भड़ुआगिरी करनी है तो अखबार में नहीं कोठे पर करो… : मजीठिया मांगने पर अभी तक दैनिक जागरण व राष्ट्रीय सहारा में बर्खास्तगी का खेल चल रहा था अब यह खेल हिन्दुस्तान में शुरू हो गया है। इस खेल में मालिकों से ज्यादा भूमिका निभा रहे हैं वे संपादक जो बड़ी-बड़ी बातें करते हैं और लिखते हैं। कमजोरों की लड़ाई लड़ने का दावा करने वाले ये लोग कितने गिरे हुए हैं, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिन कनिष्ठों के बल पर इन लोगों न केवल मोटी कमाई की बल्कि नाम भी रोशन किया अब ये लोग न केवल उनका उत्पीड़न कर रहे हैं बल्कि नौकरी तक से भी निकाल दे रहे हैं। किसके लिए ? मालिकों का मुनाफा व इनकी दलाली कम न हो जाए। आपके कनिष्ठों के बच्चे भले ही भूखे मर जाएं पर आप और आपके मालिकों की अय्याशी में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। मीडिया की हालत देखकर मुझे बहुत तल्ख टिप्पणी करनी पड़ रही है। मजबूर हूं। अरे यदि भड़ु्रआगिरी ही करनी है तो किसी वैश्या के कोठे पर जाकर करो। कम से कम मुहर तो लगी रहेगी।
पेशा पकड़ रखा है देश व समाज सेवा का और काम कर रहे हो देश व समाज के दुश्मनों का। यदि आप लोग मीडियाकर्मियों की लड़ाई नहीं लड़ सकते हो तो उनका उत्पीड़न तो मत करो। मैं पूछता हूं कि इन संपादकों से आप लोगों में से ऐसे कितने संपादक हैं, जिनकी नौकरी चली जाएगी तो उनके बच्चे भूखे मर जाएंगे। अरे बहुत मार लिया अपने कनिष्ठों का हक। अब यदि मीडियाकर्मियों के हक में क्रांति का माहौल बना है तो इस महायज्ञ आहुति नहीं देनी है तो मत दीजिए पर पानी तो मत डालिए। मैं इन अधिकारियों के बीबी-बच्चों व रिश्तेदारों से भी पूछता हूं, क्या आप लोगों का भी जमीर नहीं जाग रहा है? आपको पता इन संपादकों की वजह से कितने घर बर्बाद हो रहे हैं? पीड़ितों की आह से निकली कमाई से अपने बच्चों का भविष्य कैसे संवारोगे। यह कितना बड़ा धोखा है कि अखबारों में इन संपादकों के लेख पढ़कर कितने लोग इनसे कितनी उम्मीदें लगाते होंगे। ये लोग अपने लेख में तो बड़ी-बड़ी बातें लिखते हैं पर इनकी सोच बहुत छोटी है। देश की सर्वोच्च संस्था सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद पीड़ित शोषित मीडियाकर्मियों को मजीठिया वेतनमान देने को तैयार नहीं। जो मांग रहे हैं उन्हें बर्खास्त कर दे रहे हैं।
राष्ट्रीय सहारा में मजीठिया तो मिला ही नहीं, साथ ही 12 -15 महीने की सेलरी बकाया है। कुछ साथियों ने हिम्मत कर हक की आवाज उठाई तो कुछ गद्दार कर्मियों की वजह से उन्हें संस्था से बाहर होना पड़ा। ये लोग यह भूल रहे हैं कि उन आंदोलनकारियों की वजह से ही वातानुकूलित आफिस में काम कर रहे इन कर्मियों को कई महीने से नियमित रूप से वेतन मिल रहा है। जो वेतन आधा मिलने लगा था वह पूरा इन लोगों ने कराया। तमाशबीन कर्मियों को यह समझना होगा कि मीडिया में अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद हो चुकी है। चिंगारी रूपी यह आवाज जब आग बनेगी इसकी चपेट में कौन-कौन आएगा यह तो समय ही बताएगा पर सुप्रीम कोर्ट ने एक समय दिया है जिसका हम लोग फायदा उठाएं।
मैं उन साथियों से कहता हूं जो बंधुआ मजदूरों की तरह सिर नीचे कर चुपचाप काम कर रहे हैं। भाईयों जो लड़ता है वह पाता है। मजीठिया भी उन्हें ही मिलेगा जो लड़ेगा ? जो बर्खास्त साथी मजीठिया की लड़ाई लड़ रहे हैं वे तो अप हक पा ही लेंगे पर आप लोग उनसे कैसे निगाह मिला पाओगे? सुप्रीम कोर्ट का आदेश है तो डरना क्या ? हर लड़ाई में थोड़ी बहुत परेशानी तो पड़ती ही है। मेरा अनुभव रहा है कि सच्चाई की लड़ाई लड़ने वाले को भगवान ऐसी ताकत दे देता है, जिसके बल पर वह सभी बाधाओं को पार कर लेता है। जरा सोचो जो साथी मजीठिया की लड़ाई लड़ रहे वे बेरोजगार हैं, तब भी लड़ भी रहे हैं। अपने बच्चे भी पाल रहे हैं और तरह-तरह की परेशानियों से भी जूझ रहे हैं। तो हम लोग आज से ही संकल्प लें कि दूसरों की लड़ाई लड़ने दंभ भरने वाले हम मीडियाकर्मी अब अपनी लड़ाई भी लड़ेंगे।
चरण सिंह राजपूत
वरिष्ठ पत्रकार
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रामायण
October 2, 2016 at 4:56 pm
अब पत्रकारों की कौम भड़ुआ कौम हो गयी है. संपादक भी इसी श्रेणी में आते हैं. दूसरों के लिए तमाम तरह की सिद्धांत की सीखें देते हैं. पर अपने कौम की हितों की बातें आती है तो ए हिजरे हो जाते हैं. कुछ संपादक तो अपने कनिष्ठ के लिए ठग का काम करते हैं. वो आपको मजीठिया कहाँ दिलायेंगे. कुर्सी का डर है. झूठे भरोसा देते है. अरे भाई , ए सोशल मीडिया का जमाना है. कभी न कभी तो चेहरा उजागर होगा ही.