मत लिखना यार, बहुत बदनामी होगी….
Pankaj Chaturvedi : किसी आलोचक या भावक को यह सुविधा नहीं है कि वह छोटे को बड़ा या बड़े को छोटा कर सके। ऐसी कोशिश करना अपने दयनीय काव्य-बोध का प्रमाण देना है।
मसलन आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी ने साहित्य का एक इतिहास लिखा —-‘हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास’, जिसमें बतौर कवि त्रिलोचन का नाम ही नहीं लिया। एक बार वह हमारे विश्वविद्यालय आये थे। मैंने उनसे इसकी वजह पूछी, तो बोले : ”लोकतन्त्र में मुझे इसका हक़ है।” मेरे एक गुरु ने उनसे कहा कि ”लोकतन्त्र है, मगर इतना भी नहीं है कि कविता के इतिहास में त्रिलोचन का नाम न लिया जाय।” शायद वह कहना चाहते थे कि लोकतन्त्र का मतलब सर्व-तन्त्र-स्वतन्त्र होना नहीं है।
इसी तरह जो चीज़ नहीं है, उसे देखना या दिखाना किसी काम नहीं आयेगा। तभी हरिवंशराय बच्चन ने लिखा : ”कमर में घड़ी / तो पंडित सुंदरलाल ने भी बाँधी। हो गये गाँधी?”
आलोकधन्वा जब कहते हैं कि ”मेरा सब कुछ निर्भर करता है / इस साधारण-सी बात पर”, जिसका ”विशाल प्रचार कर रहा हूँ” ; तो कहना यही चाहते हैं कि वह बात साधारण नहीं और विशाल बात का ही विशाल प्रचार मुमकिन है।
सूरदास का कथन याद आता है कि ‘शिशु कृष्ण की शोभा का समुद्र अपार है, पर ब्रज में लोग कहते हैं कि वह यशोदा के गर्भ के अथाह जलधि से जनमा है’ : ”सोभा सिंधु न अंत रही री। ….जसुमति-उदर-अगाध-उदधि तैं उपजी ऐसी सबनि कही री।।” लक्ष्यार्थ यह कि सौन्दर्य ही सौन्दर्य का कारक हो सकता है।
आलोचना रचना की सुन्दरता को बढ़ाती नहीं, सिर्फ़ उजागर करती है और चूँकि पहले हम उसे देख नहीं सकते थे, इसलिए सहसा वह बढ़ी हुई मालूम होती है।
मैंने तुम्हारे बारे में जो लिखा, वह सब सच है। इसका अर्थ यह भी नहीं कि जो नहीं लिखा, वह झूठ है। मगर जिसे मैं कोई अहमियत या शिल्प नहीं दे पाया, उसे कैसे कहता? कोई मेरी इस अभिव्यक्ति से असहमत हो सकता है, पर सवाल है कि दूसरों का देखा और जाना हुआ तो वे ही कहेंगे, मैं कैसे कहूँगा?
यहाँ तक कि तुम जिस तरह अपने को देखते रहे होगे, मैं तुम्हें वैसे कहाँ देख सकता हूँ? बरसों पहले जब मैंने तुमसे यों ही कहा था कि मैं तुम्हारे साथ बिताये समय की स्मृतियाँ लिखूँगा, तुमने जवाब दिया था : ”मत लिखना यार ! बहुत बदनामी होगी।”
(वीरेन डंगवाल स्मरण : 105)
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