सम्पादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर के कुछ ही चित्र प्रचलन में हैं। उनके कई दुर्लभ और प्रायः अप्राप्य चित्रों को उनके जन्मदिवस 16 नवंबर के दिन रिलीज किया उनके परिजन और पत्रकार आलोक पराड़कर ने।
छह दशक पूर्व की पत्र पत्रिकाओं से संकलित किए गए इन चित्रों की गुणवत्ता बहुत अच्छी नहीं है…
पराड़कर जी के जन्मदिवस पर राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित उनके परिजन आलोक पराड़कर का एक आर्टकिल पढ़ें-
पराड़्कर जी ने कहा था, पत्रकारिता का धर्म है समाज का चित्र खींचना और उसे सदुपदेश देना
आलोक पराड़कर-
वर्तमान की खबरों की दुनिया में रहने के बावजूद श्रेष्ठ पत्रकारिता न सिर्फ इतिहास के संदर्भ की स्मृति कराती है बल्कि भविष्य को लेकर सतर्क भी करती है। एक श्रेष्ठ संपादक समकालीन की प्रवृत्तियों की पड़ताल करते हुए इतिहास को याद भी करता है और भविष्य के खतरों के प्रति आगाह भी करता है और चुनौतियों के लिए तैयार भी करता है। बाबूराव विष्णु पराड़कर एक दूरदर्शी पत्रकार और संपादक थे। वे न सिर्फ अपने समय की नब्ज पर हाथ रखे हुए थे बल्कि भविष्य को लेकर उनका अनुमान भी सटीक था, जिसका पता उनके अग्रलेखों, संपादकीय टिप्पणियों और भाषणों से चलता है। समाचार पत्र का आदर्श बताते हुए उन्होंने खुद कहा था , ‘समाचार-पत्र के दो मुख्य धर्म हैं, एक तो समाज का चित्र खींचना और दूसरे उसे सदुपदेश देना। ..हमारा दूसरा कार्य लोक-शिक्षण हमारा सच्चा धर्म है। इसी के द्वारा हम देश की और जनता की सच्ची सेवा कर सकते हैं।’ 16 नवंबर को उनका जन्मदिवस है।
पराड़कर जी के कई लेखों की चर्चा आज भी अक्सर होती है जो आज भी न सिर्फ प्रासंगिक लगते हैं बल्कि उनसे ये पता चलता है कि दशकों पहले बल्कि कई बार तो एक शताब्दी पहले उन्होंने आने वाले समय को पहचानने की उनमें कितनी विशिष्ट क्षमता थी। ऐसी विशिष्टताएं ही किसी संपादक को महान बनाती हैं। वृंदावन साहित्य सम्मेलन के अन्तर्गत प्रथम संपादक सम्मेलन का 1925 का उनका अध्यक्षीय भाषण तो खूब पढ़ा और सुनाया जाता है जिसमें उन्होंने भविष्य की पत्रकारिता के बारे में विचार रखे थे और जो आज इतने वर्षों बाद सटीक लगता है लेकिन कई दूसरे अग्रलेख और टिप्पणियां भी हैं जिनमें भविष्य को लेकर उनका आकलन खरा उतरता है और जो उनकी पत्रकारिता को कालजयी बनाता है। देश की एकता के प्रश्न पर विचार करते हुए वे ‘संस्कृति और भाषा’ में बहुत ही महत्वपूर्ण बात कहते हैं, ‘हमें भारतीय संस्कृति की रक्षा तो अभीष्ट है ही पर यह व्यर्थ हो जाएगी यदि उसके भीतर पिरो जाने वाली भिन्न-भिन्न स्थानीय या प्रान्तीय संस्कृतियों की रक्षा न की जाय। इनमें शरीर और अवयवों का संबंध है।’ इसी प्रकार देश की स्वतंत्रता के दिन 15 अगस्त 1947 के अपने लेख ‘नवयुग में प्रवेश’ में वह लिखते हैं, ‘भारत आज स्वतंत्र हो रहा है, यह अत्यन्त आनंद और प्रसन्नता का विषय है। इसीलिए आज हम फूले नहीं समाते। हमारी प्रसन्नता, हमारा उल्लास हमारे प्रत्येक कार्य में आज स्पष्ट लक्षित हो रहा है। यह स्वाभाविक भी है। परन्तु इसके साथ ही हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि आनंद में विभोर होकर कहीं हम अपना कर्त्तव्य न भूल बैठें। स्वतंत्र होने के साथ-साथ हमारे कंधों पर जितना भारी उत्तरदायित्व आ गया है, उसे हमें न भूलना चाहिए। हमारी लेशमात्र की असावधानी का परिणाम अत्यन्त घातक हो सकता है। हम जरा-सा चूके नहीं कि सर्वनाश हमारे सम्मुख उपस्थित है।…अंग्रेज भारत त्यागकर अवश्य जा रहे हैं किन्तु वे हमें दुर्बल और अशक्त बनाकर जा रहे हैं। हमें सभी प्रकार से अपने को शक्तिशाली बनाना होगा।..अन्न, वस्त्र और सुरक्षा की समस्या, मूल्यवृद्धि तथा भ्रष्टाचार का अन्त करने की समस्या, साम्प्रदायिक सद्भाव बढ़ाने की समस्या, देश हित विरोधी शक्तियों के नियंत्रण की समस्या आदि न जाने कितनी समस्याएं आज विकट रूप में हमारे सम्मुख उपस्थित हैं, उनका हल करना तत्काल आवश्यक है।’ कहना गलत न होगा कि देश आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए मुख्यतः इन्हीं समस्याओं से जूझ रहा है।
यहां ‘गोडसे’ शीर्षक के एक अग्रलेख का जिक्र करना चाहूंगा जिसकी आज अब कम ही चर्चा होती है। नाथूराम गोडसे ने 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या की थी। उसे 15 नवंबर 1949 को फांसी दी गई। पराड़कर जी का अग्रलेख उसे फांसी दिए जाने के बाद 18 नवंबर 1949 का है। ‘गोडसे’ शीर्षक अग्रलेख में पराड़कर जी जो लिखते हैं उसे आज के समय में भी देखे जाने की जरूरत है। वह लिखते हैं, ” गोडसे को फांसी के साथ इतिहास की एक दुखद कथा का अन्त होता है। महात्मा गांधी की हत्या कर गोडसे ‘ महान’ बन गया। गोडसे आज विश्व का महान हत्यारा है। यह ‘महानता’, यह ‘ख्याति’ महात्मा की देन है।..आने वाली संतति जब महात्मा का नाम स्मरण करेगी तो गोडसे के नाम से भी अपनी वाणी कलंकित करेगी। भारतीय इतिहास में गांधी के साथ गोडसे का नाम लगा हुआ आएगा। इतिहास में हम गोडसे का नाम मिटा देना चाहते हैं पर खून का घूंट पीकर रह जाते हैं। विवशता है, लाचारी है। … इसके विपरीत उसने सहज ही ‘ख्याति’ या ‘कुख्याति’ प्राप्त कर ली। गोडसे का एक अपराध तो प्रामाणित और सर्वविदित है पर दूसरा, जो पहले से कम गुरुतर नहीं, यह है कि वह विश्व के सबसे निन्द्य और अमानुषिक कार्य को सिद्धान्तवाद का जामा पहनाना चाहता था। एक हत्यारा आदर्श का ढोंग रचना चाहता था।..इतिहास उसे कभी क्षमा नहीं कर सकता। भारत कभी नहीं भूल सकता कि उसने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पिस्तौल से हत्या की है।” इसी लेख में आखिर में वे लिखते हैं, ‘ मृत्यु के समय गोडसे के हाथ में गीता थी। महात्मा गांधी भी गीता के अनन्य भक्त थे। गांधी और गोडसे की गीता में पाठान्तर था। क्या भारतीय इस पाठान्तर को समझेंगे? गोडसे नहीं, गांधी की गीता भारतीय राजनीति का मार्गदर्शन करेगी। यह ध्रुवसत्य है।’