दिनेश श्रीनेत-
सबसे पहले दूरदर्शन पर 1984 में आई केतन मेहता की फ़िल्म ‘होली’ देखी. जब उसके बारे में पढ़ा तो पता चला कि वह महेश एलकुंचवार के नाटक पर आधारित है. फ़िल्म लगभग नाटक का ही अनुसरण करती है. कई तो इतने लंबे शॉट्स हैं कि फिल्म अध्ययन करने वालों के लिए जिज्ञासा का विषय बन गए थे कि इन्हें कैसे शूट किया गया होगा. महेश एलकुंचवार के बारे में पहली बार उसी फ़िल्म के माध्यम से जाना.
तब तक मराठी नाटककारों की शानदार परंपरा से कुछ-कुछ परिचय होने लगा था, भले ही उत्तर भारत में रहने की वजह से उस परिचय का माध्यम दूरदर्शन और सिनेमा ही रहा हो. गोविंद निहलाणी की फ़िल्मों के माध्यम से विजय तेंदुलकर को भी जाना. वसंत कानेटकर का एक उपन्यास पढ़ा जो परंपरागत उपन्यास के शिल्प से अलग था. समझ में आया कि नाटककार होने की वजह से शायद वे इतने प्रयोगधर्मी बन पाए.
जब कॉलेज पहुँचा तो एनई रेलवे की लाइब्रेरी में महेश एलकुंचवार का नाटक ‘प्रतिबिंब’ पढ़ा. तब तक विजय तेंदुलकर का ‘सखाराम बाइंडर’, मोहन राकेश का ‘आधे-अधूरे’ और हिंदी पाठ्यक्रमों में जबरन पैठ बनाए कुछ नाटकों को पढ़ चुका था. ‘प्रतिबिंब’ को पढ़ने का अनुभव बहुत अलग था. बिल्कुल वैसा ही जैसे जॉन ओसबोर्न के ‘लुक बैक इन एंगर’ को पढ़कर या बर्नाड शॉ के ‘आर्म्स एंड द मैन’ को पढ़कर लगा. वार्तालाप की शैली, छोटे चुटीले संवाद, आधुनिक जीवन के सेटअप और बिल्कुल मौजूदा दौर की संवेदनाओं से भरा हुआ नाटक.
मेरे कलेक्शन में गोविंद निहलाणी की फ़िल्म ‘पार्टी’ लंबे समय से थी मगर किसी न किसी वजह से उसका देखना टलता जा रहा था. कोविड के दौरान सोशल मीडिया पर ‘पार्टी’ फिल्म से लिए गए ओम पुरी के एक लंबे संवाद की क्लिप देखी. रुचि जगी और पूरी फ़िल्म देख डाली. उस फ़िल्म ने स्तब्ध कर देने वाला प्रभाव डाला. इतने सारे किरदारों के इतने सारे शेड्स और वैचारिक रूप से उद्वेलित करने वाले इतने सारे प्रसंग, संवाद उन सबको किसी संगीत की रचना की तरह लयबद्ध करना, यह आसान काम नहीं था.
गिरीश कारनाड अपनी द्वंद्वात्मकता और वैचारिक जटिलताओं के कारण आकर्षित करते थे तो एलकुंचवार अपने तीक्ष्णता और वैचारिक प्रखरता के चलते. महेश एलकुंचवार के नाटकों को हासिल करना भी आसान नहीं था. ऑक्सफोर्ड प्रेस ने उनके नाटकों का जो संचय प्रकाशित किया है, अमेजन पर उसका मूल्य काफी है, दोनों सजिल्द खंड करीब 12,000 के पड़ेंगे. हिंदी में अनुवाद बड़ी मुश्किल से नज़र आता है.
तीन तारीख को रज़ा फाउंडेशन ने एक साथ कई बड़े काम किए. पहला तो एक ही ज़िल्द में महेश के सात महत्वपूर्ण नाटकों को एक साथ प्रस्तुत करना. दूसरे, उनको एक निबंधकार के रूप में हिंदी तथा अंगरेजी के पाठकों से रू-ब-रू कराना. तीसरा, दिल्ली में बसे में उनके प्रशंसकों के साथ सीधे संवाद का मौका देना. अशोक बाजपेयी ने हमेशा की तरह बहुत सहज और अनौपचारिक तरीके से पूरे कार्यक्रम की प्रस्तुति रखी.
संवाद के दौरान महेश को उनके शानदार सेंस ऑफ ह्यूमर के साथ सुन पाना भी एक यादगार अनुभव रहेगा. वे बड़े सलीके से अपने महिमा मंडन को खंडित करते चलते थे. दर्शन, अंगरेजी साहित्य और भारतीय शास्त्रीय संगीत की गहरी समझ का परिचय उनके वक्तव्यों में जहां-तहां दिख जाता है मगर वे एक सहज परिहास के साथ जिस तरह उन गंभीर बातों को रखते चलते हैं, उससे हिंदी में बनावटी तरीके से गंभीरता का आवरण ओढ़े लेखकों को सीखना चाहिए.
आयोजन खत्म होने के बाद की अनौपचारिक बतकही में जब मैंने पहली बार ‘होली’ फिल्म के जरिए उसने अपने परिचय का जिक्र किया तो वे अपनी भौंहे ऊंची तानकर मुस्कुरा उठे और कहा, “देखो, कितनी पुरानी बात हो गई, कब वह फ़िल्म आई थी…” आयोजन के बाद उनकी एक तस्वीर मैंने ली, उनके इसी सहज व्यक्तित्व को साकार करती दिखती है.