Connect with us

Hi, what are you looking for?

साहित्य

अज्ञेय को CIA का जासूस बताया गया तो मैं मुक्तिबोध की तरफ़ मुड़ गया!

Abhishek Srivastava-


खुजली-मोचन वाया अज्ञेय…. Rangnath Singh की युवाओं को सलाह है कि कम से कम 25 साल की उम्र तक उन्हें जीवित लेखकों की किताब पढ़ने से परहेज करना चाहिए। मैं खुद को इससे घोर सहमत पाता हूँ। चूंकि बीते तीन दिनों से हिन्दी साहित्य के ऐक्टिविस्ट लोग अज्ञेय जी के खिलाफ ज़हर उगल रहे हैं, तो दोनों बातों को जोड़ के कुछ कहने की खुजली रोक नहीं पा रहा हूँ। थोड़ा नॉस्टैल्जिक खुजली भी है इस मामले में अपनी।

Advertisement. Scroll to continue reading.

मेरा बचपन सन साठ के पहले वाले छायावादी, भक्तिकालीन और रीतिकालीन साहित्य के बीच बीता। निराला, जयशंकर प्रसाद, घनानन्द, बिहारी, सूर, जायसी, पंत तो थे ही, साथ में पंचतंत्र और हितोपदेश की कथाएँ और अनूदित रूसी बाल साहित्य थोक में पढ़ने को मिलता था क्योंकि मैं किसिम-किसिम के पुराने टाइप शिक्षकों से घिरा पड़ा था.

किशोरावस्था पार करते ही सबसे पहले ओशो टकराए, फिर वहाँ से बुद्ध, मार्क्स, गुरजिएफ, लू शुन, दोस्तोवस्की, तुर्गनेव का रास्ता बना और जवानी की दहलीज पर हम एलियट, एजरा पाउन्ड, एरिक फ्रॉम और अज्ञेय तक पहुंचे। कसम से, शेखर के बाद “अपने-अपने अजनबी” तक आते-आते लगा कि जीवन कितना वृहद है और मनुष्य कितना चूतिया।

Advertisement. Scroll to continue reading.

बीएचयू की लाइब्रेरी में बैठ के स्नातक का पहला साल गणित के बजाय अज्ञेय को समर्पित हो गया। एक-एक कविता, कहानी चाट मारे। सारी समीक्षाएँ- अशोक वाजपेयी से लेकर प्रभाकर मांचवे तक। परीक्षा में रिजल्ट आया लुड़िस पमपम- किसी तरह सेकंड डिवीजन।

अज्ञेय के बाद जीवन में आया स्पार्टाकस यानि अमृत राय का आदिविद्रोही। फिर आईं मीर प्रकाशन की छात्रोपयोगी गुटखा पुस्तकें। उसके बाद मिले कामरेड कृष्णगोविंद, जो हिन्दी विभाग से मुक्तिबोध पर रिसर्च कर रहे थे। उनसे पता चला कि अज्ञेय तो जासूस थे सीआइए के और कांग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम चलाते थे। बाप रे? मने अब तक मैं जासूसी साहित्य पढ़ रहा था? खुद पर शक हुआ, एक्सचेंज ऑफर में जीवन में मुक्तिबोध घुस आए। मुक्तिबोध एक पैकेज थे। साथ में लाए थे नेरुदा, चे ग्वारा, मायकोव्स्की, लेनिन, गोर्की, वाल्टर बेंजामिन, आदि।

Advertisement. Scroll to continue reading.

स्नातक का दूसरा साल शुद्धिकरण में बीता। ओशो आश्रम जाना बंद हो गया। शेखर दिमाग से निकल गया। कविता की जगह कविता का पोस्टर जीवन में आ गया। पोस्टर अपने साथ लेकर आया शमशेर बहादुर सिंह, सर्वेश्वर, नागार्जुन, रघुवीर सहाय, ब्रेख्त, फ़ैज़, नाज़िम हिकमत, इत्यादि। दूसरे साल का रिजल्ट और खराब आया। बाल-बाल बचे।
स्नातक का तीसरा साल मैंने गणित को समर्पित कर दिया। गणित कई मायनों में ऐब्सलूट है या कहें ऐब्सलूटिज़म की ओर आपको प्रवृत्त करता है। वहाँ गणित पढ़ते हुए मुझे अज्ञेय बनाम मुक्तिबोध की पोलेमिक्स समझ में आई।

बनारस से वाया चेन्नई और लखनऊ जब दिल्ली पहुंचा, तो पता चला कि यहाँ भी अज्ञेय को अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता, मुक्तिबोध ट्रेंडी हैं। हर अगला कवि अंधेरे में जाने क्या टटोल रहा था। सब नकल करते थे मुक्तिबोध की। एकाध बीड़ी भी पीते थे। फिर एक दिन पता चला कि मुक्तिबोध इसलिए मुक्तिबोध हुए क्योंकि अज्ञेय ने उन्हें तार सप्तक में छापा और अशोक वाजपेयी ने मरने के बाद उनका संग्रह छपवाया।

Advertisement. Scroll to continue reading.

दिमाग जम गया, दिल बैठ गया।

तब तक मैं साहित्यिक समीक्षाएँ लिखने लगा था अखबारों में। दुई की सुई जहां थी, वहीं अटक गई। सामने तालाब में नहा कर ब्रह्मराक्षस मेरी ओर नंगा आ रहा था। पास आया तो पता चला वही डोमा जी उस्ताद है। नगाड़े बजे, प्रोसेशन निकलने लगा। आकाशवाणी हुई- “सब मिले हुए हैं जी”।

Advertisement. Scroll to continue reading.

मेरी आँखें खुल गईं। अब मैं 25 साल का हो चुका था। ब्रह्मचर्य पार कर के मैंने शादी की और जिंदा लेखकों को पढ़ना चालू किया। अगले दस साल तक सत्य से मुंह मोड़ के मैंने जिंदा लोगों को पढ़ा और गुना। फिर एक समय ऐसा आया जब एक-एक कर के जिंदा लेखकों के बीच मुट्ठी भर ओल्ड स्कूल के लोग गुजरना शुरू हुए- कमलेश्वर से शुरू कर के वाया पंकज सिंह, नीलाभ, नामवर जी, वीरेन डँगवाल, मंगलेश जी यह सिलसिला जारी है।

कोई पाँच-सात साल से मैंने जिंदा लोगों को पढ़ना छोड़ दिया है क्योंकि अधिकतर जड़विहीन, अश्लील, प्रतिभाविहीन, आत्ममुग्ध और घटिया हैं। ओल्ड स्कूल के जो एकाध बचे हैं, उन्होंने लिखना छोड़ दिया है। यहाँ से देखता हूँ तो अब अज्ञेय जासूस नहीं दिखते, मुक्तिबोध क्रांतिकारी नहीं दिखते। सब सम पर है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

कह सकता हूँ कि एक पाठक को अच्छा मनुष्य बनने के लिए अज्ञेय भी उतने ही आवश्यक हैं जितने मुक्तिबोध। रूप भी उतना ही जरूरी है जितना कथ्य। कला और राजनीति परस्पर विरोधी नहीं हैं, पूरक हैं। बाकी सब बातें, चाहे किसी के बारे में हों, हिन्दी के नक्कारखाने का शगल है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। हाँ, इतना तय है कि दृष्टि तो अपने पूर्वजों के लिखे से ही मिलेगी, समकालीनों से नहीं। इसलिए पुराना पढ़ें, बिना भेदभाव के सबको पढ़ें और नए जीवित लेखकों के साथ सहानुभूतिपूर्वक पेश आयें। उनकी प्रतिभाहीनता उनकी गलती नहीं है, उन बरगदों की विरासत है जिन्होंने अपने जीते जी हिन्दी में नई पौध को पनपने नहीं दिया और उसे फर्जी व षड्यंत्रकारी बहसों में उलझाए रखा।

खुजली मिट गई। बहुत दिनों बाद। पढ़ने के लिए शुक्रिया।

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement