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सुख-दुख

हमारा मुख्यधारा का मीडिया ठीक से अनुमान भी नहीं लगा पाया!

सुशील उपाध्याय-

गॉसिप ही खबर है! यह ठीक है कि मीडिया न तो ईश्वर है और न ही कोई नजूमी, जो हर बात को ठीक वैसा ही बता दे जैसा कि वह अपने मूल में है। वैसे, ऊपर कही गई बात के साथ एक समानांतर तथ्य यह है कि मीडिया की सच्ची और अच्छी ट्रेनिंग किसी भी व्यक्ति को यह अनुमान लगाने की योग्यता प्रदान कर देती है कि उसके आसपास क्या घटित हो रहा है और इस घटित होने का क्या परिणाम आने वाला है।

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अब इस सिद्धांत को उत्तराखंड में हुए सत्ता परिवर्तन के साथ जोड़कर देखिए और इसके साथ में मीडिया कवरेज को भी देखिये तो साफ पता लगता है कि हमारा मुख्यधारा का मीडिया, विशेष रूप से हिंदी मीडिया न तो ठीक से अनुमान लगा पाया और न ही पाठकों-दर्शकों के सामने सही तथ्य रख सका। इस बात को मीडिया की दायित्व निर्वहन की विफलता की तरह क्यों नहीं देखा जाना चाहिए ? यहां उन अपवादों की बात नहीं की जा रही है, जिनके तुक्के भी हमेशा निशाने पर लगते हैं। यहां मुख्यधारा के बहुसंख्यक मीडिया की बात हो रही है, जिससे सूचनाएं हासिल करने के लिए या तो अखबार खरीदना होता है अथवा अन्य समाचार माध्यमों पर पैसा खर्च करना पड़ता है।

जब कोई पाठक अथवा दर्शक समाचार और सूचनाएं पाने के लिए पैसा खर्च करता है तो सही सूचना पाना उसका अधिकार भी है। तो क्या उत्तराखंड में सत्ता परिवर्तन के मामले में यहां के दर्शकों-पाठकों को समय पर, सही और तथ्यपूर्ण सूचनाएं मिल सकीं ? इसका उत्तर नहीं है। उत्तराखंड में बीते एक सप्ताह से मुख्यमंत्री पद के लिए जिन चेहरों को मीडिया द्वारा दिखाया-सुनाया और प्रसारित किया जा रहा था, उनमें से कोई भी इस पद का दावेदार-हकदार साबित नहीं हुआ। जिस व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाया गया, उसके नाम की चर्चा लगभग ना के बराबर थी। तो क्या इसका मतलब यह है कि जो व्यक्ति मीडिया मैनेज करना जानता है या जो मीडिया के इस्तेमाल में माहिर है, वह खुद को मुख्यधारा के मीडिया में आसानी से स्थापित कर लेता है और लोगों के दिमाग तक भी पहुंच जाता है।

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इससे सीधे तौर पर भले ही कुछ हासिल ना हो, लेकिन आम लोगों, जोकि मतदाता भी हैं, उन्हें लगता है कि उनके साथ ज्यादती हुई है जिनका नाम मुख्यमंत्री पद के लिए मीडिया में चर्चा में था और किसी अन्य व्यक्ति को छिपे हुए ढंग से लाभ दे दिया है। इस प्रक्रिया के माध्यम से इमेज बिल्डिंग और इमेज डेंटिंग, दोनों काम एक साथ किए जाते हैं। कई बार ऐसा नियोजित ढंग से होता है और कई बार लापरवाही के कारण।

बहुत बार ऐसा भी लगता है कि मीडिया अपनी सभी संभावनाओं को बचा कर रखना चाहता है। यदि वह किसी एक ही व्यक्ति के बारे में बात करे अथवा किसी के भी बारे में बात ना करें तो भविष्य में उसके आर्थिक और वित्तीय हित प्रभावित हो सकते हैं। इसलिए मीडिया ने उन सभी लोगों के बारे में बात की जिनके बारे में शायद भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने चर्चा भी नहीं की होगी। मीडिया की सूची में कोई एक-दो नहीं, बल्कि आठ-दस नाम मुख्यमंत्री बनने के सुपात्र थे। जबकि सच्चाई यह निकल कर आई कि जिन लोगों को मीडिया द्वारा मुख्यमंत्री बनाया जा रहा था, उनमें से कुछ के नाम पर तो मंत्री पद की लॉटरी भी नहीं लग सकी।

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इस पूरे प्रकरण में एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि आज मुख्यधारा के मीडिया के पास सभी तरह के संसाधन होने के बावजूद पक्के स्रोतों की बेहद कमी है। यह आश्चर्य की बात है कि देहरादून से दिल्ली तक भाजपा और केंद्र सरकार को कवर करने वाले नामी-गिरामी पत्रकारों, संपादकों को यह पता नहीं था कि किसे उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनाया जा रहा है एक बात ऊपर ही स्पष्ट की गई कि कोई भी पत्रकार ज्योतिषी नहीं होता। न ही वह ईश्वर होता कि उसके पास सभी सूचनाएं मौजूद हों, लेकिन पत्रकारिता में इस सिद्धांत को बहुत बार दोहराया जाता है कि जो सूचना दो लोगों के पास है, वह सूचना कभी छिपी नहीं रह सकती है।

इसका अर्थ यह है कि जब मुख्यमंत्री का नाम तय हुआ होगा तो वह किसी एक व्यक्ति ने तय नहीं किया होगा। उसमें एक से अधिक लोग शामिल रहे होंगे और उस प्रक्रिया को पूरा करने में कुछ अन्य लोगों की मदद की भी आवश्यकता हुई होगी। कुछ लोगों ने उस नाम की सूचना आधिकारिक या गैर आधिकारिक तौर पर दिल्ली से देहरादून तक पहुंचाई होगी। फिर, यह कैसे हुआ कि किसी के पास पक्की सूचना थी ही नहीं! इससे किसी न किसी स्तर पर यह भी पता चलता है कि सत्ता जितनी सूचनाएं देती है, मीडिया उतनी ही सूचनाओं को अंतिम मान लेता है। या फिर गॉसिप को खबर की तरह प्रस्तुत करने लगता है।

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किसी भी जागरूक पाठक या दर्शक को इस बात पर एतराज होना चाहिए कि बीते एक सप्ताह के दौरान मीडिया द्वारा विरोधाभासी सूचनाएं दी गई और आखिर में जो तथ्य निकलकर आए, वे मीडिया द्वारा दी गई सूचनाओं से पूरी तरह अलग थे। इस सारी गहमागहमी और भगदड़ के बीच एक बड़ा नुकसान यह हुआ कि उत्तराखंड का बजट किसी व्यापक चर्चा के बिना ही पास हो गया। इस बजट के अच्छे या बुरे पहलुओं पर मीडिया में बस उतनी ही चर्चा हुई, जितनी सूचना कि सरकार द्वारा विज्ञप्ति जारी करके दी गई। कैग की रिपोर्ट भी कई दिन बाद मीडिया की निगाह में आ पाई।

नए मुख्यमंत्री ने काम संभाल लिया है इसलिए अब मीडिया उनकी पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, आध्यात्मिक-दार्शनिक खूबियों को उजागर करने में जी-जान से जुटा हुआ है। जिन माध्यमों पर निवर्तमान मुख्यमंत्री के बारे में अपवाद रूप में भी कोई आलोचनात्मक खबर नहीं होती थी, अब वहां पर इक्का-दुक्का आलोचनात्मक खबरें दिख रही है। वास्तव में, मीडिया का यह हृदय परिवर्तन बहुत तेजी से होता है और परिवर्तन का यह नियम सभी भारतीय भाषाओं के मीडिया पर ज्यों का त्यों लागू होता है। इससे पुनः इस बात की पुष्टि होती है कि भारतीय भाषाओं का मुख्यधारा का मीडिया प्रथमतः सत्ता के अनुरूप व्यवहार करता है। यद्यपि अपवादों की भी कमी नहीं है, लेकिन अपवाद कभी भी मुख्यधारा का निर्धारण नहीं करते। फिलहाल उत्तराखंड का मीडिया मंत्रियों की लिस्ट बनाने और मिटाने में लगा है। मंत्रियों के संभावित नामों की इतनी लंबी सूची बनाई जा रही है कि कोई भी सम्भावनाशील नाम इससे बाहर है ही नहीं।

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सुशील उपाध्याय

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