अकेलापन था, पर तुमने अपने को दिलासा दिया कि घबराना नहीं है…
Pankaj Chaturvedi : आख़िरी वर्षों में मित्र तुमसे बहुत कम मिल पाते थे और तुम्हारे पास समय बहुत कम रह गया था। यह वैसे तुम्हें उतना बुरा न लगता, मगर समय कम था, यह तुम जानते थे…” है बहुत ही कठिन जीवन बड़ा ही है कठिन / चलते चलो चलते / वन घना है / बहुल बाधाओं भरा यह रास्ता सुनसान / भयानक कथाओं से भरा / सभी जो हो रहीं साकार।”
इसी दौरान अग्रज कवि रघुवीर सहाय को याद करते हुए तुमने एक कविता लिखी : ‘रामदास : दो’। रघुवीर सहाय के यहाँ रामदास को लगता है कि सड़क पर सब हैं, मगर साथ कोई नहीं है। सब उसकी हत्या की साज़िश के बारे में पहले से जानते हैं, मगर किसी में उसे रोकने की न चाहत है, न हिम्मत। आख़िर हत्या होती है और वे उसके मूक गवाह बने रहते हैं। यानी इंसान, इंसान की ट्रेजेडी का तमाशबीन हो गया है, हिस्सेदार नहीं रह गया।
लेकिन यह हक़ीक़त रही होगी चालीस बरस पहले के समाज की। आज का यथार्थ तो तुम्हारी कविता से मालूम होता है कि लोग विडम्बना के निष्क्रिय दर्शक बनने को भी तैयार नहीं। गली में हत्या करके कोई भागा जा रहा है और लोग अपने घरों से झाँकते तक नहीं : ”अरे खिड़की तो खोलो ज़ालिमो / एक पुकार तो लगाओ / वो जो मारा गया है अभी / वह भी एक मनुष्य ही है / उसी का नाम है रामदास।”
बेशक बीते बरसों में हिंसा बढ़ी है और उसी अनुपात में मनुष्य का अकेलापन भी। यह हिंसा और तीखे रूप में सामने आती है, जब आदमी किसी विपत्ति का शिकार होता है, जैसे कोई रोग या दुर्घटना। रघुवीर सहाय ने अपनी कविता ‘कैंसर’ में यह तकलीफ़देह सच बयान किया है : ”रोगी की राजनीति यह है कि वह / समाज में अरक्षित है, मित्रों की राजनीति यह है कि / मरता है उसे मारने में विजय है।” वजह यह कि ”उन्हें पतनशील जाति में संवाद की / आक्रामक सभ्यता में नियत अमानुषिक सम्बन्ध की / रक्षा करनी है, रोगी की नहीं।” यही नहीं, वे रोगी के कैंसर की ख़बर उन सबको देते हैं, ”जो अनेक रूप से रोगी को मारने को वचनबद्ध हैं।”
क्या इस कविता का कुछ रिश्ता तुम्हारी ज़िन्दगी से भी जुड़ता है, क्योंकि आम राय तो यही है कि तुम्हें लोगों का बहुत प्यार मिला था ? फिर तुम्हें उनको यह मार्मिक आश्वासन क्यों देना पड़ा : ”मैं आके नहीं बैठूँगा कौवा बनकर / तुम्हारे छज्जे पर…….. रास्ते पर ठिठकी हुई गाय / की तरह भी तुम्हें नहीं ताकूँगा / वत्सल उम्मीद की हुमक के साथ / मैं तो सतत रहूँगा तुम्हारे भीतर / नमी बनकर / जिसके स्पर्श मात्र से / जाग उठता है जीवन मिट्टी में।”
अलबत्ता पाठक के चित्त का दर्पण सही न हो, तो उसमें कविता का बिम्ब भी सही नहीं पड़ता। इसलिए तुमने यह साफ़ करना मुनासिब समझा कि महत्त्वाकांक्षी लोगों के ज़ेहन में तुम्हारी स्मृति विद्रूप बनकर आयेगी, जैसे दीवार में सीलन : ”जैसे सीलन नयी पुती पुरानी दीवारों को / विद्रूप कर देती है / ऐसा तभी होगा जब तुम्हारी / इच्छाओं की इमारत / बेहद चमकीली और भद्दी हो जायेगी।”
अकेलापन था, पर तुमने अपने को दिलासा दिया कि घबराना नहीं है, आत्मवत्ता के वैभव के सहारे इस कठिन समय को पार करना है : ”पर क्या तुझे दरकार / तेरे पास तो हैं भरी पूरी यादगाहें / और स्वप्नों-कल्पनाओं-वास्तविकताओं का / विपुल संसार।”
ज़िन्दगी के बेमिसाल जज़्बे के लिए ही नहीं, तुम्हारी कविता—-मौत जब रूबरू खड़ी हो—-तो उसका सामना करने की संस्कृति, उसके मर्मस्पर्शी औदात्य और साहस के लिए भी जानी जायेगी : ”आँख बोझिल बहुत गहरी थकावट से चूर / और मन, उत्कट अँधेरा / विकलता से बुलाता हूँ मैं तुझे : ओ तिमिरदारण मिहिर / अब तो ज़रा दरसो !”
(वीरेन डंगवाल स्मरण : 106)
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