तेभागा और तेलंगाना के बाद नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन ने समाज, राजनीति और संस्कृति पर काफी असर पैदा किया। इसे ‘वसन्त का बज्रनाद’ के नाम से भी जाना जाता है। बीते 25 मई को इस आंदोलन ने पचास साल पूरे किए। इतना लम्बा समय बीत जाने के बाद भी उस आंदोलन की राजनीतिक व वैचारिक उष्मा संघर्षशील जन समुदाय और प्रगतिशील व जनवादी बौद्धिकों द्वारा आज भी महसूस की जाती है। वर्तमान चुनौतियों के संदर्भ में नक्सलबाड़ी को याद करने, उसकी दशा-दिशा और उसके सांस्कृतिक प्रभाव पर विचार करने के लिए जन संस्कृति मंच की ओर से ‘नक्सलबाड़ी अर्द्धशताब्दी समारोह’ का आयोजन किया गया। कार्यक्रम स्थानीय जयशंकर प्रसाद सभागार, कैसरबाग, लखनऊ में हुआ। इसके मुख्य अतिथि थे जाने माने वामपंथी चिन्तक कामरेड जयप्रकाश नारायण तथा कार्यक्रम की अध्यक्षता जन संस्कृति मंच के प्रदेश अध्यक्ष कौशल किशोर ने की। समारोह का आरम्भ शहीद वेदी पर पुष्पांजलि से हुआ। दो सत्रों में बंटे इस कार्यक्रम में कविता पाठ के साथ परिसंवाद का आयोजन था।
‘क्रान्तिकारी संघर्ष और जन संस्कृति’ विषय पर आयोजित परिसंवाद कार्यक्रम को संबोधित करते हुए मुख्य अतिथि जयप्रकाश नारायण ने कहा कि आज जब हम नक्सलबाड़ी की 50 वीं वर्षगांठ मना रहे हैं तब हमें उसकी उपलब्धियों को आज की वास्तविकता के संदर्भ में देखने की जरूरत है। यह एक ऐसा किसान विद्रोह था जिसने वर्ग संघर्ष के नए प्रतिमानों को गढ़ा। इसने उत्पीडि़त भूमिहीन गरीबों की पीड़ा और उनके आक्रोश को बड़े जन प्रतिरोध में बदल दिया। आज के कृषि संकट के दौर में नक्सलबाड़ी का संदेश बिल्कुल स्पष्ट है। लाखों किसानों को खुद अपनी जान लेने पर मजबूर होना पड़ रहा है। देश कॉरपोरेट लूट और साम्प्रदायिक घ्रवीकरण की पाटों के बीच पिस रहा है। ऐसी हालत में जन प्रतिरोध की लपटों को तेज करने के लिए नक्सलबाड़ी की क्रान्तिकारी ऊर्जा की बड़ी जरूरत है।
समारोह की अध्यक्षता करते हुए कौशल किशोर ने कहा कि नक्सलबाड़ी इतिहास ही नहीं वर्तमान भी है। इसमें भारतीय जनता की वही स्वप्न आकांक्षा है जिसे शहीद भगत सिंह ने देखा था। यह आकांक्षा है शोषण मुक्त समाज की रचना। इस आकांक्षा को सत्ता के दमन-उत्पीड़न से नहीं मारा जा सकता है। जहां अधिकांश आंदोलन समझौते या समर्पण में सिमट गए वहीं नक्सलबाड़ी ने अलग राह बनाई। वह संघर्ष और शहादत की राह में आगे बढ़ा। इसे खत्म करने के लिए तमाम दमन ढाये गये पर वह राख की ढेर से फिनिक्स पछी की तरह जी उठा है। उसका सांस्कृतिक प्रभाव तो ऐसा रहा कि भक्ति आंदोलन व प्रगतिशील आंदोलन के बाद तीसरा सांस्कृतिक आंदोलन है जो राष्ट्रीय स्तर पर संगठित हुआ।
हिन्दी कविता पर नक्सलबाड़ी के प्रभाव पर बोलते हुए कवि व आलोचक चन्द्रेश्वर ने कहा कि इसने न सिर्फ हिंदी कविता, बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं में लिखी जा रही कविता को भी एक नयी दिशा-दृष्टि प्रदान करने का कार्य किया। नक्सलबाड़ी आंदोलन के प्रभाव का ही प्रतिफल था कि पुराने प्रगतिशील कवियों में नागार्जुन, केदार, शमशेर, मुक्तिबोध और त्रिलोचन के साथ-साथ इनके कुछ बाद के कवियों में रघुवीर सहाय और सर्वेश्वर आदि को भी नयी पीढ़ी के कवियों ने अपना नायक कवि माना। यह आंदोलन से पैदा हुयी समझ ही थी कि एक कलमकार एक हलवाहे से अपने को अभिन्न मानता है। आज हिंदी कविता में जिस प्रतिरोध की चेतना की बात की जाती है, वह नक्सलबाड़ी से उत्पन्न परिवर्तन कामी चेतना का ही प्रभाव है। आज का दौर रचना और संस्कृति कर्म के लिये एक चुनौती भरा दौर है। आज जो भी बुद्धिजीवी है, ज्ञान और विवेक की तर्कसम्मत परम्परा से जुड़ा हुआ है, सरकार की निगाह में नक्सली है। आज जिस तरह से वर्तमान सत्ता के दलाल अरुंधति राय को नक्सली घोषित कर रहे हैं, कल कोई भी सच के पक्ष में खड़ा लेखक नक्सली करार दिया जा सकता है।
नाटकों, रंगमंच व सिनेमा पर इस आंदोलन के प्रभाव की चर्चा करते हुए नाटककार राजेश कुमार ने कहा कि पहली बार नक्सलबाड़ी आंदोलन ने रंगमंच को वैचारिकता प्रदान की। सामाजिक नाटक अब राजनीतिक नाटक में बदलने लगे जो जनता के बीच नुक्कड़ नाटक के नाम से प्रचलित हुआ। इसके और भी कई नाम हैं जैसे बंगाल में ‘पोस्टर प्ले’, महाराष्ट्र में ‘प्लेटफार्म प्ले’ आदि। इसने संास्कृतिक आंदोलन का रूप अख्तियार कर लिया है। जल, जंगल और जमीन की लड़ाई से जुड़ गया है। भले ही सत्ता इसे एक खास राजनीति से जोड़ देती है, इसकी धार को भोथरा करने में लगी है और दमन ढा रही है लेकिन प्रतिरोध की यह धारा मांदल की गूंज की तरह फेले, यह आज की जरूरत है।
संगोष्ठी को सोशल एक्टिविस्ट सुभाष गताडे ने कहा कि क्रान्ति हमारी जिनदगी का सवाल है इसी आन्दोलन के चलते जन और संस्कृति के सामने कई सवाल खड़े होते है. उनहोने कहा कि संस्कृति सिर्फ रचना नहीं है वह हमारे अतीत के आन्दोलनों की एक मुक्कमल तस्वीर भी है, जीवन शैली भी है। यह ऐसा समय है जब हमें जन को परिभाषित करने की जरूरत है. एक्टिविस्ट व अनुवादक अवधेश कुमार सिंह और कवि भगवान स्वरूप कटियार ने भी संबोधित किया.
कार्यक्रम में अजय सिंह, एस आर दारापुरी, राम किशोर, शकील सिद्दीकी, विनय दास, किरण सिंह, प्रज्ञा पांडेय, ओ पी सिन्हा, रविकांत, बंधू कुशावर्ती, आर के सिन्हा, रमेश सेंगर, राम कृष्ण, नासिर अहमद, मेहदी हसन रिज़वी, अशोक श्रीवास्तव, प्रवाल सिंह, नितिन राज, सुरेंद्र प्रसाद, मीणा सिंह, मंजू प्रसाद, इंदू पांडेय, मोहित पांडेय, विमल किशोर, रामायण प्रकाश, बी एम प्रसाद, रामराज डेविड, सी एम् शुकला, वीरेंदर त्रिपाठी आदि मौजूद थे. सञ्चालन जसम लखनऊ के संयोजक श्याम अंकुरम ने किया।
कविता पाठ – लोकपथ पर मुक्ति का अग्निरथ
‘लोकपथ पर मुक्ति का अग्निरथ’ बांगला के प्रसद्ध कवि सरोज दत्त के काव्य की पंक्ति है जो आंदोलन के दौरान शहीद हुए। आज के कविता पाठ कार्यक्रम का यही शीर्षक था। इसके अन्तर्गत डॉ उषा राय ने नागार्जुन की कविता ‘भोजपुर’ सुनाई। जनता ही किसी कवि के लिए ऊर्जा का अजस्र श्रोत है और उसका जीवन और संघर्ष प्राणवायु का काम करता है। नागार्जुन कहते हैं – ‘यहाँ अहिंसा की समाधि है/यहाँ कब्र है पार्लमेंट की/भगतसिंह ने नया-नया अवतार लिया है/अरे यहीं पर/जन्म ले रहे/आजाद चन्द्रशेखर भैया भी……एक-एक सिर सूँघ चुका हूँ/एक-एक दिल छूकर देखा/इन सबमें तो वही आग है, ऊर्जा वो ही…/चमत्कार है इस माटी में/इस माटी का तिलक लगाओ/बुद्धू इसकी करो वंदना/यही अमृत है, यही चंदना।’ उषा राय ने पाश की कविता ‘हम लड़ेंगे साथी’ का भी पाठ किया जिसमें संघर्ष की संस्कृति की अभिव्यक्ति है। वे कहते हैं – ‘ हम लड़ेंगे जब तक/दुनिया में लड़ने की जरुरत बाकी है/जब तक बंदूक न हुई, तब तक तलवार होगी/जब तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी/लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की जरूरत होगी।’ इस मौके पर गोरख पाण्डेय की मशहूर कविता ‘कैथरकलां की औरतें’ भी सुनाई जो औरतों के अन्दर के संघर्ष की जीजिविषा को सामने लाती है। डा संदीप कुमार सिंह ने बांगला के क्रान्तिकारी कवि नवारुण भट्टाचार्य की चर्चित कविता ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश’ का पाठ किया – ‘यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश/यह जल्लादों का उल्लास-मंच नहीं है मेरा देश/यह विस्तीर्ण शमशान नहीं है मेरा देश/यह रक्त रंजित कसाईघर नहीं है मेरा देश’।
संदीप कुमार सिंह, सह संयोजक जसम लखनऊ की ओर से जारी. मो – 8765231081, 8400208031