Yashwant Singh : आजकल मैं यूजी कृष्णामूर्ति की एक किताब पढ़ रहा हूं, ”दिमाग ही दुश्मन है”. अदभुत किताब है. इसे पढ़कर लगने लगा कि सोचने विचारने की मेरी पूरी मेथोडोलाजी-प्रक्रिया ही सिर के बल खड़ा हो चुकी है. किताब का सम्मोहन-जादू-बुखार इस कदर चढ़ा कि इसे पढ़ते हुए माउंट आबू गया और दिल्ली आने के बाद भी पढ़ रहा हूं, दुबारा-तिबारा. तभी लगा कि किताब के कुछ हिस्से को आप सभी से साझा किया जाए. इस किताब के कुछ पैरे यहां दे रहा हूं, ताकि किताब के अंदर की आग को आप भी महसूस कर सकें. हालांकि पूरी किताब पढ़ने के बाद ही आप संपूर्णता में समझ कायम कर पाते हैं जो अंततः आपको समझाती है कि सारी समझ, विचार, धारणाएं, ज्ञान, कोशिशें, योजनाएं ही आपकी सबसे बड़ी दुश्मन हैं, इन्हें जला डालो, इनसे मुक्ति पा लो, फिर देखो कैसी निश्चिंतता आती है… ध्यान से पढ़िए नीचे दिए गए कुछ पैरों को… इस किताब को जिस भी साथी ने मुझे भेंट किया है, उसका आभारी हूं. फिलहाल तो याद नहीं आ रहा कि किसने दिया पढ़ने के लिए.
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जिस मस्तिष्क के बारे में तुम बात कर रहे हो, वह कहां है? क्या तुम मुझे उसे दिखा सकते हो? वस्तुत: तुम्हारे मस्तिष्क और मेरे मस्तिष्क जैसी कोई चीज नहीं है. मस्तिष्क ठीक उसी प्रकार सभी जगह है , जिस प्रकार कि सांस लेने वाली हवा. हमारे चारों ओर विचारों का मंडल है. यह न तुम्हारा है और न ही मेरा. यह हमेशा बना रहता है. तुम्हारा दिमाग एक एंटीना की तरह काम करता है और उसमें से उन संकेतों को चुनकर ग्रहण कर लेता है, जिसका वह उपयोग करना चाहता है.
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यह शरीर क्या चाहता है? यह कार्य करने के सिवाय कुछ नहीं चाहता. बाकी सारी चीजें विचार की उपज हैं. शरीर का आनंद और दर्द से अलग अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है. शरीर में अपनी क्रियाओं को स्वयं करते रहने का स्वाभाविक गुण होता है, जो तुम्हारे बिना किए ही होता रहता है. तुम हर समय स्नायु प्रणाली की स्वाभाविक गतिविधियों में हस्तक्षेप करते रहते हो. जब कोई संवेदना तुम्हारी स्नायु प्रणाली को प्रभावित करती है, तब तुम पहला काम यह करते हो कि उसे एक नाम दे देते हो तथा उसे आनंद या दुख की श्रेणी में रख देते हो. तुम्हारा दूसरा कदम यह होता है कि आनंददायी संवेदनाओं को बनाए रखना चाहते हो तथा दुखात्मक संवेदनाओं को रोकना चाहते हो. पहली बात तो यही कि संवेदनाओं को आनंद या दुख के रूप में पहचानना ही अपने आप में दुखपूर्ण है. दूसरे यह कि एक प्रकार की संवेदना (आनंदपरक) को बनाए रखना तथा दूसरे प्रकार की संवेदना (दुखपूर्ण) को रोकना ही दुखपूर्ण है. ये दोनों ही प्रक्रियाएं शरीर का दम घोटती हैं. वस्तुओं की स्वाभाविक स्थिति में प्रत्येक संवेदना की अपनी गहराई और समयावधि है. आनंद को बढ़ाने तथा दुख को रोकने से शरीर की संवेदनाएं तथा उनके प्रति प्रतिक्रियाएं करने की क्षमता नष्ट होती है. इसलिए तुम जो भी कर रहे हो, वह इस शरीर के लिए बहुत दर्दनाक है. यदि तुम इन संवेदनाओं को कुछ नहीं करते, तो पाओगे कि वे अपने आप में ही घुल-मिल जाएंगे.
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शरीर के लिए कोई मृत्यु नहीं है, केवल विखंडन है. विचार पदार्थ हैं, इसलिए उनसे उत्पन्न सारी इच्छाएं भी पदार्थ हैं. इसलिए तुम्हारी तथाकथितआध्यात्मिक इच्छा का कोई अर्थ नहीं है. शरीर की रुचि केवल अपने अस्तित्व को बनाए रखने में ही है. तुम्हारी सोच की संरचना मृत्यु के यथार्थ को नकारती है. वह किसी भी कीमत पर अपनी निरंतरता चाहती है. मैं किसी गहरी निद्रा या अन्य किसी सिद्धांत के बारे में नहीं बता रहा हूं, बल्कि केवल इतना संकेत कर रहा हूं कि यदि तुम बहुत गहरे जाते हो तो ‘तुम’ गायब हो जाते हो. शरीर वास्तविक चिकित्सकीय मृत्यु की प्रक्रिया से गुजरता है और कुछ मामलों में तो यह शरीर स्वयं को पुनर्नवा भी करता है. ऐसे समय में निजीपन का सारा इतिहास, जो शरीर की जींस संरचना में स्थित होता है, शीघ्र ही अपने आपको जीवन से अलग कर लेता है और अपनी ही धुन में मग्न हो जाता है. इसके बाद से यह अपने आपको किसी भी अन्य वस्तु से अलग नहीं कर सकता.
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समाज की शुरुआत ही अनैतिकता से हुई है. वही समाज अब चार सौ बीसी को अनैतिक बताता है तथा ईमानदारी को नैतिक कहता है. मैं इनमें कोई अंतर नहीं समझता. यह तो तुम्हारा अपराधबोध है जो तुम्हें अलालच के बारे में बात करने के लिए मजबूर करता है. जबकि तुम लगातार लालच भरी जिंदगी जीते रहते हो. तुम्हारे दिमाग द्वारा अलालच की खोज किया जाना अपने आप में ही लालची होने का प्रमाण है.
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तुम किसी भी उत्तर की खोज केवल इसलिए करते हो, ताकि तुम्हारी समस्या सुलझ जाए, तुम्हें दुख न मिले. लेकिन यहां जीवन दुख के सिवाय कुछ नहीं है. तुम्हारे जन्म लेने की प्रक्रिया ही दुखमय है. जन्म लेने वाली हर चीज दुखपूर्ण होती है. तुम जिस सहायता की चाह रखते हो वह केवल मृत्यु के समय ही प्राप्त हो सकती है. प्रत्येक को अंततः मोक्ष मिलता है. मोक्ष से पहले हमेशा मृत्यु होती है और प्रत्येक व्यक्ति की मृत्यु होती है.
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यह शरीर बहुत अधिक बुद्धिमान है, जो अपने अस्तित्व और पुनर्जीवन के लिए वैज्ञानिक या सैद्धांतिक उपदेशों की जरूरत नहीं समझता. तुम जीवन, मृत्यु और स्वतंत्रता के बारे में अपनी सभी कल्पनाओं को अलग कर दो, तो भी यह शरीर सुसंगत तरीके से काम करता रहेगा. इसे न तो तुम्हारी स्वतंत्रता चाहिए और न ही मेरी. तुम्हें कुछ भी नहीं करना है. तब तुम फिर कभी अमरता, मृत्यु के बाद या मृत्यु के बारे में मूर्खतापूर्ण प्रश्न नहीं पूछोगे. यह शरीर अपने आप में अमर है. जो गुरु तुमसे आध्यात्मिक जीवन की बात करते हैं, वे ईमानदार नहीं हो सकते. वे भविष्य की जीवन-संबंधी कल्पना तथा तुम्हारे डर को भुनाकर अपना पेट पालते हैं.
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किसी भी दिशा में कुछ भी करना हिंसा है. कोई भी प्रयास हिंसा है. यदि तुम अपने मस्तिष्क की शांति के लिए विचारों के जरिए कुछ भी करते हो, तो यह एक तरह के दबाव का ही उपयोग है. इसलिए यह भी हिंसा है. तुम हिंसा के द्वारा शांति लादने की कोशिश कर रहे हो. योग, ध्यान, प्रार्थना और मंत्र आदि हिंसा के ही तरीके हैं.
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यह जीवित शरीर अपने आप में अत्यंत शांतिपूर्ण है. इसके लिए तुम्हें कुछ नहीं करना होगा. शांतिपूर्ण तरीके से काम करता हुआ शरीर तुम्हारे उल्लास, आनंद और परमानंद की स्थिति की परवाह नहीं करता. मनुष्य ने इस शरीर की स्वाभाविक समझ को छोड़ दिया है. जैसे ही मनुष्य यह अनुभव कर लेगा कि वह जानवरों से अलग और श्रेष्ठ है, उसी क्षण वह अपने विनाश के बीज बोने लगता है. तुम जिस शांति की खोज कर रहे हो, वह तुम्हारे अंदर, शरीर के सामंजस्यपूर्ण कार्य करने में है. इस दुनिया को बचाने में मेरी कोई रुचि नहीं है. मनुष्य जाति का अंत होना ही है.
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तुम्हारी बौद्धिक समझ, जिसमें तुमने ढेर सारा निवेश किया है, उसने अभी तक तुम्हारे लिए एक भी अच्छा काम नहीं किया है.
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आध्यात्मिक लोग सबसे बेइमान लोग हैं. मैं उस बुनियाद पर जोर दे रहा हूं जिस पर आध्यातमिकता की पूरी इमारत खड़ी की गई है. मैं इस बात पर जोर दे रहा हूं कि आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होती. यदि आत्मा ही नहीं है तो फिर अध्यात्म की सारी बातें बकवास हो जाती हैं. अपने आपको पाने के लिए आध्यात्मिक जीवन के उन सारे आधारों को नष्ट करना होगा, जो गलत हैं. तुम्हें अपने अंदर एक आग पैदा करनी होगी जिसमें मनुष्यों द्वारा पैदा किए गए सभी विचार और अनुभव जलकर खत्म हो जाएं. दुनिया में जो इतनी अधिक हिंसा है, वह सब ईसा मसीह और बुद्ध जैसे लोगों की देन है.
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जो ब्रह्म पर विश्वास करते हैं, जो शांति का उपदेश देते हैं, प्रेम की बातें करते हैं, उन्होंने ही यह मनुष्यों का जंगल बनाया है. मनुष्यों के इस जंगल की तुलना में प्रकृति का यह जंगल अधिक सरल और संवेदनशील है. प्रकृति में जानवर अपने ही लोगों को नहीं मारते. यह प्रकृति की सुंदरता है. इस दृष्टि से मनुष्य दूसरे जानवरों से भी बदतर है. यह तथाकथित सभ्य आदमी अपने आदर्शों और विश्वासों के लिए हत्या करता है, जबकि पशु केवल जीने के लिए ही दूसरों को मारते हैं.
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प्रकृति हमेशा कोई अनोखी चीज बनाने की कोशिश करती रहती है. ऐसा नहीं लगता कि प्रकृति किसी भी चीज को एक प्रतिरूप (मॉडल) के रूप में इस्तेमाल करती है. जब वह कोई एक अनोखी चीज तैयार कर लेती है तब विकास की प्रक्रिया में वह उसे किनारे कर देती है और वह उसमें कोई रुचि नहीं रखती. ईसा मसीह, गौतम बुद्ध, या कृष्ण को माडल के रूप में प्रयोग करके हमने प्रकृति की उन संभावनाओं को समाप्त कर दिया है, जो अनोखी चीजें बनाती हैं. जो तुमसे यह कहता है कि अपने प्राकृतिक चरित्र को भूल जाओ और किसी दूसरे संत-महात्मा जैसा बनो, वह तुम्हें गलत रास्ते पर ले जा रहा है.
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जैसे ही तुम किसी योगी या धर्मपुरुष के संपर्क में आते हो, तुम पहला गलत रुख यह अख्तियार करते हो कि अपने कार्य करने की शैली को उन लोगों के काम करने की शैली के अनुसार ढालने लगते हो. ऐसा हो सकता है कि वे जो कुछ कह रहे हैं, उसका संबंध तुम्हारे कार्य करने की शैली से बिलकुल हो ही नहीं. अनोखापन कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो किसी फैक्टरी में तैयार हो जाए. समाज का स्वार्थ केवल अपनी यथास्थिति को बनाए रखने में होता है. इसीलिए वह सबके सामने इस तरह के प्रतिरूप प्रस्तुत करता है. तुम उसी मॉडल (जैसे- संत, महात्मा या क्रांतिकारी) जैसा बनना चाहते हो, लेकिन यह असंभव है. तुम्हारा जो समाज स्वीकृत माडल के अनुरूप तुम्हें बदलने में रुचि रखता है, वही सच्चे व्यक्ति से चुनौती महसूस करने लगता है, क्योंकि वह उसकी निरंतरता को चुनौती देता है. एक सच्चे विलक्षण व्यक्ति के पास कोई सांस्कृतिक पृष्ठभूमि नहीं होती और वह कभी नहीं जानता कि वह विलक्षण है. वह विलक्षण व्यक्ति अपने आपको शारीरिक या आध्यात्मिक तौर पर पुनरुत्पन्न नहीं कर सकता. प्रकृति उसे व्यर्थ घोषित कर देगी. प्रकृति ही पुनरुत्पादन में रुचि रखती है और समय-समय पर कोई विलक्षण नमूना या मनोविनोद प्रस्तुत करती रहती है. यह नमूना पुनरुत्पादन करने में असमर्थ होता है, जो विकास की प्रक्रिया में नष्ट हो जाता है. यदि व्यक्ति के अंदर की विलक्षणता को विकसित करना है तो उसे अचानक या संयोगवश अपने आपको समस्त अतीत के बोझ से मुक्त कर लेना होगा. यदि मनुष्य के समस्त संचित ज्ञान और अनुभव को हटा दिया जाए, तो जो कुछ भी बचेगा, वह मूल स्थिति होगी- बिना प्राचीनता के. समाज के लिए उस तरह के व्यक्ति की कोई उपयोगिता नहीं होगी. एक घने वृक्ष की तरह यह व्यक्ति छाया तो दे सकेगा लेकिन उसे इसका अहसास कभी नहीं रहेगा कि वह छाया दे रहा है. यदि तुम उस वृक्ष के नीचे बैठोगे तो तुम्हारे सिर पर एक नारियल गिर सकता है. अर्थात वहां खतरा हो सकता है. इसलिए समाज ऐसे व्यक्तियों से खतरा महसूस करता है. जिस तरह से इस समाज की रचना हुई है, उसमें वह ऐसे व्यक्ति का कोई उपयोग नहीं कर सकता. मैं जनसेवा में, लोगों की सहायता करने में, दुख से कराहती हुई दुनिया के प्रति दया दिखाने में, दुनिया को उपर उठाने में तथा इसी तरह की अन्य बातों में विश्वास नहीं करता।
भड़ास के एडिटर यशवंत सिंह के फेसबुक वॉल से.
madan tiwary
October 9, 2014 at 8:15 am
कृष्णमूर्ति ने जब इतना तूफ़ान पैदा कर दिया तो अरबिंदो को पढने के बाद कमंडल लेकर निकल जाना पडेगा। तिन आधुनिक दार्शनिक हुए रजनीश जो सामान्य से थोड़ा ज्यादा बुद्धिमानो के लिए । कृष्णमूर्ति उससे थोड़ा ज्यादे बुद्धिमानो के लिए । और अरबिंदो उनके लिए जो दुनिया को समझ जाने का दावा करते है। बीस साल में अरबिंदो को नहीं समझ पाया । गलती से अद्वैत में मत घुआ जाइयेगा । डी सुनिया उनक्वउस्स्व
SS Rawat
May 2, 2016 at 4:26 am
यहाँ दी गई टीपों में सिवाय एक पागल के प्रलाप के अतिरिक्त कुछ भी काम की चीज नहीं है। हाँ, जैसे विक्षिप्त के मुँह से भी कभी-कभी तार्किक बात निकल आती है, यहाँ भी कुछ ऐसे ही शब्द अनायास निकल आये हैं। अब यह आप पर निर्भर है कि आप किसी पागल की ऊटपटांग बकवास को गहन दार्शनिक उद्बोधन समझें या कुछ और।