अखिलेश यादव जी, कहां हैं हत्यारे?

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मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का कार्यकाल लगभग समाप्ति के दौर में है। अगली सरकार के लिए जद्दोजहद अंतिम चरण मे है। अखिलेश यादव पूरे पांच वर्ष तक सूबे की सत्ता पर निष्कंटक राज करते रहे लेकिन इस दौरान उन्होंने एक बार भी डॉ. योगेन्द्र सिंह सचान हत्याकाण्ड को लेकर किए गए वायदों को याद करने की कोशिश नहीं की। बताना जरूरी है कि अखिलेश यादव ने (डॉ. सचान हत्याकाण्ड के दो दिन बाद 24 जून 2011) पत्रकारों के समक्ष डॉ. सचान की मौत को हत्या मानते हुए सीबीआई जांच की मांग की थी। डॉ. सचान के परिवार से भी वायदा किया था कि, उन्हें न्याय दिलाने के लिए किसी भी हद तक जाना पड़े, वे और उनकी समाजवादी पार्टी पीछे नहीं हटेगी। लगभग छह साल बाद की तस्वीर यह बताने के लिए काफी है कि अखिलेश यादव ने अपना वायदा पूरा नहीं किया। डॉ. सचान का परिवार पूरे पांच वर्ष तक मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से न्याय की आस लगाए बैठा रहा। शायद डॉ. सचान की आत्मा भी मुख्यमंत्री  से यही पूछ रही होगी कि, कहां हैं हत्यारे!!

भ्रष्ट अधिकारियों और अपराधियों से पटी यूपी में लगभग छह वर्ष पूर्व एक चर्चित हत्याकांड (डॉक्टर योगेन्द्र सिंह सचान) को अंजाम दिया गया। इस हत्याकांड को जिस सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया गया, वह तो काबिले गौर है ही साथ ही जिस तरह से यूपी की सरकारों ने तमाम सुबूतों और जांच रिपोर्ट को नजरअंदाज करते हुए चंद दिनों में ही पूरे मामले को दफन कर दिया, वह किसी चमत्कार से कम नहीं। यहां तक कि निष्पक्ष जांच एजेंसी का दावा करने वाली सीबीआई की भूमिका कथित हत्यारों और कथित भ्रष्टों के तलवे चाटते नजर आयी। इस हत्याकांड को जिस तरह से अंजाम दिया गया और जिस तरह से दफन कर दिया गया, उससे इतना जरूर साबित हो जाता है कि यूपी के अपराधियों में यदि दम है तो बड़े से बड़ा मामला चंद दिनों में ही दफन किया जा सकता है।

गौरतलब है कि परिवार कल्याण विभाग के तत्कालीन मुख्य चिकित्साधिकारी बी.पी.सिंह की हत्या की साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार कर जेल भेजे गए तत्कालीन उप मुख्य चिकित्साधिकारी डॉ. योगेन्द्र सिंह सचान की जिला जेल अस्पताल में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गयी थी। इस हत्याकांड में आरोपियों की फेहरिस्त तैयार होती उससे पहले ही हत्याकांड का पटाक्षेप कर दिया गया। इस हत्याकांड से जुड़े कई महत्वपूर्ण पहलू ऐसे थे जिन्हें कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था, फिर भी जिंदा मक्खी निगली गयी। आखिर वह कौन सी वजह थी, जिसने न्यायिक जांच रिपोर्ट तक को मानने से इनकार कर दिया? यदि न्यायिक जांच झूठी थी तो सरकार ने न्यायिक जांच अधिकारी राजेश उपाध्याय के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की? गौरतलब है कि दंड प्रक्रिया संहिता में इस बात का प्राविधान है कि हिरासत में होने वाली मौत की जाँच अनिवार्य रूप से न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा की जाएगी। दूसरी ओर यदि सीबीआई की रिपोर्ट में संदेह था तो दोबारा अधिकारी बदलकर जांच क्यों नहीं करवायी गयी? शरीर पर मौजूद गहरे घाव किस धारदार हथियार से बनाए गए थे? इसकी जांच को भी नजरअंदाज कर दिया गया। साफ जाहिर है कि अरबों के घोटाले में संलिप्त बड़ी मछलियों को बचाने के फेर में छोटी मछलियों को शिकार बनाया गया।

देश के सर्वाधिक चर्चित घोटालों में से एक एनआरएचएम घोटाले से जुडे़ डॉ योगेन्द्र सिंह सचान (उप मुख्य चिकित्साधिकारी) की लाश जिला कारागार (लखनऊ) के प्रथम तल पर स्थित निर्माणाधीन ऑपरेशन थिएटर के शौचालय में पायी जाती है। डॉ. सचान का शव कमोड सीट पर सिस्टन की ओर मुंह किए हुए था। सिर कमोड के सिस्टन पर टिका हुआ था। शरीर पर गहरे घाव थे, जिस वजह से उनका पूरा शरीर खून से लथपथ था। गले में बेल्ट का फंदा लगा हुआ था। दोनों पैर जमीन पर टिके हुए थे। मौका-ए-वारदात की पूरी तस्वीर यह साबित करने के लिए काफी थी कि डॉ. सचान ने आत्महत्या नहीं की बल्कि उनकी हत्या की गयी थी। जेल कर्मी भी दबी जुबान से हत्या के बाबत कानाफूसी करते रहे। पूरे जेल का माहौल ऐसा था, जैसे सभी को मालूम हो कि डॉ. सचान की हत्या किसने करवायी और किसने की?

डॉ. सचान की निर्मम हत्या किए जाने सम्बन्धी सारे सुबूत पुलिस और जांच एजेंसियों के पास थे, इसके बावजूद तत्कालीन बसपा सरकार के कार्यकाल में सरकार ने दावा किया कि डॉ. सचान ने जेल में आत्महत्या कर ली। उस वक्त भी यही सम्भावनाएं व्यक्त की जा रही थीं कि एनआरएचएम घोटाले से जुडे़ पुख्ता दस्तावेज डॉ. सचान के पास थे। यदि वे जीवित रहते और उन्हें जेल होती तो निश्चित तौर पर कई बडे़ नेताओं को जेल हो जाती। यहां तक कि पूर्व मुख्यमंत्री मायावती पर भी शिकंजा कसा जा सकता था। दूसरी ओर डॉ. सचान के परिजन सरकार के दावों से संतुष्ट नहीं थे, परिणामस्वरूप न्यायिक जांच शुरु की गयी। जांच का दायित्व (न्यायिक जांच अधिकारी, मुख्य न्यायिक मजिस्टेªट, लखनऊ) राजेश उपाध्याय को सौंपा गया। महज एक पखवारे में ही तमाम दस्तावेजों के साथ जांच रिपोर्ट शासन के पास भेज दी गयी। निष्पक्ष तरीके से अंजाम दी गयी जांच रिपोर्ट ने तत्कालीन सरकार के दावों की कलई खोल दी। जांच रिपोर्ट (11 जुलाई 2011) में डॉ. सचान की मौत को आत्महत्या नहीं बल्कि हत्या करार दिया गया। जांच रिपोर्ट पटल पर आते ही सत्ता के गलियारों में हड़कंप मच गया। लगने लगा था कि डॉ. सचान की मौत का रहस्य तो उजागर होगा ही साथ ही एनआरएचएम घोटाले से जुडे़ तमाम मगरमच्छ कानून के जाल में आ जायेंगे। तथाकथित दोषी लोगों के खिलाफ कार्रवाई होती इससे पहले ही सूबे में चुनाव का बिगुल बज गया। चुनाव नतीजों ने सूबे की सत्ता बदल दी। एनआरएचएम घोटाले की पृष्ठभूमि तैयार करने और डॉ. सचान हत्याकाण्ड पर लीपा-पोती करने वाली बसपा सरकार का पतन हो गया। बसपा की धुर-विरोधी  अखिलेश यादव की सरकार ने सूबे में कदम रखा तो विभागीय कर्मचारियों से लेकर सूबे के चिकित्सकों में घोटाले पर से पर्दा उठने की उम्मीद जागृत हुई। परिजनों की फरियाद पर मामले को सीबीआई के सुपुर्द किया गया।

डॉ. सचान हत्याकाण्ड से जुडे़ कथित हत्यारों और हत्या की साजिश में शामिल शातिरों के हाई-प्रोफाइल सम्पर्कों का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि तमाम सुबूतों और न्यायिक जांच को दर-किनार करते हुए सीबीआई ने निर्मम हत्याकांड केा आत्महत्या बताकर पूरे प्रकरण को ही दफन कर दिया। डॉ. सचान का परिवार चिल्लाता रहा कि डॉ. सचान दिमागी रूप से काफी मजबूत थे, वे आत्महत्या नहीं कर सकते, लेकिन सरकार ने एक नहीं सुनी। अन्ततः हैरतअंगेज तरीके से डॉ. सचान हत्याकांड से जुड़ी फाइल बंद कर दी गयी।

न्यायिक जांच के दौरान कई पहलू ऐसे नजर आए जो यह साबित करने के लिए काफी थे कि डॉ. सचान ने आत्महत्या नहीं बल्कि उनकी हत्या की गयी थी। इस चर्चित हत्याकांड में तत्कालीन मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा और अनंत कुमार मिश्रा उर्फ अंटू मिश्रा का नाम विपक्ष ने जमकर उछाला। सड़क से लेकर संसद तक कथित आरोपी मंत्रियों के नाम उछाले गए। तत्कालीन बसपा सरकार और तत्पश्चात अखिलेश सरकार की बेशर्मी का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि उसने तमाम दस्तावेजों को नजरअंदाज करते हुए इस केस में रुचि दिखानी ही बंद कर दी। ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे दोनों ही सरकारों ने कथित हत्यारों और लुटेरों को बचाने की ठान रखी हो।

उस वक्त विपक्षी पार्टियों ने आरोप लगाया था कि डॉ. सचान की मौत सरकार में गहरे तक जड़ें जमा चुके भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों की साजिश का एक हिस्सा है। विपक्ष के आरोप पर सरकार की तरफ से तत्कालीन कैबिनेट सचिव शंशाक शेखर (अब स्वर्गीय) ने बचाव करते हुए कहा था कि विरोधी दल प्रदेश की जनता को गुमराह कर रहे हैं। सरकार पूरे मामले की गहनता से जांच करवा रही है। सही तथ्य जल्द ही आम जनता के समक्ष होंगे।

11 जुलाई 2011 को सौंपी गयी न्यायिक जांच रिपोर्ट और डॉ.सचान की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में साफ लिखा था कि उनकी मौत गले में बेल्ट बंधने की वजह से नहीं बल्कि ज्यादा खून बहने से हुई थी। इतना ही नहीं लखनऊ जेल में वारदात के वक्त जेल में निरुद्ध एक कैदी के बयान ने सरकार की नीयत पर उंगली उठायी। कैदी का कहना था कि (सचान की हत्या के दिन) लखनऊ जेल में घटना वाले दिन जो हुआ, वह शायद इससे पहले कभी नहीं हुआ होगा। अमूमन जेल में शाम का खाना साढ़े छह बजे मिलता है घटना वाले दिन चार बजे ही खाना बांट दिया गया था। खाना समाप्त होते ही सारे कैदियों को वापस बैरकों में भेज दिया गया था। एक खबरिया चैनल में एक कैदी के बयान (जेल से रिहा होने के बाद) को आधार मानें तो, सबसे कहा गया था वे एक-दूसरे से बात नही करेंगे। इसके तुरन्त बाद ही पूरी जेल में शोर-शराबा शुरू हो गया। जोर-जोर से आवाजें आने लगी थीं कि मार दिया गया, मार दिया गया। हैरत की बात है कि सरकार की साजिश को उजागर करती इस रिपोर्ट की न तो सच्चाई जानने की कोशिश हुई और न ही उस कैदी से बयान लिए गए जिसने खबरिया चैनल में घटना का जिक्र किया था।

प्रारम्भिक जांच में डॉ. सचान के शरीर पर आठ स्थानों पर गंभीर चोट के निशान पाए गए थे। हाथ की नसें कटी हुई पायी गयी थीं। जांघ, गर्दन, छाती, कंधे और पेट पर जख्म के निशान पाए गए थे। डिप्टी जेलर सुनील कुमार सिंह और प्रधान बंदी रक्षक बाबू राम दुबे के बयान को भी संजीदगी से लेने के बजाए उनके बयान को झूठा करार दिया गया। इस सम्बन्ध में न्यायिक जांच रिपोर्ट कुछ और ही कहती है। न्यायिक जांच रिपोर्ट में जिला कारागार, लखनऊ के वरिष्ठ अधीक्षक से पूछताछ के आधार पर कहा गया है कि जिस डॉ. सचान की हत्या हुई थी, उस दिन तत्कालीन मजिस्टेªट जेल के अन्दर ही नहीं आए थे। जेल के अन्दर उनके पी.ए. आए थे। इस बात की पुष्टि जेल के फार्मासिस्ट संजय कुमार सिंह ने भी की थी। इन परिस्थितियों में डिप्टी जेलर और प्रधान बंदी रक्षक के झूठ बोलने का प्रश्न ही नहीं उठता। न्यायिक जांच के दौरान आत्महत्या से सम्बन्धित कोई नोट नहीं पाया गया। सामान्यतः यह देखने में आया है कि, शिक्षित व्यक्ति जब कभी आत्महत्या करता है तो कोई न कोई सुसाइड नोट अवश्य लिखता है लेकिन डॉ. सचान के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं पाया गया। फोरेंसिंक मेडिसिन एवं टॉक्सीकोलॉजी विभाग (छत्रपति शाहूजी महाराज, चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ में लेक्चरर) के डॉ. मौसमी ने भी अपने बयान में कहा था कि मृतक के शरीर में जितनी गहरी चोटें 8 स्थानों पर आयी हैं, इतनी गहरी चोटें आत्महत्या करने वाला कोई सामान्य व्यक्ति नहीं लगा सकता। मृतक स्वयं एक डॉक्टर था, एक डॉक्टर से आत्महत्या से पूर्व इतनी सारी गहरी चोटें लगाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। हैरत की बात है कि फोरेंसिक मेडिसन के चिकित्सक की रिपोर्ट को भी नजरअंदाज कर दिया गया। डॉ. मौसमी तो यहां तक कहते हैं कि दोनों हाथों की ब्लीडिंग प्वाइंट पर एक ही तरह की चोटें आयी हैं। इस तरह की चोटें अर्धविक्षिप्त व्यक्ति से भी करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

इस सम्बन्ध में पोस्टमार्टम करने वाली टीम में शामिल डॉ. दुबे के बयान को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। डॉ. दुबे ने बयान दिया था कि मैंने इससे पहले लगभग 100 से ज्यादा पोस्टमार्टम किए होंगे लेकिन आज तक कोई भी केस ऐसा नहीं मिला जिसमें किसी आत्महत्या करने वाले ने अपने शरीर की इतनी सारी नसें काटी हों। डॉ. सचान की गर्दन पर लिंगेचर मार्क हत्या की पुष्टि के लिए काफी है। गर्दन पर ‘लिंगेचर मार्क’ मौत के बाद की चोट है। रिपोर्ट में कहा गया है कि चूंकि लिंगेचर मार्क मृत्यु के बाद का है, लिहाजा यह साबित हो जाता है कि डॉ. सचान की हत्या करने के बाद उसे आत्महत्या दिखाने की गरज से किसी अन्य व्यक्ति ने ही उनके गले में फंदा लगाया होगा।

इस आशंका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है कि इस पूरे हत्याकांड को अंजाम देने में जेल प्रशासन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। पोस्टमार्टम के अनुसार डॉ. सचान की मौत 22 जून 2011 को सुबह 10 बजे के आस-पास हुई थी। जिला कारागार में नियमतः सुबह 6 बजे पहली गिनती होती है। उसके बाद रात 8 बजे तक चार बार बंदी रक्षकों की ड्यूटी बदलती है और हर बार कैदियों की गिनती की जाती है। घटना वाले दिन जेल प्रशासन यह तो कहता है कि गिनती के वक्त एक बंदी हर बार कम नजर आया लेकिन वह कौन था, इसके बारे में जानने की किसी ने कोशिश नहीं की, या फिर जान-बूझकर डॉ. सचान की अनुपस्थिति को नजरअंदाज किया जाता रहा। जांच के दौरान यह बात सामने आयी कि घटना वाले दिन सुबह साढे़ सात बजे एक सिपाही डॉ. सचान को रिमाण्ड के नाम पर अपने साथ ले गया था। आमतौर पर सिपाही जेल अस्पताल के भीतर आकर कैदियों को रिमाण्ड पर ले जाने के लिए पुकार लगाता है लेकिन डॉ. सचान को रिमाण्ड पर ले जाने के लिए जिस सिपाही ने पुकार लगायी थी, वह सिपाही अस्पताल गेट के बाहर ऐसे खड़ा था, जिसका चेहरा जेल अस्पताल में भर्ती किसी कैदी ने नहीं देखा।

गौरतलब है कि रिमाण्ड पर ले जाने से पूर्व बाकायदा लिखा-पढ़ी होती है। इस सम्बन्ध में जब न्यायिक जांच अधिकारी ने पर्ची के सम्बन्ध में पूछा तो कहा गया कि पर्ची प्रधान बंदी रक्षक बाबू राम दुबे के पास है। इस सम्बन्ध में प्रधान बंदी रक्षक बाबू राम दुबे (इनकी जिम्मेदारी कैदियों की प्रत्येक गणना के समक्ष अपनी उपस्थिति में ही करायी जाती है) ने न्यायिक जांच अधिकारी को जो बयान दिया वह बेहद चौंकाने वाला था। बकौल बाबू राम दुबे, ‘किसी ने अफवाह फैला दी है कि डॉ. सचान को अदालत रिमाण्ड पर भेजा गया है। जब मैं शाम 5 बजे आया, उस वक्त अफवाह फैल गयी थी कि डॉ. सचान अदालत गए हैं। बाबू राम दुबे के अनुसार घटना वाले दिन दोपहर करीब 11 बजे कैदियों की गिनती की गयी थी, उस वक्त सभी बंदी मौजूद थे। 11.30 बजे तक डॉ. सचान को तो उसने स्वयं जेल के अन्दर ही देखा था।

न्यायिक जांच अधिकारी का दावा है कि बाबू राम दुबे का यह बयान पूरी तरह झूठ पर आधारित था। बाबू राम दुबे ने बयान दिया था कि डॉ. सचान उसने जेल परिसर में ही देखा था जबकि पोस्टमार्टम रिपोर्ट के मुताबिक डॉ. सचान की मौत 10 बजे ही हो गयी थी। रही बात ड्यूटी की तो घटना वाले दिन सुबह 8 बजे से 12 बजे तक की ड्यूटी पर बंदी रक्षक पहीन्द्र सिंह तैनात था। साफ जाहिर है कि प्रधान बंदी रक्षक का बयान पूरी तरह से झूठ पर आधारित था।

डॉ. सचान को डायरी लिखने की आदत शुरू से ही थी। लखनऊ जेल में भी वे डायरी लिखते थे। मौत के बाद जब उनकी वस्तुओं को खंगाला गया तो उनकी डायरी मिली। डायरी का पहला पेज फटा हुआ था। इसी आधार पर पुलिस ने सचान का सुसाइड नोट मिलने का दावा किया था सुसाइड नोट डॉ. सचान के शव के पास से बरामद नहीं हुआ। पुलिस ने सुसाइड नोट के सन्दर्भ में बताया था कि इस नोट में सिर्फ इतना लिखा है कि मैं निर्दोष हूं और मेरी मौत के लिए किसी को जिम्मेदार न माना जाए। सुसाइड नोट पर सचान के दस्तखत न होने के कारण इसकी पुष्टि नहीं की जा सकी।

दूसरी ओर पत्नी का दावा है कि उनके पति की हत्या की गयी थी। गौरतलब है कि डॉ. सचान की पत्नी स्वयं एक चिकित्सक हैं। पोस्टमार्टम रिपोर्ट देखने के बाद उन्होंने दावे के साथ कहा था कि रिपोर्ट में अंकित चोटों और रिपोर्ट के आधार पर मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचती हूं कि यह हत्या का मामला है। मेरे और मेरे परिवार के किसी भी सदस्य को घटनास्थल नहंी दिखाया गया, जिससे हम लोग उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में कोई निष्कर्ष निकाल सकते। डॉ. सचान की पत्नी ने न्यायिक जांच अधिकारी के समक्ष बयान दिया था कि उन्हें पूरा विश्वास है कि उनके पति ने आत्महत्या नहीं की बल्कि उनकी साजिशन हत्या की गयी है। घटना के अगले दिन उन्हें कोर्ट आना था, शायद कुछ लोगांे को आशंका हो गयी होगी कि कहीं उनका नाम न उजागर हो जाए, लिहाजा उनकी कोर्ट में पेशी से एक दिन पहले ही जेल में हत्या कर दी गयी। डॉ. योगेन्द्र सिंह सचान के बडे़ भाई डॉ. आर.के. सचान डॉ. राम मनोहर लोहिया अस्पताल में प्रमुख अधीक्षक के पद पर रह चुके हैं। न्यायिक जांच अधिकारी को दिए गए बयान में उन्होंने दावे के साथ कहा है कि मेरे भाई डॉ. योगेन्द्र सिंह सचान की हत्या की गयी है, उसने आत्महत्या नहीं की। मैं किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं ले सकता, परन्तु विभाग में बैठे उच्च लोगों का हाथ हो सकता है। इन लोगों में उच्च अधिकारी से लेकर सम्बन्धित विभाग के मंत्री भी हो सकते हैं। डॉ. योगेन्द्र की किसी से व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं थी, उनकी हत्या का कारण विभाग का पैसा हो सकता है। डॉ. योगेन्द्र के बड़े भाई का यह बयान तत्कालीन सरकार के जिम्मेदार लोगों की तरफ इशारा करता रहा लेकिन बसपा की धुर-विरोधी सपा सरकार ने भी पूरे पांच वर्ष तक मामले के वास्तविक दोषी लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं जुटायी।

हत्या को आत्महत्या का अमली जामा पहनाने में गोसाईंगज (लखनऊ) पुलिस ने भी पूरी कोशिश की। कारागार में रात्रि आठ बजे डॉ. सचान की लाश मिलती है। तत्काल घटना की सूचना शीर्ष अधिकारियों को दे दी जाती है। वायरलेस पर मैसेज भेजने में डेढ़ घंटे का समय लगाया जाता है। वायरलेस पर सूचना मिलते ही गोसाईंगज पुलिस रात्रि लगभग दस बजे जेल परिसर में पहुंचती है। चूंकि रात काफी हो गयी थी और जेल के टॉयलेट में पर्याप्त रोशनी की व्यवस्था नहीं थी लिहाजा टार्च की रोशनी और ड्रैगेन लाइट से लाश का मुआयना किया जाता है। रोशनी पर्याप्त न होने का हवाला देते हुए फ्रिंगर प्रिंट भी नहीं लिया जाता। फोटोग्राफी जरूर की जाती है। गोसाईगंज पुलिस घटना वाले स्थान को सील कर अगले दिन आने की बात करती है, इसी बीच डिप्टी जेलर सुनील कुमार सिंह के कहने पर पुलिस टॉयलेट में दोबारा सर्च करती है। हैरत की बात है तो चन्द मिनट पहले तक पर्याप्त रोशनी न होने का बहाना कर पुलिस अगले दिन आने की बात करती है, वहीं डिप्टी जेलर के कहने पर सर्च के दौरान उसे डेªनेज के अन्दर से शेविंग करने वाला आधा ब्लेड उसे मिल जाता है। उस ब्लेड के एक तरफ खून लगा था जबकि दूसरी तरफ खून नहीं था। इसके अलावा मौके से कोई अन्य वस्तु नहीं मिली जो यह साबित कर सके कि उसी हथियार से डॉ. सचान ने आत्महत्या की होगी। गौरतलब है कि छत्रपति शाहू जी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय, लखनऊ की ओर से फोरेेंसिक विशेषज्ञों ने शपथ पत्र में लिखा है, ‘‘डॉ. सचान के शरीर पर 8 चोटें किसी शार्प वेपैन से आयी हैं और एक लिंगेचर मार्क हैं। लिंगेचर मार्क को मरने के बाद की चोट बतायी गयी। यह भी दावा किया गया कि जिस धारदार हथियार से डॉ. सचान को चोटें आयी हैं, वह धारदार हथियार भारी होगा, क्योंकि घाव पर इकीमॉसिस मौजूद थे। इसका मतलब है कि चोट किसी भारी धारदार हथियार से पहुंचायी गयी थीं, दाढ़ी बनाने वाले ब्लेड से चोटें नहीं पहुंचायी जा सकती थीं’’। फोरेंसिक विशेषज्ञों की रिपोर्ट के बाद पुलिस को मिले ब्लेड (दाढ़ी बनाने वाला) का कोई महत्व नहीं रह जाता। तहसीलदार (मोहनलालगंज) जितेन्द्र कुमार श्रीवास्तव ने भी अपने शपथ पत्र में कहा है कि उनकी उपस्थिति में घटना स्थल से कोई भी धारदार हथियार नहीं मिला।

इस हाई-प्रोफाइल हत्याकांड में न्यायिक जांच रिपोर्ट के बाद जेलर बी.एस.मुकुन्द, डिप्टी जेलर सुनील कुमार सिंह, प्रधान बंदी रक्षक बाबू राम दुबे और बंदी रक्षक पहीन्द्र सिंह की भूमिका संदिग्ध बतायी गयी थी। हैरत की बात है कि न्यायिक जांच रिपोर्ट के बाद भी नामजद कथित दोषियों को पर्याप्त सजा नहीं दी गयी। कहा तो यहां तक जा रहा है कि यदि किसी एक को सजा मिलती तो निश्चित तौर पर पूरा मामला स्वेटर के धागे की तरह खुलता चला जाता। यहां तक कि तत्कालीन मुख्यमंत्री और तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री अनंत कुमार मिश्रा उर्फ अंटू मिश्रा समेत कई मंत्री-विधायक सलाखों के पीछे नजर आते। यहां तक कि कई सफेदपोश नौकरशाह भी गिरफ्त में होते।

यूपी की राजधानी लखनऊ की अति सुरक्षित मानी जाने वाली जिला जेल में एक हाई-प्रोफाइल हत्याकांड को अंजाम दिया जाता है। हत्यारे हत्या करने के बाद पटल से गायब हो जाते हैं। चूंकि मामला हाई-प्रोफाइल एनआरएचएम के घोटालेबाजों से जुड़ा हुआ था लिहाजा तत्कालीन बसपा सरकार ने चन्द दिनों में ही हाई-प्रोफाइल हत्याकांड को आत्महत्या में तब्दील करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बिना जांच किए सरकार की तरफ से आधिकारिक जानकारी भी दे दी गयी कि डिप्टी सीएमओ ने आत्महत्या कर ली। चिकित्सक का परिवार आत्महत्या की बात मानने को कतई तैयार नहीं था। चूंकि अभिरक्षा में कैदी की मौत होने पर न्यायिक जांच की प्रक्रिया है, लिहाजा जांच हुई। रिपोर्ट शासन के पास आयी तो सभी का चौंकना स्वाभाविक था। न्यायिक जांच में डिप्टी सीएमओ की मौत को तमाम सुबूतों के साथ हत्या करार दिया गया। इसके बाद मामले की जांच सीबीआई से करवायी गयी। कथित हत्यारों की पहुंच का अंदाजा यहीं से लगाया जा सकता कि तमाम सुबूतों और न्यायिक जांच रिपोर्ट के बावजूद सीबीआई ने डिप्टी सीएमओ की मौत को आत्महत्या में तब्दील कर दिया। स्थिति यह है कि जिन्हें जेल में होना चाहिए था, वे आराम फरमा रहे हैं, जिनके नाम शक के आधार पर दर्ज किए गए थे वे आज भी कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगा रहे हैं।

आगे है…

अदालत ने भी माना हत्या

क्या कहती है सीबीआई की क्लोजर रिपोर्ट?

क्या है एनआरएचएम घोटाला…?

हत्याकांड पर अखिलेश सरकार की रहस्यमयी चुप्पी

डॉ. योगेन्द्र सचान के बेटे का दावा

बलि का बकरा बने डॉ. शुक्ला-सचान!

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