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मजीठिया वेज अवॉर्ड : सुप्रीम कोर्ट के वज्र से बचाव का कवच नहीं सूझ रहा मीडिया मालिकान को

-भूपेंद्र प्रतिबद्ध-

मजीठिया वेज बोर्ड की संस्तुतियों के मुताबिक पगार-सेलरी-मेहनताना पाने की इच्छा रखने वाली प्रिंट मीडिया कर्मियों की विशाल जमात आजकल एक नए उल्लास-उमंग-उम्मीद से सराबोर है। सुप्रीम कोर्ट की सख्ती,  उसकी ओर से अवमानना के समस्त केसों की अंतिम सुनवाई की तिथि तय कर देने और आगे सुनवाई का कोई अवसर देने से मना करने के चलते पत्रकार एवं गैर पत्रकार कर्मियों में आशा का एक अनोखा-अप्रतिम संचार हो गया है। उनका वह संदेह-संशय हवा हो गया है जिसमें उन्हें लगता रहा था या कि लगता रहा है कि कुछ भी हो जाए, मीडिया मालिकान उन्हें मजीठिया के मुताबिक पगार किसी भी सूरत में नहीं देंगे। क ्योंकि उनकी जेहन में यह रचा-बसा दिया गया था या कि बसा दिया गया है कि अखबारी मालिक कानून, सरकार, सिस्टम से ऊपर  हैं। उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वे अपनी मर्जी के मालिक या कहें कि भगवान हैं।  उनकी इच्छा ही कानून है। उनका आदेश न मानने वाला कर्मचारी हर उस दंड-सजा का भागी है या होगा जो उसका कारिंदा मैनेजमेंट तय करेगा, देगा।

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-भूपेंद्र प्रतिबद्ध-

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मजीठिया वेज बोर्ड की संस्तुतियों के मुताबिक पगार-सेलरी-मेहनताना पाने की इच्छा रखने वाली प्रिंट मीडिया कर्मियों की विशाल जमात आजकल एक नए उल्लास-उमंग-उम्मीद से सराबोर है। सुप्रीम कोर्ट की सख्ती,  उसकी ओर से अवमानना के समस्त केसों की अंतिम सुनवाई की तिथि तय कर देने और आगे सुनवाई का कोई अवसर देने से मना करने के चलते पत्रकार एवं गैर पत्रकार कर्मियों में आशा का एक अनोखा-अप्रतिम संचार हो गया है। उनका वह संदेह-संशय हवा हो गया है जिसमें उन्हें लगता रहा था या कि लगता रहा है कि कुछ भी हो जाए, मीडिया मालिकान उन्हें मजीठिया के मुताबिक पगार किसी भी सूरत में नहीं देंगे। क ्योंकि उनकी जेहन में यह रचा-बसा दिया गया था या कि बसा दिया गया है कि अखबारी मालिक कानून, सरकार, सिस्टम से ऊपर  हैं। उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वे अपनी मर्जी के मालिक या कहें कि भगवान हैं।  उनकी इच्छा ही कानून है। उनका आदेश न मानने वाला कर्मचारी हर उस दंड-सजा का भागी है या होगा जो उसका कारिंदा मैनेजमेंट तय करेगा, देगा।

अखबारी मालिकों के दानवीय रूपों-करतूतों-कारनामों-कृत्यों का उनके पालतू दरिंदों के मानिंद कारिंदे बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार करते ही हैं, कुछ ऐसे महानुभावों की जुबानी टकसाल से भी ऐसे ही शब्द निकलते हैं जो खुद के क्रांतिकारी होने का दंभ भरते हैं या कि भरते रहे हैं। ऐसे ही एक महा-महा मनीषी ने उगला है कि मीडिया मालिकों ने सभी सरकारों, अदालतों, यहां तक कि सर्वोच्च अदालत को भी खरीद रखा है। सारे श्रम कानून लापता हैं। श्रम महकमा मीडिया मालिकों के पेरोल पर है। वकील महंगाई के उत्कर्ष पर हैं। मीडिया कर्मचारियों को ढंग से नियुक्ति पत्र तक नहीं मिलता। ज्यादातर अनुबंध यानी कांट्रैक्ट पर हैं। आदि-इत्यादि। फिर भी मजीठिया-वजीठिया के लिए जाने किसके लिए सुप्रीम कोर्ट में लड़ रहे हैं। विरोधाभासों से भरे इन महान ज्ञानी का उपदेश सिर- आंखों पर। लेकिन करें क्या? प्रदूषित पर्यावरण में ऑक्सीजन की तलाश बंद कर दें? सांस लेना छोड़ दें? नहीं ! अरे भई जीने की खुराक इसी प्रदूषित-विषम-विषाक्त माहौल से ही निकालनी पड़ेगी। जीना है तो यह सब करना ही पड़ेगा। और सबसे अहम एवं अनिवार्य जीने-पाने के लिए लडऩा ही पड़ेगा। क्यों कि लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता। तभी तो साथियों हम लड़ रहे हैं! यह अलग बात है कि यह लड़ाई सीमित पैमाने की न्यायिक लड़ाई है।

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फिर भी इसी सीमित लड़ाई ने हमारे उत्साह को आसमान पर पहुंचा दिया है। इसी की देन है कि सभी अखबारी कामगार मजीठिया के मुताबिक अपना सेलरी स्ट्रक ्चर बनाने और सेलरी फिटमेंट को लेकर उलझे हुए हैं। इस बारे में पूछताछ करने, जानकारी जुटाने में मशगूल हैं। इसी सिलसिले में भड़ास संपादक ने हाल ही में एक कार्यशाला भी आयोजित की थी। इसमें जानकारियों की व्यापक रूप से साझेदारी की गई। बावजूद इसके बड़ी तादाद में मीडिया मुलाजिमों को अपनी बनती सेलरी का ज्ञान नहीं हो पाया है। जानकारी आदान-प्रदान का सिलसिला जारी है।

इस बीच आश्चर्यजनक रूप से एक अहम डेवलपमेंट यह जानने-सुनने को मिल रहा है कि अभी तक अपनी मनबढ़ी, बदमाशी, ढींठपन, कांईयांगीरी के तहत दृश्य रूप से सुस्त पड़े कई मीडिया मालिकान अचानक तेजी में आ गए हैं। वे कर्मचारियों, खासकर केस करने वाले कर्मचारियों को मनाने-फुसलाने-सेटलमेंट करने के प्रयास में लग गए हैं। इस बारे में हिंदुस्तान टाइम्स मैनेजमेंट और प्रभात खबर मालिकान की सक्रियता उल्लेखनीय है। इसके अलावा इंडियन एक्सप्रेस मैनेजमेंट भी इस दिशा में अंदरखाते अपनी कारगुजारी में मशगूल है। क्योंकि अकेला इंडियन एक्सप्रेस है जिसकी यूनियनों ने कंटेम्प्ट किए हुए हैं। यह अलग बात है कि एक्सप्रेस मैनेजमेंट में सुप्रीम कोर्ट के डंडे से बचने के लिए मजीठिया लागू करने का ढोंग किया और सेलरी फिटमेंट के नाम पर बड़ी तादाद में कर्मचारियों की सेलरी कम कर दी। सुप्रीम कोर्ट के बज्र से बचने के लिए एक्सप्रेस मैनेजमेंट अब कौन एवं किस तरह का कवच गढ़ रहा है, यह तो अज्ञात है लेकिन इतना तो पक्का है कि अब उसे मजीठिया के हिसाब से सेलरी फिटमेंट करनी एवं प्रमोशन देनी पड़ेगी। साथ ही सारा बकाया एकमुश्त प्रदान करना पड़ेगा। नहीं तो सुप्रीम कोर्ट क्या हश्र करेगी, इसका अनुमान करना कठिन नहीं है।

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इसी तरह की करतूत हिंदुस्तान टाइम्स प्रबंधन ने भी किया है। मिसाल है बेंगलूरु के एक कर्मचारी का जिसने सुप्रीम कोर्ट में केस किया है। उसकी सेलरी हर महीने घटा-बढ़ा कर दी जाती है। कभी थोड़ा कम कर दिया, कभी मामूली सा बढ़ा दिया। यही नहीं, पिछले किसी भी वेज बोर्ड में उसकी सेलरी कम नहीं हुई थी, लेकिन मजीठिया में एकदम कम कर दी गई। मजीठिया संस्तुतियों के मुताबिक हर ग्रेड के कर्मचारियों के वेतन में पौने तीन गुना से ज्यादा वृद्धि का प्रावधान है। रह गई क्लास की बात, तो एचटी मीडिया ग्रुप इस्टेब्लिसमेंट अपनी सालाना कमाई के लिहाज से क्लास वन में निर्विवाद रूप से आता है।

संदर्भित है तो बताते चलें कि एचटी मीडिया ग्रुप समेत इंडियन एक्सप्रेस, टाइम्स ऑफ इंडिया आदि बड़े या कहें कि नेशनल अंग्रेजी मीडिया हाउसों ने अपने हर एडीशन को एक ब्रांच नहीं यूनिट का दर्जा दे रखा है। और ब्रांचों रूपी यूनिटों की सालाना आमदनी के आधार पर कर्मचारियों की सेलरी निर्धारित कर रखी है। जो कि गलत-गैर कानूनी है। सही यह है कि हर मीडिया हाउस एक इस्टेब्लिसमेंट है और सभी यूनिटें, ब्रांचें, शाखाएं, विभाग, कंपनियां, एडीशंस आदि उसके मातहत हैं। ध्यान दें, इसी वजह से सुप्रीम कोर्ट हमेशा इस्टेब्लिसमेंट की बात करता है-कहता है। उसके आदेशों में इस्टेब्लिसमेंट शब्द ही लिखा होता है। जाहिर है, मीडिया हाउस इस्टेब्लिसमेंट का मालिक अमूमन एक ही होगा- होता है और इस्टेब्लिसमेंट का आय-व्यय उसी के नाम से होता है। ऐसे में इस्टेब्लिसमेंट के समग्र कर्मचारियों की मातहती भी एक ही मालिक की होगी। साफ है कि इस्टेब्लिसमेंट एक, मालिक एक, कर्मचारी सारे उसके तो सेलरी भी उसकी एकमुश्त कमाई में से ही बनती है। फिर अलग-अलग यूनिटों, ब्रांचों, शाखाओं, विभागों, कंपनियों, एडीशंस आदि के नाम पर भेदभाव क्यों? वेतनों में विसंगतियां क्यों? इसी विसंगति के मद्देनजर दिल्ली हाईकोर्ट का वह फैसला उल्लेखनीय है जिसमें उसने इन विसंगतियों को गलत बताया था। कोर्ट ने एक संस्थान, एक मालिक और उसी के नाम से होने वाले आय-व्यय का स्पष्ट जिक्र किया था। और कर्मचारियों को उसी आय के अनुसार वेतन एवं सुविधाएं दिए जाने की बात कही थी। यह केस चंद वर्षों पहले एचटी मीडिया ग्रुप के कर्मचारियों ने अपनी मालकिन-मैनेजमेंट के विरुद्ध किया था। इसके अलावा वर्ष १९९४ में इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स बनाम भारत सरकार आदि केस के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने भी ऐसा ही फैसला दिया था।

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हिंदी मीडिया घरानों में एबीसी के ताजा आंकड़ों के मुताबिक दैनिक भास्कर देश में सबसे ज्यादा प्रसारित होने वाला अखबार है। जाहिर है विज्ञापनों एवं अन्य माध्यमों से होने वाली उसकी कमाई भी तुलनात्मक रूप से सर्वाधिक होगी। वैसे भी पिछले दस साल के उसी के आंकड़े बोलते हैं कि डीबी कॉर्प लिमिटेड की सालाना समग्र आमदनी एक हजार करोड़ रुपए से अधिक है। उसके साठ से ज्यादा संस्करणों में रोजाना छपने वाले विज्ञापनों-परिशिष्टों पर गौर करें तो साफ हो जाता है कि उसकी कमाई दर्शाए गए आंकड़ों से कई गुना ज्यादा है। अब बेदर्शाई कमाई कहां जाती है? उसका क्या-कैसा लेखा-जोखा है? इस पर अटकलें-अनुमान ही लग सकते हैं या कि लगाए जा सकते हैं। बेतहाशा कमाई लेकिन कर्मचारियों को देने के लिए पैसे नहीं। इसी से आजिज-परेशान होकर दैनिक भास्कर के कर्मचारियों ने अलग-अलग समूहों-ग्रुपों में बीस से ज्यादा कंटेम्प्ट केस सुप्रीम कोर्ट में किए हैं। इसी के साथ भास्कर मैनेजमेंट ने मजीठिया वेज बोर्ड की संस्तुतियों के अनुसार पगार देने से बचने के लिए कर्मचारियों के उत्पीडऩ-प्रताडऩा, परेशान करने के वे सारे हथकंडे अपनाए हैं जिनका इस्तेमाल कम से कम संवेदनशील व्यक्ति या संस्थान तो नहीं ही करेगा। हां, राक्षसी-दानवीय-दैत्यीय शक्तियां जरूर करती हैं। हो सकता है कि इन ताकतों में भी मानवीय संवेदना के थोड़े अंश हों, लेकिन भास्कर मैनेजमेंट इससे पूरी तरह रिक्त है।  भास्कर मैनेजमेंट ने कर्मचारियों से जबरन लिखवा लिया है कि वे मिल रही मौजूदा सेलरी से संतुष्ट हैं और उन्हें मजीठिया वेज अवॉर्ड नहीं चाहिए। जबकि वर्किंग जर्नलिस्ट एंड अदर न्यूजपेपर इंप्लाईज (कंडीशन ऑफ सर्विस) एंड मिसलेनियस प्रॉविजन एक्ट १९५५ की धारा १३ में साफ लिखा है कि सरकारी आदेश यानी वेज बोर्ड की संस्तुतियों में जो वेजेज-सेलरी-पारिश्रमिक तय किया गया है, उससे कम नहीं दिया जा सकता। धारा १६ के मुताबिक अखबार कर्मचारी दूसरी अन्य सुविधाओं एवं लाभों का पूरी तरह हकदार है।

वैसे भी सुप्रीम कोर्ट ने भास्कर समेत दूसरे सभी अखबारों मसलन दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका, नई दुनिया आदि अखबारों की इन सभी बदमाशियों का गंभीरता से संज्ञान लिया है। इसीलिए सुप्रीम कोर्ट ने सभी कर्मचारियों को निर्देश दिया है कि वे संबंधित लेबर कमिश्ररों को अपनी मुसीबतों-परेशानियों-दिक्कतों का ब्योरा दें। लेबर कमिश्रर स्टेटस रिपोर्ट अनिवार्य रूप से दी गई अवधि के अंदर उसे प्रेषित करेंगे। ऐसे में कर्मचारियों को चाहिए कि वे इस मौके का फायदा उठाएं और लेबर कमिश्रर को प्रताडऩा से अवगत कराएं ही साथ ही अपनी बनती सेलरी, बकाया, प्रमोशन एवं अन्य सुविधाओं-लाभों के बारे में भी लिखकर दें। कथित रूप से मीडिया मालिकों के पेरोल पर रहने वाले श्रम अधिकारियों-कर्मचारियों को मीडिया कर्मियों के हित में अपनी कार्रवाई-कार्यवाही कड़ाई से करनी होगी। अपनी असली-वास्तविक ड्यूटी से वे बच नहीं सकते। अन्यथा सुप्रीम कोर्ट की गाज से बच पाना उनके लिए मुमकिन नहीं होगा।

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भूपेंद्र प्रतिबद्ध
चंडीगढ़
मो. ९४१७५५६०६६

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0 Comments

  1. Naveen Pandey

    May 10, 2016 at 1:59 pm

    बहुत अच्छी जानकारी। धन्यवाद

  2. raju chauhan

    May 18, 2016 at 12:38 am

    Bhaskar management me bare mein parha, accha laga. Yeh itne ghatiya hain ke apne 5 se 16 saal purane employees ko matra 6 se 14 hazar tak hi salary de rahe hain . ab jitne bhi patrakar rakhe ja rahe hain db digital, mp printer aur ek nai company aur bana do hai dhrsl ( decent human resource solutions limited ) ke naam se, usmein rakhe jaa rahe hain. Kai purane employees aise bhi hain jinko 10 saal ho gaye lekin salary 10 hazard bhi cash in hand nahi milti hai. Shayed insaano ka khoon choosana inki fitrat hai.

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