर्थन में गवाही देने खड़ा होता है, क्योंकि पद्म पुरस्कार पाये इन तीनों पत्रकारों ने तो साफ मना कर दिया, तो मैं सार्वजनिक रूप से माफी मांगने को तैयार हूं, लेकिन मुझे मालूम है कि मैं कितनी भी आशा करूं, शेखर गुप्ता का झूठ, झूठ रहेगा और नए पत्रकारों को, जो शेखर गुप्ता में कहीं एक बड़े पत्रकार की छवि देखते हैं, गुमराह करने में शेखर गुप्ता का व्यक्तित्व बड़ा काम करेगा, शायद मेरी क्षमा मांगने की इच्छा पूरी न हो पाए. 

Advertisement. Scroll to continue reading.

(‘चौथी दुनिया’ से साभार)

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement