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सियासत

एक तरफ ‘मेक इन इंडिया’ का नारा, दूसरी तरफ छंटनी से लेकर मंदी तक की परिघटनाएं

कांग्रेस की श्रम विरोधी व कारपोरेट परस्त नीतियों से त्रस्त जनता को मोदी सरकार के ‘मेक इन इंडिया‘ और ‘कौशल विकास‘ के नारे से बहुत उम्मीद जगी थी। परन्तु आशा की यह किरण धुंधली पड़ने लगी है। उद्योगों  के निराशाजनक व्यवहार को साबित करते हुये देश की दूसरे नम्बर की ट्रैक्टर बनाने वाली कम्पनी ने अपने संयत्रों से 5 प्रतिशत कर्मचारियों की छंटनी कर दी है। गनीमत यह रही कि एक प्रतिष्ठित दक्षिण भारतीय महिला की छत्रछाया में चलने वाले इस औद्योगिक समूह से निकाले जाने वाले कर्मियों के प्रति संवेदना दिखाते हुये प्रबन्धन ने उन्हें पहले से ही सूचना देने के साथ साथ न केवल तीन माह का ग्रोस वेतन दिया। बल्कि छंटनी ग्रस्त कर्मियों के लिये एक सुप्रसिद्व जॉब कन्सलटेंट की सेवायें दिलवाकर उन्हें दूसरी कम्पनियों में नौकरी दिलवाने की भी कोशिश की। 

<p>कांग्रेस की श्रम विरोधी व कारपोरेट परस्त नीतियों से त्रस्त जनता को मोदी सरकार के ‘मेक इन इंडिया‘ और ‘कौशल विकास‘ के नारे से बहुत उम्मीद जगी थी। परन्तु आशा की यह किरण धुंधली पड़ने लगी है। उद्योगों  के निराशाजनक व्यवहार को साबित करते हुये देश की दूसरे नम्बर की ट्रैक्टर बनाने वाली कम्पनी ने अपने संयत्रों से 5 प्रतिशत कर्मचारियों की छंटनी कर दी है। गनीमत यह रही कि एक प्रतिष्ठित दक्षिण भारतीय महिला की छत्रछाया में चलने वाले इस औद्योगिक समूह से निकाले जाने वाले कर्मियों के प्रति संवेदना दिखाते हुये प्रबन्धन ने उन्हें पहले से ही सूचना देने के साथ साथ न केवल तीन माह का ग्रोस वेतन दिया। बल्कि छंटनी ग्रस्त कर्मियों के लिये एक सुप्रसिद्व जॉब कन्सलटेंट की सेवायें दिलवाकर उन्हें दूसरी कम्पनियों में नौकरी दिलवाने की भी कोशिश की। </p>

कांग्रेस की श्रम विरोधी व कारपोरेट परस्त नीतियों से त्रस्त जनता को मोदी सरकार के ‘मेक इन इंडिया‘ और ‘कौशल विकास‘ के नारे से बहुत उम्मीद जगी थी। परन्तु आशा की यह किरण धुंधली पड़ने लगी है। उद्योगों  के निराशाजनक व्यवहार को साबित करते हुये देश की दूसरे नम्बर की ट्रैक्टर बनाने वाली कम्पनी ने अपने संयत्रों से 5 प्रतिशत कर्मचारियों की छंटनी कर दी है। गनीमत यह रही कि एक प्रतिष्ठित दक्षिण भारतीय महिला की छत्रछाया में चलने वाले इस औद्योगिक समूह से निकाले जाने वाले कर्मियों के प्रति संवेदना दिखाते हुये प्रबन्धन ने उन्हें पहले से ही सूचना देने के साथ साथ न केवल तीन माह का ग्रोस वेतन दिया। बल्कि छंटनी ग्रस्त कर्मियों के लिये एक सुप्रसिद्व जॉब कन्सलटेंट की सेवायें दिलवाकर उन्हें दूसरी कम्पनियों में नौकरी दिलवाने की भी कोशिश की। 

वहीं दूसरी और दिल्ली आधारित आटोमोटिव कलपुर्जे  बनाने व लगभग 16990 करोड़ टर्नआवर एवं हजारों कर्मचारियों की मदद से चलने वाली एक नामी कम्पनी अपने प्रमुख संयत्रों से 20 प्रतिशत स्थाई व 10 प्रतिशत अस्थाई कर्मियों को बाहर करने का लक्ष्य पूरा करने के करीब है। कम्पनी के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के हरियाणा, राजस्थान सहित पूरे देश स्थित बहुत से संयत्रों से अभियन्ताओं, प्रबन्धकों व अन्य कर्मियों को सड़क पर खड़ा कर दिया गया है। इसी कम्पनी में 7 वर्ष से कार्यरत व अपने काम में पूणतया दक्ष हरियाणा के एक इंजीनियर जिनको एक दिन दिल्ली स्थित कार्यालय बुलाकर त्यागपत्र लिया गया।

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वे कहते हैं सरकार अकुशल नौजवानों को कुशलता का प्रक्षिक्षण देने के लिये (स्किल डवेलपमेन्ट) कौशल विकास के तहत करोड़ों रूपये खर्च करके रोजगार दिलाने की बात करती है। परन्तु जो इंजीनियर, कामगार पहले से ही अपने खर्चे पर डिग्री, डिप्लोमा लेकर कुशलता प्राप्त कर देश के निर्माण में लगे हुये हैं। अगर उन्हें इस तरीके से बाहर किया जा रहा है। तो सरकार के नये युवकों को कुशल बनाने के ‘कौशल विकास‘ के नारे पर कौन विश्वास करेगा?

नई दिल्ली की जामिया मिलिया इस्लामिया से इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री लेकर 15 वर्षों से इसी कम्पनी में कार्यरत एक दूसरे शख्स के मुताबिक उदारीकरण व वैश्वीकरण की नीतियों के चलते विकास व तकनीक के गुब्बारे ने मानवीय मूल्यों को धराशायी कर दिया। कभी अच्छी कम्पनियों में कार्यरत कर्मियों के 10 या 15 साल का कार्यकाल पूरा होने पर चेयरमैन अपने हाथों से ‘लम्बी अवधि पुरस्कार‘ देता था। आज मुझे 15 वर्षों की सेवा के वदले पहले से ही लिखित त्यागपत्र पर हस्ताक्षर करने के लिये 15 मिन्ट का भी समय नहीं दिया गया। क्या भारतीय संस्कृति का दम भरने वाली सरकार की छत्रछाया में कारपोरेट को ‘यूज़ एण्ड थ्रो‘ (इस्तेमाल करो व फेंको) जैसी पश्चिमी अवधारणा को अपनाने की खुली छूट मिल चुकी है?

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क्या विगत 20 वर्षों में मात्र कुछ करोड़ से लगभग 16990 करोड़ की टर्नआवर पर पहुंची इस कम्पनी को मोदी सरकार की असहयोग की नीतियों के चलते ऐसा कदम उठाना पड़ा या कांग्रेस के शासन में ऐसी कम्पनियां गलत ढंग से विकसित हुई, जिसे वर्तमान सरकार की दूरगामी व खराब कम्पनियों पर लगाम कसने की नीति के परिणाम स्वरूप यह सव हुआ? या इसका कारण केवल आर्थिक मन्दी है? यह बहस का विषय हो सकता है। 

एक प्रमुख आर्थिक अखबार के मार्च 2015 के एक अंक के अनुसार इस कम्पनी द्वारा जर्मनी की एक कम्पनी को 175 मिलियन यूरो (लगभग 1200 करोड़ रू) में खरीदने की योजना थी। भारतीय मूल की इस कम्पनी के वैश्विक मुखिया जोकि एक विदेशी है, ने इस अधिग्रहण की पुष्टि समूह की वेबसाईट पर 22 मई को जारी प्रेस रिलीज में की । यद्यपि इस में अधिग्रहण की राशि का जिक्र नहीं किया गया। तो क्या कम्पनी भारतीय संयत्रों को आंशिक रूप में ही चलाकर विदेश में पैसा लगा रही है ? अर्थात कम्पनी  ‘मेक इन इंडिया‘ की अपेक्षा ‘मेक इन जर्मनी‘ के नारे में ज्यादा विश्वास करती है ? 

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सड़क पर आ चुके कुशल व शिक्षित कर्मचारी क्या इसे अच्छे दिनों का आगमन मान रहे हैं। कुछेक के अनुसार टेलिवजन चैनल व मीडिया कुछ भी कहें। परन्तु उनके 15-20 वर्ष के कैरियर में शायद यह सबसे बुरे दिन हैं। मोदी सरकार की ‘बीमा सुरक्षा योजना‘, ‘अटल पेंशन योजना‘ व ‘स्वच्छ भारत अभियान‘ निश्चित रूप से सराहनीय कदम हैं। पड़ोसी देशों के साथ कूटनीतिक रिश्तों व आंतकवाद के विरूद्व अगर पूर्णरूपेण नहीं तो कम से कम पुरानी सरकार की अपेक्षा सरकार का प्रर्दशन कहीं बेहतर है।  परन्तु एक और जहां सरकार 7.5 प्रतिशत विकास दर बताकर विदेशों में भारत को एक उभरती अर्थव्यवस्था के रूप में पेश कर रही है। वहीं देश के आर्थिक विकास की रीढ़ माने जाने वाले नामी उद्योगों में कार्यरत शिक्षित कर्मियों की ऐसी बदहाली के क्या संकेत माने जाने चाहिये ? यह कटु सत्य है कि वर्तमान व्यवस्था व अधिकांश मीडिया कारपोरेट व शोषक वर्ग के पक्ष में होने के कारण ऐसी घटनाएं आमजन तक कम ही पहुंचती हैं। परन्तु अगर यही क्रम छुपते छुपाते भी चलता रहा तो इसका परिणाम अंततः उद्योगपतियों, मानव संसाधन, सत्ता व देश किसी के भी हित में नहीं होगा। 

लेखक संजीव सिंह ठाकुर से संपर्क : [email protected]

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