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उत्तर प्रदेश

अखिलेश यादव जी, कहां हैं हत्यारे?

मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का कार्यकाल लगभग समाप्ति के दौर में है। अगली सरकार के लिए जद्दोजहद अंतिम चरण मे है। अखिलेश यादव पूरे पांच वर्ष तक सूबे की सत्ता पर निष्कंटक राज करते रहे लेकिन इस दौरान उन्होंने एक बार भी डॉ. योगेन्द्र सिंह सचान हत्याकाण्ड को लेकर किए गए वायदों को याद करने की कोशिश नहीं की। बताना जरूरी है कि अखिलेश यादव ने (डॉ. सचान हत्याकाण्ड के दो दिन बाद 24 जून 2011) पत्रकारों के समक्ष डॉ. सचान की मौत को हत्या मानते हुए सीबीआई जांच की मांग की थी। डॉ. सचान के परिवार से भी वायदा किया था कि, उन्हें न्याय दिलाने के लिए किसी भी हद तक जाना पड़े, वे और उनकी समाजवादी पार्टी पीछे नहीं हटेगी। लगभग छह साल बाद की तस्वीर यह बताने के लिए काफी है कि अखिलेश यादव ने अपना वायदा पूरा नहीं किया। डॉ. सचान का परिवार पूरे पांच वर्ष तक मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से न्याय की आस लगाए बैठा रहा। शायद डॉ. सचान की आत्मा भी मुख्यमंत्री  से यही पूछ रही होगी कि, कहां हैं हत्यारे!!

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अदालत ने भी माना हत्या

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अदालत ने भी डॉ. योगेन्द्र सिंह सचान की हत्या की पुष्टि की थी। हाईकोर्ट में सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ता के वकील ने अदालत से पूछा था कि न्यायिक जाँच रिपोर्ट में क्या पाया गया है? इस पर अदालत ने स्पष्ट कहा था कि जाँच रिपोर्ट के अनुसार यह आत्महत्या नहीं, बल्कि सुनियोजित हत्या थी। गौरतलब है कि इसी के बाद तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री अनंत कुमार मिश्र और परिवार कल्याण मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा ने विभाग में हुए गंभीर घोटालों की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा दे दिया था जबकि विपक्ष आरोप लगाता रहा कि इस घोटाले में मुख्यमंत्री का भी हाथ है।

क्या कहती है सीबीआई की क्लोजर रिपोर्ट?

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एनआरएचएम घोटाले में नामजद डॉ. योगेन्द्र सिंह सचान की मौत पर सीबाआई ने जांच के बाद क्लोजर रिपोर्ट दाखिल की। गौरतलब है कि डॉ. सचान की हत्या के बाद परिजनों की मांग पर सीबीआई को जांच सौंपी गई थी। सीबीआई की क्लोजर रिपोर्ट में एम्स और सीएफएसएल की रिपोर्ट को आधार मानकर  बताया गया कि सचान के शरीर पर जितनी भी चोटें थीं वह उन्होंने खुद मारी थीं और हत्या के किसी भी तरह के सबूत जांच एजेंसी के हाथ नहीं लगे हैं। सीबीआई की यह क्लोजर रिपोर्ट 100 से भी अधिक पुलिसवालों और जेलकर्मियों से पूछताछ के बाद लगायी थी। इसके अलावा तमाम शूटर्स और नेताओं से भी जेल में पूछताछ की गई थी।

हैरत की बात है कि न्यायिक जांच रिपोर्ट और गवाहों के बयान के बावजूद सीबीआई ने तथ्यों को दर किनार करते हुए अपनी क्लोजर रिपोर्ट में कह दिया कि उसके पास डॉ. सचान की हत्या के कोई भी सुबूत नहीं हैं। जिस वक्त यह घटना घटित हुई उस वक्त राजनीति के दिग्गजों का तो यहां तक दावा था कि यदि सीबीआई ईमानदारी से जांच के बाद क्लोजर रिपोर्ट लगाती तो निश्चित तौर पर न सिर्फ तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री सलाखों के पीछे होते बल्कि तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती भी मुश्किल में पड़ सकती थीं। सभी जानते हैं कि जब भी राज्य में इतना बड़ा घोटाला होता है, कहीं न कहीं मुख्यमंत्री के संज्ञान में जरूर होता है। बाकायदा कमीशन का एक बड़ा हिस्सा ऊपर तक भी पहुंचाया जाता है।

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क्या है एनआरएचएम घोटाला…?

केंद्र सरकार के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन ‘एनआरएचएम’ योजना के मद में छह वर्ष के दौरान (वर्ष 2005 से 2011 तक) उत्तर प्रदेश को 8657 करोड़ रुपये दिए गए। उद्देश्य यूपी की गरीब जनता को भी उच्च स्तरीय चिकित्सा सुविधा मिल सके। हैरत इस बात की है कि तत्कालीन बसपा सरकार के कार्यकाल में सम्बन्धित विभाग के मंत्रियों समेत अधिकारियों व चिकित्सकों ने थोड़ा नहीं बल्कि आधे से भी ज्यादा रकम पर हाथ साफ कर दिया। जांच के दौरार यह रकम लगभग पांच हजार करोड़ रुपये आंकी गयी। गौरतलब है कि इसका खुलासा नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक कैग की रिपोर्ट में किया जा चुका है।

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शुरुआती दौर में तो इस मामले को पूरी तरह से दफन करने की तैयारी थी, चूंकि इस योजना में पैसा केन्द्र सरकार का लगा था लिहाजा जांच सीबीआई को सौंपी गयी। यूपी सरकार की नाक के नीचे हुए इस घोटाले की जांच का काम सीबीआई को सौंपे जाने के बाद मंत्री, राजनेता व वरिष्ठ अधिकारियों के नाम एक-एक करके सामने आते गए। इस घोटाले की गंभीरता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जांच पूरी होने तक इस महाघोटाले में कथित रूप से शामिल तीन सीएमओ समेत सात लोगों की जानें चली गयीं।

कैग की रिपोर्ट के अनुसार अप्रैल 2005 से मार्च 2011 तक एनआरएचएम में लोगों की सेहत सुधार के लिए 8657.35 करोड़ रुपये मिले। इन रुपयों में से 4 हजार 9 सौ 38 करोड़ रुपये नियमों की अनदेखी कर खर्च किए गए। रिपोर्ट से साफ प्रतीत होता है कि गुनहगारों ने केन्द्र सरकार के धन को लूटने में जरा सा संकोच नहीं किया। इसमें से अकेले 27 करोड़ लूटे जाने की पुष्टि पूर्व स्वास्थ्य मंत्री अंटू मिश्रा पर हो चुकी है।

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इस लूटकांड की जांच रिपोर्ट में लिखा गया है कि एनआरएचएम में 1085 करोड़ रुपये का भुगतान तो बिना किसी हस्ताक्षर के ही कर दिया गया। इतना ही नहीं 1170 करोड़ रुपये का ठेका भी बिना एग्रीमेंट के चंद चहेते लोगों को दिया गया। निर्माण एवं खरीद संबंधी धनराशि को खर्च करने के आदेश जारी करने में सुप्रीम कोर्ट एवं सीवीसी के निदेर्शों का पालन नहीं किया गया। जांच के दौरान केंद्र से मिले 358 करोड़ और कोषागार के 1768 करोड़ का हिसाब राज्य स्वास्थ्य सोसाइटी की फाइलों में सीएजी को नहीं मिला।

रिपोर्ट बताती है कि एक रुपये 40 पैसे में मिलने वाले 10 टेबलेट के पत्तों को अलग अलग जिलों में दो रुपये 40 पैसे से लेकर 18 रुपये तक में खरीदा गया। वर्ष 2008-09 के वित्तीय वर्ष में दवा खरीद मामले में 1.66 करोड़ रुपये का घोटाला होने की बात रिपोर्ट में है। एनआरएचएम के कार्यक्रम मूल्यांकन महानिदेशक की ओर से वर्ष 2005 से 2007 के बीच 1277.06 करोड़ रुपये एनआरएचएम के लेखा-जोखा से मेल नहीं खाते। इतना ही नहीं गैर पंजीकृत सोसाइटी को 1546 करोड़ रुपये दिए जाने पर भी रिपोर्ट में आपत्ति जताई गई है। कैग की रिपोर्ट में 2009-10 में बिना उपयोगिता प्रमाण पत्र के उपकेंद्रों को 52 करोड़ रुपये मुहैया कराए जाने को नियम विरुद्ध बताया गया।

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सीएजी ने लिखा है कि चार जिलों के परीक्षण में ही पाया है कि 4.90 करोड़ रुपये व्यर्थ खर्च किए गए। सीएजी ने पाया कि प्रदेश सरकार ने घरेलू उत्पाद का केवल 1.5 प्रतिशत ही स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया है जबकि लक्ष्य दो से तीन फीसदी रखा गया था। एनआरएचएम में शिशु एवं प्रसव मृत्यु दर कम करने और जनसंख्या पर कारगर रोक लगाने संबंधी कार्यक्रमों में भी धांधली का मामला सामने आया था। घोटालेबाजों के बुलन्द हौसलों का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि एक डीएम की कार का उपयोग टीकाकरण के कार्यक्रम में किया गया। सीएजी रिपोर्ट के अनुसार सुरक्षित मातृत्व योजना में बीपीएल परिवार की महिलाओं का प्रसव कराने वाले निजी नर्सिंग होम को प्रति डिलीवरी 1850 रुपये मिलना था।

इस योजना के तहत बहराइच में राज अस्पताल को 258 बीपीएल महिलाओं का प्रसव कराने के लिए 6.77 लाख रुपये दिए गए लेकिन किसी महिला से बीपीएल का दस्तावेज नहीं लिया गया जो जरूरी था। इसी तरह की धांधली रज्च्य के अन्य जिलों में भी हुई। जननी सुरक्षा योजना के तहत स्वास्थ्य केंद्र में बच्चा पैदा करने वाली महिलाओं को 1400 रुपये और बीपीएल परिवार की महिलाओं को घर पर प्रसव की स्थिति में 500 रुपये की नकद सहायता दी जानी थी। इन्हें जिले के स्वास्थ्य केंद्र या अस्पताल लाने के लिए आशा कार्यकत्रियों को 600 रुपये मानदेय दिया जाना था। वर्ष 2005-11 के बीच इस योजना के तहत 69 लाख महिलाओं के लिए 1219 करोड़ रुपये खर्च किए गए। इस योजना की जांच का दायित्व प्रदेश सरकार का था। वह भी मात्र 10 प्रतिशत। इसके बावजूद इस योजना में खर्च हुए 1085 करोड़ रुपये की जांच नहीं की गई। शाहजहांपुर के स्वास्थ्य केंद्र जलालाबाद में जिस नंबर की गाड़ी को किराए पर दो बार लिया जाना दिखाया गया वह गाड़ी शाहजहांपुर के डीएम की सरकारी कार निकली।

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एनआरएचएम योजना के अन्तर्गत नसबंदी के नाम पर भी जमकर लूट हुई। वर्ष 2005 से लेकर 2011 के बीच महज लगभग 6 वर्षों में तकरीबन 26 लाख लोगों की नसबंदी के मउ में 181 करोड़ रुपये खर्च किए गए यह रकम नसबंदी करवाने वालों को दिए जाने थे। जांच रिपोर्ट में पाया गया कि मिजार्पुर के चुनार में 10.81 लाख रुपये 1518 पुरुषों को दिए जाने की बात कही गयी है लेकिन भुगतान रजिस्टर में न तो लाभ पाने वालों का अंगूठा लिया गया और न ही दस्तखत करवाए गए। हैरत की बात है कि जहां अंगूठा या दस्तखत लिया गया, वहां लाभार्थियों को दी जाने वाली राशि अंकित नहीं की गई थी। कहा तो यह जा रहा था कि फर्जी दस्तखत वाले नामों के आगे फर्जी तरीके से राशि भरी जानी थी लेकिन समय नहीं मिल पाया। फजीर्वाड़ा करने से पहले ही कैग ने सारे दस्तावेज जब्त कर लिए थे, शायद यही वजह रही होगी कि घोटाला करने वाले चूक गए और पूरे खेल का खुलासा हो गया।

अरबों के इस पूरे लूटकांड में सीबीआई की तरफ से लगभग छह दर्जन आपराधिक मामले दर्ज किए गए। लगभग ढ़ाई दर्जन मामलों में आरोप पत्र दाखिल किए गए। इस लूटकांड में अब तक पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा, विधायक आर.पी. जायसवाल, प्रमुख सचिव (आईएएस) प्रदीप शुक्ला, कई परियोजना प्रबंधक, एनआरएमएच से जुड़ी विभिन्न योजनाओं का संचालन करने वाले चिकित्सक, दवा वितरक, विभिन्न कंपनियों के संचालक व आपूर्तिकर्ताओं की गिरफ्तारी हो  चुकी है। गौरतलब है कि एनआरएचएम घोटाले में तकरीबन दो दर्जन सीनियर चिकित्सक सेवा से बर्खास्त किए गए थे। इनमें कई सीएमओ रैंक के अधिकारी हैं। मामले से जुडे़ कथित दोषी चिकित्सकों की पेशी अभी तक जारी है। दावा तो यहां तक किया जा रहा है कि जल्द ही इस मामले में कई और लोग निशाने पर आ सकते हैं।

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हत्याकांड पर अखिलेश सरकार की रहस्यमयी चुप्पी

पूर्ववर्ती मायावती सरकार के कार्यकाल में डॉ. सचान हत्याकांड को लेकर अखिलेश यादव ने जमकर मायावती सरकार पर कीचड़ उछाला था। 24 जून 2011 में पत्रकारों के सवालों का उत्तर देते हुए अखिलेश यादव ने जो कहा था, वह कुछ इस तरह से है। बकौल अखिलेश यादव, ‘‘उनके परिवार के सदस्यों से मुलाकात हुई है। उनके भाई जो स्वयं डॉक्टर हैं, वे साथ ही बैठे थे, उनसे भी बातचीत हुई है। डॉ. सचान के बेटे से भी बात हुई है। परिवार के सभी लोग चाहते हैं कि सच्चाई बाहर आए।

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सिर्फ डॉ. सचान का परिवार ही नहीं बल्कि पूरी समाजवादी पार्टी और पूरे प्रदेश की जनता यह जानना चाहती है कि आखिर सच्चाई क्या है। सच्चाई सामने आए बिना राज नहीं खुल सकता। सरकार की पोल नहीं खुल सकती। डॉ. सचान के पूरे परिवार के लोग यही चाहते हैं कि इस मामले की जांच निष्पक्ष हो और सीबीआई से हो। पूरी समाजवादी पार्टी ही नहीं बल्कि डॉ. सचान के परिवार और प्रदेश की जनता भी यही जानती है कि  डॉ. सचान की जेल के अन्दर हत्या हुई है। सरकार आत्महत्या का झूठा बहाना बना रही है। हमें इस प्रशासन पर कोई भरोसा नहीं है। प्रशासन सच्चाई नहीं बता सकता लिहाजा सीबीआई जांच होनी ही चाहिए, तभी सच्चाई बाहर आयेगी। सिर्फ सपा ही नहंी बल्कि सभी राजनीतिक दल सच्चाई के लिए सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं। सरकार कुछ भी कहे लेकिन समाजवादी पार्टी का मानना है कि ये हत्या है। क्योंकि डॉ. सचान के जीवित रहते काफी राज खुल जाते। बहुत सारी जानकारियों मिल जातीं। सच्चाई सामने आ जाती। समाजवादी पार्टी चाहती है कि अन्याय न हो। इस परिवार के साथ बहुत बड़ा अन्याय हुआ है।

पूरा देश देख रहा है कि दो-दो सीएमओ की हत्या हो गयी लखनऊ में। डॉ. सचान जीवित होते तो दस्तावेज के साथ अपना पक्ष तो रखते। जब बाबू सिंह कुशवाहा और अनन्त मिश्रा को हटाया गया है तो क्या उनकी जानकारी में यह मामला नहीं होगा। मंत्री बचे रहें और मुख्यमंत्री कार्यालय बचा रहे, इसी वजह से डिप्टी सीएमओ डॉ. सचान की हत्या की गयी। स्थिति तो यह हो गयी है कि पंचम तल बहुजन समाज पार्टी का प्रवक्ता बन कर रह गया है’’। अखिलेश यादव के यह बयान डॉ. सचान की हत्या के बाद के हैं। उस वक्त सूबे में मायावती की सरकार सत्ता में थी। हैरत इस बात की है कि मायावती सरकार के कार्यकाल में हुई इस हत्या को लेकर बयानबाजी करने वाले वर्तमान मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपने पूरे पांच वर्ष के कार्यकाल में न तो इस प्रकरण को लेकर दोबारा जांच करवायी और न ही तह तक जाने की कोशिश की, जबकि एनआरएचएम घोटाले और हत्याकाण्ड से जुडे़ कई अधिकारी आज भी तमाम दस्तावेजों के साथ कोर्ट-कचहरी के चक्कर लगा रहे हैं। इन लोगों का मानना है कि यदि अखिलेश सरकार अपने कार्यकाल में घोटाले पर से पर्दा उठाना चाहती तो कई बड़ी मछलियां जांल में होती, जो खुली हवा में सांस ले रही हैं।

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डॉ. योगेन्द्र सचान के बेटे का दावा

इस हाई-प्रोफाइल मामले की तह तक जाने के लिए राष्ट्रीय अनुसूचित जातिध्जनजाति आयोग ने भी पहल की थी। इसी पहल पर सीबीआई जांच की गयी। इतना ही नहीं समूचा विपक्ष भी उपमुख्य चिकित्साधिकारी योगेन्द्र सिंह सचान की मौत का रहस्य जानने के लिए बेचौन था। निराशा तब हुई जब सीबीआई ने अपनी क्लोजर रिपोर्ट में डॉ. योगेन्द्र सिंह सचान की मौत को आत्महत्या का चोला पहनाकर पूरे मामले पर पर्दा डाल दिया। इसी दौरान डॉ. योगेन्द्र सचान के पुत्र संकल्प ने दावे के साथ कहा था कि, उसके पिता ने आत्महत्या नहीं बल्कि उनकी हत्या की गई थी। संकल्प का दावा था कि उसके पिता सीएमओ बीपी सिंह हत्याकांड मामले में बड़ा खुलासा करने वाले थे।

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यह खुलासा कई बड़े लोगों को मुसीबत में डाल सकता था। ये खुलासा न होने पाए, इसी मकसद से उनके पिता की हत्या की गई। संकल्प सचान ने अपने पिता की हत्या को लेकर तत्कालीन बसपा सरकार पर भी आरोप लगाते हुए कहा था कि उनके पिता की हत्या में उत्तर प्रदेश सरकार भी शामिल है। उसके पिता ने आत्महत्या नहीं की है बल्कि क्रूरतम तरीके से उनकी हत्या की गई है। एक खबरिया चौनल को दिए साक्षात्कार में संकल्प ने सवाल उठाया था कि पता नहीं क्यों हत्या के मामले को पुलिस आत्महत्या साबित करने पर तुली है? संकल्प को उम्मीद थी कि सीबीआई से जांच के उपरांत उसके पिता के हत्यारों का खुलासा हो जायेगा लेकिन हुआ इसका ठीक उलटा। न्यायिक जांच रिपोर्ट और तमाम गवाहों और सुबूतों के बावजूद सीबीआई ने अपनी क्लोजर रिपोर्ट में आत्महत्या करार दे दिया।

सीबीआई की क्लोजर रिपोर्ट के बाद से ही डॉ. योगेन्द्र सिंह सचान का परिवार मन-मसोस कर रह गया। तब से किसी ने इस मामले को दोबारा उठाने की जहमत नहीं की जबकि गवाहों के बयान और पुख्ता प्रमाण यह साबित करने के लिए काफी थे कि डॉ. सचान की हत्या की गयी थी।

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बलि का बकरा बने डॉ. शुक्ला-सचान!

पिछले दिनों ‘दृष्टांत’ संवाददाता ने पूर्व सीएमओ ए.के. शुक्ला से उन पर लगे आरोपों के सन्दर्भ में जानकारी हासिल की। डॉ. शुक्ला ने जो दस्तावेज दिखाए, वह दस्तावेज प्रथम दृष्टया डॉ. शुक्ला को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त नहीं कहे जा सकते। जांच रिपोर्ट में कई जगह खामियां नजर आयीं, जो यह बताने के लिए काफी हैं कि बडे़ घोटालेबाजों ने अपनी गर्दन बचाने की गरज से डॉ. ए.के. शुक्ला को बलि का बकरा बनाया है। डॉ. शुक्ला पर डा. विनोद कुमार आर्या की हत्या की साजिश का आरोप है। डॉ. विनोद आर्या की हत्या अक्टूबर 2010 में हुई थी जबकि डॉ. बी.पी. सिंह की हत्या 2 अप्रैल 2011 में हुई थी।

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उपरोक्त दो हत्याओं और एनआरएचएम में घोटाला करने के आरोप में पुलिस ने डॉ. सचान को घटना के एक दिन बाद ही गिरफ्तार कर लिया था। जेल में 22 जून 2011 को उनके द्वारा आत्महत्या की आधिकारिक सूचना शासन को जारी की गयी। महत्वपूर्ण यह है कि आमतौर पर जेल में हुई मौत की खबर को लेकर शासन स्तर पर प्रेस वार्ता नहीं की जाती लेकिन इस केस में हैरतअंगेज तरीके से शासन की संलिप्तता देखने को मिली।

रात्रि में ही बसपा सरकार के कार्यकाल में तत्कालीन कैबिनेट सचिव की तरफ से प्रेस वार्ता की जाती है। पत्रकारों को सम्बोधित करते वक्त तत्कालीन सचिव के मुंह से डॉ. सचान की मौत को हत्या कहा जाता है, तत्काल भूल स्वीकार करते हुए उनकी मौत को आत्महत्या बताया गया। नियम तो यही कहते हैं कि यदि जेल में किसी कारणवश कैदी की मौत होती है तो उसकी सूचना सर्वप्रथम उनके परिवार वालों को दी जाती है लेकिन डॉ. सचान के मामले में ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला। सबसे पहले इस घटना की सूचना मुख्यमंत्री कार्यालय को दी जाती है। उसके चार घण्टे बाद डॉ. सचान के परिवार वालों को घटना की जानकारी दी जाती है।

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11 जुलाई 2011 को मजिस्टेज्ट जांच रिपोर्ट प्रेषित की जाती है। उसके बाद आनन-फानन में 12 जुलाई 2011 को डॉ. ए.के. शुक्ला को उस वक्त गिरफ्तार किया जाता है जिस वक्त वे किसी कारण से ट्रामा सेन्टर में भर्ती थे। आरटीआई से मिली जानकारी के अनुसार गिरफ्तारी से पूर्व डॉ. शुक्ला से किसी भी तरह की पूछताछ नहीं की गयी थी। 13 जुलाई 2011 को डॉ. शुक्ला को सस्पेंड भी कर दिया जाता है। पुख्ता दस्तावेजों के अभाव में 28 अगस्त 2011 को माननीय उच्च न्यायालय से डॉ. शुक्ला की जमानत भी हो गयी।

यह पूरा घटनाक्रम किस तरह से साजिशों पर टिका हुआ था, उसकी एक बानगी भर देखिए। आमतौर पर किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति की गिरफ्तारी से पूर्व ठोस सुबूत इकट्ठे कर लिए जाते हैं लेकिन डॉ. शुक्ला की गिरफ्तारी में ऐसा कुछ भी देखने को नहंी मिलता। न जांच हुई और न ही तफ्तीश, डॉ. शुक्ला को हत्या का साजिशकर्ता घोषित कर दिया जाता है। आरोप तो यहां तक हैं कि यह सारा खेल सत्ता में बैठे कुछ शीर्ष लोगों के निर्देश पर खेला जाता है ताकि बड़ी मछलियां जाल में न फंस सकें। सीबीआई की तरफ से भी आधिकारिक जानकारी दी जाती है कि डॉ. शुक्ला को हत्या की आपराधिक साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है।

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इतना ही नहीं सीबीआई ने डॉ. शुक्ला के साथ ही उप मुख्य चिकित्सा अधिकारी वाई. एस. सचान को भी आर्य की हत्या की साजिश में गिरफ्तार किया था। कहा तो यहां तक जाता है कि डॉ. सचान के पास एनआरएचएम घोटाले से जुड़े लोगों की पुख्ता जानकारी थी। यदि उनकी जेल में हत्या न की गयी होती तो निश्चित तौर पर कई बड़े नेता सीएमओ आर्या और सीएमओ बीपी सिंह की हत्या मामले में सलाखों के पीछे होते। गौरतलब है कि डॉ. सचान की जेल में 22 जून 2011 को रहस्यमयी परिस्थितियों मे मौत हो गयी थी।

गौरतलब है कि सीएमओ बी.पी. सिंह हत्याकांड की जांच के दौरान सीएमओ ऑफिस में वित्तीय अनियमितताओं की बात सामने आने के बाद डॉक्टर शुक्ला को संयुक्त निदेशक के पद पर (स्वास्थ्य भवन) स्थानान्तरित कर दिया था। इतना ही नहीं श्री शुक्ला के विरुद्ध वित्तीय अनियमितताओं के आरोप में भी वजीरगंज थाने में सात अप्रैल को दिन के 12.30 बजे मामला दर्ज किया गया। यह प्राथमिकी डॉ. राजेन्द्र सिंह (संयुक्त निदेशक, प्रशासन, परिवार कल्याण) ने दर्ज करवायी थी। कहा तो यहां तक जाता है कि प्राथमिकी दर्ज करवाने के लिए शीर्ष स्तर से आदेशित किया गया था।

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डॉ. शुक्ला के खिलाफ दर्ज मामले में कई ऐसी खामियां प्रकाश में आयीं, जिस पर आज तक किसी ने गौर करने की कोशिश नहीं की। या यूं कह लीजिए दबाववश कमियों को नजरअंदाज किया जाता रहा है। कुछ उदाहरण इस तरह से हैं। प्राथमिकी के अंतिम पैरा में कहा गया है कि डॉ. ए.के. शुक्ला, डॉ. वाई.एस. सचान के साथ ही अन्य सीएमओ, कार्यालय के क्लर्क और ठेकेदारों ने मिलकर वित्तीय वर्ष 2010-2011 में 37,69,904 रुपयों का बंदरबांट कर लिया।

प्राथमिकी में भुगतान की जिम्मेदारी संयुक्त रूप से डॉ. शुक्ला और डॉ. सचान की बतायी गयी थी। सच तो यह है कि (स्वास्थ्य महानिदेशालय से प्राप्त जानकारी के अनुसार) डॉ. सचान कभी एनआरएचएम में तैनात ही नहीं रहे। फिर दोनों संयुक्त रूप से भुगतान के जिम्मेदार कैसे हो सकते हैं। सच तो यह है कि डॉ. राजेन्द्र कुमार ने वर्ष 2010 के मध्य में इस योजना में ज्वाइन किया था। सारी फाइनेंशियल पॉवर स्वतंत्र रूप से उन्हीें की थी। इन परिस्थितियों में डॉ. शुक्ला और डॉ. सचान को संयुक्त रूप से भुगतान का दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

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इसी मामले में सीएमओ कार्यालय के एक क्लर्क संजय आनन्द नाम के एक व्यक्ति को भी गिरफ्तार किया गया था। संजय की ओर से माननीय उच्च न्यायालय में जमानत की अर्जी दी गयी थी। संजय आनन्द के साले किशोर कुमार ने कोर्ट में एक शपथ-पत्र दाखिल किया। शपथ-पत्र में संजय आनन्द की ओर से स्पष्ट रूप से कहा गया था कि पुलिस ने जबरन सीएमओ ए.के. शुक्ला का नाम लेने पर विवश किया था। इसी तरह से एक अन्य आरोपी रविन्द्र बहादुर सिंह भी उस वक्त जेल में थे। उनकी पत्नी श्रीमती शिमला सिंह ने भी संजय आनन्द की तर्ज पर शपथ-पत्र में पुलिस के दबाव का उल्लेख किया था।

उपरोक्त उदाहरण से कहीं न कहीं यह आशंका जागृत होती है कि शीर्ष स्तर से डॉ. ए.के. शुक्ला को फंसाने की साजिश रची गयी थी। वे कौन लोग हैं जिन्हें डॉ. शुक्ला को सलाखों के पीछे भेजने में फायदा हो सकता है? यह जांच का विषय हो सकता है लेकिन इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता है कि एनआरएचएम घोटाले और उससे जुड़े चिकित्सकों की हत्या के पीछे किसी ऐसे शख्स अथवा गु्रप का हाथ है जो नहीं चाहता कि सीबीआई के हाथ उसी गर्दन तक पहुंचे।

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घोटाले में गयी आधा दर्जन जानें

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वर्ष 2005 से वर्ष 2011 के बीच गरीब जनता की स्वास्थ्य योजना (एनआरएचएम) में अरबों के घोटाले को अंजाम दिया गया। शायद गरीब जनता की आह ही रही होगी जिस कारण यूपी के इस सबसे बड़े घोटाले (एनआरएचएम) ने आधा दर्जन से भी अधिक महत्वपूर्ण लोगों की जानें ले ली। कहने में कतई संकोच नहीं है कि बहुचर्चित राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में घोटाले के कारण अब तक न जाने कितने गरीब, लाचार मरीज अकाल मृत्यु को प्राप्त हो चुके होंगे। जो लोग इस घोटाले के आरोपी हैं या फिर इस भ्रष्टाचार की सूची में उनका नाम दर्ज हो चुका है, उनके लिए भी जिंदगी महंगी साबित हुई। यह दीगर बात है कि इस घोटाले में जिन लोगों ने मोटी मलाई खाई उनका सलाखों से कोई वास्ता नहीं (बाबू सिंह कुशवाहा को यदि अपवाद मान लिया जाए), जबकि वे अधिकारी से लेकर कर्मचारी तक चपेट में आ गए जिनके हिस्से खुरचन आयी।

इस घोटाले के कहर में होम होने वालों में सीएमओ, डिप्टी सीएमओ समेत कई अधिकारी और कर्मचारी शामिल हैं। अब तक इस मामले में चार वरिष्ठ अधिकारियों समेत 7 लोगों की मौत हो चुकी है। इनमें दो सीएमओ, दो डिप्टी सीएमओ, एक वरिष्ठ क्लर्क और एक परियोजना निदेशक शामिल हैं। इस घोटाले से जुड़े लोगों में से पहली मौत सीएमओ परिवार कल्याण डॉ. विनोद आर्य की हुई। उन्हें उनके आवास पर ही (27 अक्टूबर 2010) गोली मार दी गयी थी। इसके बाद सीएमओ परिवार कल्याण डॉ. बीपी सिंह शिकार बने। उन्हें भी बदमाशों ने राजधानी लखनऊ स्थित उनके आवास के पास अप्रैल 2011 में गोली मार कर हत्या कर दी थी।

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इस हत्याकांड में सीएमओ वाई.एस. सचान और ए.के. शुक्ला का नाम सामने आया था। इसके बाद ही डिप्टी सीएमओ डॉ. वाई.एस. सचान भी शिकार बने। उनकी लखनऊ जिला कारागार में 22 जून 2011 में संदिग्ध हालात में मौत हो गई थी। घटनास्थल से मिले सुबूत और न्यायिक जांच रिपोर्ट के बावजूद उनकी रहस्यमयी मौत पर से पर्दा नहीं उठ सका जबकि डॉ. सचान के परिजन कहते रहे कि उन्होंने आत्महत्या नहीं बल्कि उनकी हत्या की गयी है। अदालत ने तो सीबीआई की क्लोजर रिपोर्ट से नाइत्तेफाकी रखते हुए दोबारा तफ्तीश करने का निर्देश दिया था।

अगले ही वर्ष 23 जनवरी 2012 को एनआरएचएम के परियोजना प्रबंधक सुनील वर्मा की लखनऊ स्थित आवास में गोली लगने से मौत हो गई। इस मामले में भी स्थानीय पुलिस हत्या को आत्महत्या में तब्दील करने से बाज नहीं आयी। 15 फरवरी 2012 को डिप्टी सीएमओ शैलेश यादव की वाराणसी में मार्ग दुर्घटना में मौत हो गयी। परिवार वाले दुर्घटना को हत्या बताते रहे लेकिन पुलिस की संदिग्ध भूमिका ने उनके इरादों पर पानी फेर दिया। घोटाले के सर्वज्ञाता समझे जाने वाले वरिष्ठ लिपिक महेंद्र शर्मा की खीरी के एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में मौत हो गई। उनका शव कई दिनों बाद सड़ी अवस्थ में मिला था।

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उपरोक्त कवर स्टोरी अनूप गुप्ता के संपादकत्व में लखनऊ से प्रकाशित चर्चित मैग्जीन ‘दृष्टांत’ में छपी है, वहीं से साभार लेकर भड़ास पर प्रकाशित किया गया है.

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