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सुख-दुख

हकीकत के आइने में सूचना का अधिकार

आत्मदीप-

राष्ट्रीय सूचना का अधिकार दिवस (12 अक्टूबर) पर विशेष-

  • भारत में हर नागरिक को सूचना का अधिकार मिले 18 वर्ष हो चुके हैं। इतने अरसे बाद भी क्रियान्वयन के स्तर पर इस महत्वपूर्ण अधिकार की जमीनी हकीकत क्या है? 12 अक्टूबर, 2005 को देश में लागू हुये सूचना का अधिकार अधिनियम के स्थापना दिवस पर इसकी वर्तमान स्थिति की समीक्षा करना जरूरी है।

संयुक्त राष्ट्र की पहल और लम्बे जन आंदोलन की बदौलत भारत में लागू हुये इस कानून को वैश्विक स्तर पर सर्वश्रेष्ठ माना गया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिकार को संविधान के अनुच्छेद-19 के तहत मौलिक अधिकार माना है। इसकी महत्ता का अहसास इसलिये भी होता है कि इसके अधिनियम में इस कानून को अन्य कानूनों से उपर माना गया है। इसके माध्यम से देश के आम आदमी को इतनी शक्ति प्रदान की गई है कि जो सूचना देने से संसद या विधानमंडल को इंकार नहीं किया जा सकता है, वह सूचना देने से आम नागरिक को भी वंचित नहीं किया जा सकता है।

इस कानून का मूल मंतव्य है कि हमारी निर्वाचित सरकारें और समूचा सरकारी तंत्र जनता के प्रति जवाबदेह बने, सरकार और उसकी मशीनरी के कार्यों में शुचिता व पारदर्शिता आये। भ्रष्टाचार एवं अनियमितताओं पर रोक लगे। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था स्वस्थ व सुदृढ़ बने और उसमें जनभागीदारी को बढ़ावा मिले।

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आजादी के अमृतकाल में इन पवित्र उद्देश्यों की पूर्ति के लिये राष्ट्रीय बहस आवश्यक है। बेशक इस अधिकार से भ्रष्टाचार व धांधलियों पर एक सीमा तक अंकुश लगा है। लोक धन के दुरूपयोग व नियम विरूद्ध काम करने के प्रति लोक सेवकों में भय पैदा हुआ है। किन्तु कटु सत्य है कि इस कानून के क्रियान्वयन की कारगर व्यवस्था करने में हमारी सरकारें अब तक नाकाम रही हैं। इसका मुख्य कारण है, इस कानून के सर्वहितकारी प्रावधान केंद्र व राज्य सरकारों की प्राथमिकता नहीं बन सके हैं। बल्कि सरकारी स्तर पर जनता के इस कानून को मजबूत करने की बजाय कमजोर करने का प्रयास हुआ है।

मुख्य सूचना आयुक्त व सूचना आयुक्तों का दर्जा, वेतन एवं कार्यकाल बिना औचित्य के घटा दिया गया है। डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन एक्ट की धारा-29 (2) के जरिये आरटीआई एक्ट का शेष कानूनों पर सर्वोपरि प्रभाव खत्म कर दिया गया और धारा-30 (2) के जरिये विधायिका को जो जानकारियां दी सकती है, वे नागरिकों को भी देना जरूरी होने का प्रावधान हटा दिया गया है। जनता के जानने के हक की रक्षा करने की बजाय सरकारें और उनका तंत्र इस अधिकार को नुकसान पहुंचा रहा है।

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जनता के हितों की दुहाई देने वाली ये सरकारें इस सबसे ताकतवर अधिकार का प्रचार कर इसका लाभ जन-जन तक पहुंचाने में विफल रही हैं। वे इसके राह की रूकावटों को दूर करने में भी मौन क्यों हैं। आखिर क्या वजह है कि जनता के बडे़ हिस्से को इस कानून की प्रारंभिक जानकारी तक नहीं मिल सकी है।

केंद्रीय सूचना आयोग व राज्य सूचना आयोग में आयुक्तों की नियुक्तियां समय पर नहीं की जाती हैै। आज स्थिति यह है कि सूचना के अधिकार के सबसे बडे़ संरक्षक इन अर्द्ध न्यायिक निकायों में स्वीकृत पद स्वीकृत पद अरसे तक खाली पडे रहते़ हैं, जिससे आम जनता को समय पर जानकारी व न्याय नहीं मिल पा रहा है। झारखंड में सूचना आयुक्तों की नियुक्तियां नहीं होने से राज्य सूचना आयोग 3 साल से ठप पड़ा है। सूचना आयोग के दंड का भय खत्म हो जाने से सरकारी विभाग आम जनता को मांगी गई सूचनायें नहीं दे रहे हैं।
कई राज्य सूचना आयोग संसाधन और पर्याप्त व दक्ष स्टाफ की कमी से जूझ रहे हैं। जिससे वहां सूचना आयुक्त पूरी क्षमता से कार्य नहीं कर पा रहे हैं। सूचना आयोगों के काम की निगरानी की भी कोई व्यवस्था नहीं है। विचारणीय यह है कि सरकारें इस कानून का प्रचार-प्रसार करने से पूर्णतः विमुख क्यों है। मुख्य सूचना आयुक्त व राज्य सूचना आयुक्त के पदों पर नियुक्ति के लिये निर्धारित योग्यता की अनदेखी कर अपात्र को इन पदों पर नियुक्त करने से आम जनता को विधि विरूद्ध व अन्यायपूर्ण निर्णय भी भुगतने पड़ रहे हैं। इन संवैधानिक पदों पर नियुक्ति के लिये मेरिट आधारित निष्पक्ष व पारदर्शी चयन प्रक्रिया तय करने की जरूरत है।

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  • आत्मदीप
    पूर्व राज्य सूचना आयुक्त मप्र
    बीपी-01, सागर प्रीमियम टावर
    जेके हॉस्पिटल रोड, कोलार,
    भोपाल-462042
    मो- 9425010099
1 Comment

1 Comment

  1. Sarvjeet sen

    October 11, 2023 at 10:29 am

    व्यक्ति गत जानकारी पहले तब ही प्रदान की जाती थी जब प्राप्त करने इच्छुक यह साबित न कर दे कि वह उसे ब्यापक जन हित में आवश्यक है 99.6% केसों मे पहले भी नहीं मिलता था अब 100% मे ज्यादा अंतर नहीं आयेगा, विधान मंडलों मे भी ओव्हर आल आकड़े देते है प्रश्नों को भी सेंसर किया जाता है। रास्ता यही है कि शिकायत कर दे जांच करनी पड़ती है जांच रिपोर्ट प्राप्त कर सकते हैं

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