Harish Pathak-
ठिठकी और सहमी-सी खड़ी हिंदी पत्रकारिता को जिसने भाषा, तथ्य, खोजबीन और तेवर की नयी जमीन पर खड़ा कर पहले ‘रविवार’ फिर ‘आज तक’ के जरिये एकदम नयी दशा और दिशा दी। जो हिंदी पत्रकारिता में खोजी पत्रकारिता का प्रथम पुरुष बना। जिसने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक्स की पत्रकारिता को जोश, जज्बा और जुनून दिया। जो देश के आज के शिखर पर बैठे पत्रकारों का पहला संपादक बना।
ऐसे समयातीत पत्रकार, संपादक सुरेंद्र प्रताप सिंह (एस पी सिंह) को आज पुण्यतिघि (27 जून, 1997) पर मन और दिल के भीतरी कोनों से सादर नमन। आपको कभी नहीं भूल सकती हिंदी पत्रकारिता। एसपी इतिहास का वह जरूरी अध्याय है जिस पर हिंदी पत्रकारिता का प्रशिक्षु भी गर्व और दर्प करता है, करता रहेगा।
Jitendra Kumar-
भारत जैसे कृतध्न समाज में, जहां नेताओं के अलावा किसी को याद करने की परपंरा लगभग नहीं के बराबर है, वहां एक पत्रकार को उनके गुज़र जाने के 24 साल बाद भी इतने शिद्दत के साथ याद किया जा रहा है, यह इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने लीक से हटकर बहुत कुछ किया था. उन्होंने यह साबित किया था कि प्रतिभा एक जाति विशेष में ही नहीं होती है.
इसका प्रमाण टीवी स्क्रीन पर उनके गुजरने के दसियों वर्षों बाद तक सभी प्रमुख टीवी चैनलों पर दिख रहे चेहरों को देखकर लगाया जा सकता था. हां, मोदी के आने के बाद धीरे-धीरे वे सारे चेहरे गायब हो गए हैं. ऐसा नहीं हैं कि वे चेहरे बहुत ही प्रगतिशील व सत्ता विरोधी थी बल्कि उन चेहरों में से अधिकांश सारे कुकर्म करने को तैयार भी थे फिर भी वे सभी परिदृश्य से गायब हो चुके हैं और पहली बार एक खास जाति जाति-समुदाय का चेहरा ही हर चैनल पर दिखने लगा हैः दीपक चौरसिया को छोड़कर, चौरसिया एसपी के समय भी स्टार थे आज भले ही स्टार न हो लेकिन सांप्रदायिकता व पतनशील मीडिया का सबसे बजबजाता चेहरा जरूर है (बाकी जो दिख रहा है चौरसिया का ही पतीत रूप है)!
हां, उनको जानने व उनके साथ काम कर चुके व बुरी तरह से लताड़ दिए गए वे भक्त अब भी मानते हैं कि अगर एस पी होते तो टीवी चैनलों का इतना पतन नहीं हुआ होता, इससे मेरी घनघोर असहमति है.