चालीस रुपये में जन्नत मिल रही है….
Pankaj Chaturvedi : अनुभव की शक्ति हो, तो किसी अवास्तविक आश्वासन की ज़रूरत नहीं है। मेरा एक दोस्त कहता था, ‘शराब के साथ तुम वही सुलूक करते थे, जो हम अपने दुश्मन के साथ करना चाहते हैं।’ जब पहली बार उसने यह कहा, तो मैंने अचरज से उसकी ओर देखा। उसने अपना आशय स्पष्ट किया कि ‘तुम आलमारी में रखी हुई शराब को बची नहीं रहने देते थे।’
एक बार मैंने तुमसे जिरह की कि ‘अकबर’ इलाहाबादी ने भावनात्मक शराब की बात की है, उसकी नहीं जो हम पीते हैं : ”उस मै से नहीं मतलब, दिल जिससे हो बेगाना / मक़सूद है उस मै से, दिल ही में जो खिंचती है।” जवाब में तुम बोले : ”हाँ, कहा यही जाता है !”
ग़ालिब ने जब कहा कि ”हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त”, तो उनका मतलब यही था कि यह सिर्फ़ एक ख़याल है। इसके बरअक्स इस्लाम में यह मिथक है कि जन्नत में मुक़द्दस मै, यानी पवित्र मदिरा की नहर कौसर है, जिससे हज़रत अली ख़ुद साक़ी बनकर वहाँ पहुँचनेवालों को पिलायेंगे।
ग़ालिब तंज़ करते हैं कि यह तो उस साक़ी की तौहीन होगी, अगर स्वर्ग में ऐसे सुख का प्रलोभन देकर दुनिया में उस पर पाबंदी लगायी जाय : ”कल के लिए कर आज न ख़िस्सत शराब में / यह सू-ए-ज़न है साक़ि-ए-कौसर के बाब में।”
गर्मियों में एक दिन दिल्ली में तुम मिले, तो दोपहर में मैं तुम्हारे लिए बियर के दो ‘कैन’ लेकर आया। दूसरा कैन पीते हुए तुमने मुझसे पूछा : ”यह कितने का मिला?” मैंने बताया : ”चालीस रुपये का।”
इस पर तुमने जो कहा, उससे मुझे इतनी ख़ुशी हुई, जितनी कभी किसी चीज़ को ख़रीदकर लाने में नहीं हुई : ”चालीस रुपये में जन्नत मिल रही है!”
तुम ‘इसी दुनिया’ के कवि थे, किसी और संसार की बात कैसे कर सकते थे !
(वीरेन डंगवाल स्मरण : 109)
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