‘लुम्पेन’ ही लिखो, यह ज़्यादा ज़लील है…
Pankaj Chaturvedi : शब्दों की व्यंजना शब्द-कोशों के परे है। तुम शब्द की तासीर पहचानते थे और उससे जुड़ी ऐसी अनूठी बात कहते थे, जो किताबों में कहीं नहीं मिलेगी। मसलन इस साल की शुरूआत में मैंने एक लेख लिखा, जिसमें ‘लुम्पेन’ शब्द इस्तेमाल किया था। पता नहीं कैसे मुझे यह वहम था कि हिन्दी में इसका प्रतिशब्द लम्पट हो सकता है।
शुक्र है कि एक वरिष्ठ कवि ने सचेत किया : ” ‘लुम्पेन’ का मतलब लम्पट नहीं है।”
मैंने तुमसे पूछा। तुम हँसकर बोले : ” ‘लुम्पेन’ ही लिखो, यह ज़्यादा ज़लील है।”
(वीरेन डंगवाल स्मरण : 103)
प्लास्टर से भी काम चल जाता, मगर डॉक्टरों को पैसे बनाने होंगे…
Pankaj Chaturvedi : तुमने मृत्यु का विरोध किया, क्योंकि उसे अनिवार्य मान लेना अन्याय को होने देना है। कथाकार योगेन्द्र आहूजा ने लिखा है कि तुम हमेशा मौत के फ़लसफ़े, उसके सभी संभव नामों और रूपों के ख़िलाफ़ थे। मसलन : ”ठहराव, गतिहीनता, ख़ालीपन, ख़ात्मा, मातम, सूनापन, पराजय, बिछोह, अलविदा।”
लेकिन क्यों? इसका शायद सर्वश्रेष्ठ जवाब तुम्हारे कवि-मित्र त्रिनेत्र जोशी ने दिया है : मनुष्य के समस्त संघर्ष का मक़सद दुख का निराकरण ही है : ”वह जीवन की मौज को हाथ से जाने नहीं देता था और उदास चेहरों को अपने साथ कर ऐसा समाँ बाँध देता था कि जीवन को नकारो नहीं, स्वीकार करो ; इस उदासी को ख़त्म करने की ही तो सारी लड़ाई है।”
सच है, तुम्हारे सान्निध्य में उदास रहना नामुमकिन था। सात बरस पहले एक दुर्घटना में मेरा पैर टूटा, तो उसके ऑपरेशन की ख़बर पाकर तुमने शक जताया : ”प्लास्टर से भी काम चल जाता, मगर डॉक्टरों को पैसे बनाने होंगे!”
पूँजी के लालच के सन्दर्भ में वकीलों और डॉक्टरों की बाबत तुम्हारा अभिमत वैसा ही है, जैसा गाँधी ने ‘हिन्द स्वराज’ में ज़ाहिर किया है : ”उस (डॉक्टर बनने) का सच्चा कारण तो आबरूदार और पैसा कमाने का धंधा करने की इच्छा है। उसमें परोपकार की बात नहीं है। ….डॉक्टर सिर्फ़ आडम्बर दिखाकर ही लोगों से बड़ी फ़ीस वसूल करते हैं और अपनी एक पैसे की दवा के कई रुपये लेते हैं।”
तुमने अपनी कविता में निजी स्तर पर डॉक्टरों की प्रतिभा और सौजन्य की प्रशंसा की, पर इस नाते आलोचना कि वे आख़िर इस पूँजीवादी सभ्यता के ख़ास मुलाज़िम हैं ; जिसमें अवाम की कोई सुनवाई नहीं है और अस्पताल जैसे मृत्यु को और दारुण बनाने के लिए हैं।
तुम अपने और अपने दोस्तों में कोई फ़र्क़ नहीं करते थे। यों कैसा काव्य-न्याय है कि कविता का यह अंश—-जो बरसों पहले तुमने अपने दिवंगत दोस्त बलदेव साहनी के लिए लिखा था—आज कोई पढ़े, तो उसे लगेगा कि तुम्हारे लिए लिखा गया है : “मरते तो सभी हैं साथी, यह तो हुई वही पुरानी बात / पर इस मृत्यु का हम विरोध करते हैं / जो ग़लत दुनिया की हर क्रूरता को / तलवार की तरह नंगी करती जाती है हमारे सामने / अस्पतालों की सफ़ाई का किराया / डॉक्टरों की पढ़ाई की क़ीमत / दवा कम्पनियों की मुनाफ़ाख़ोरी / लालच हर जगह डरे हुए ढीठ कुत्ते की तरह सूँघता।”
वह दुश्चक्र मुनाफ़ाख़ोरी का भी था, जिसमें तुम्हारे स्रष्टा को साँस लेनी पड़ी और जिससे तुम्हारा हृदय विद्रोह करता था : ”और डॉक्टर साहब / अब हटाइये भी अपना ये टिटिम्बा / नलियाँ और सुइयाँ / छेद डाला आपने इतने दिनों से / इन्हीं का रुतबा दिखा कर आप / मुनाफ़ाख़ोरों के बने हैं दूत !”
(वीरेन डंगवाल स्मरण : 102)
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