कुल मिलाकर, लगता है कि यह साबित किया जा सकता था कि भाजपा ने जानबूझकर प्रतिबंध का उल्लंघन किया। गोपाल राय ने यही आरोप लगाया है और यह निराधार नहीं होगा। वैसे भी आतिशबाजी हुई ही। साकेत गोखले ने उसी समय एक्स पर लिख दिया था। और तब आज की खबर का शीर्षक होना चाहिये था, भाजपा को एक दिन के प्रदूषण की चिन्ता नहीं, इस कारण सुप्रीम कोर्ट के प्रतिबंध का उल्लंघन किया गया। वैसे भी, धर्म विशेष के लोगों के (धार्मिक) अधिकारों की रक्षा उसका काम है और जो हालात उसने बनाये हैं उसमें यह सब नहीं करे तो चुनाव जीतना मुश्किल हो जायेगा और वैसे ही मुश्किल लग रहा है तो यह सब होना ही था। लेकिन मीडिया? इमरजेंसी का विरोध करने वाला इंडियन एक्सप्रेस?
संजय कुमार सिंह
इंडियन एक्सप्रेस में आज पहले पन्ने पर लीड से ऊपर, टॉप पर, तीन कॉलम की फोटो के साथ एक खबर का शीर्षक है, पटाखों पर प्रतिबंध का उल्लंघन, दीवाली के अगले दिन हवा की गुणवत्ता और खराब हुई, इससे आप-भाजपा में आरोप लगाने का खेल शुरू हो गया। दिल्ली का प्रदूषण आज टाइम्स ऑफ इंडिया में भी लीड है। शीर्षक है, दीवाली पर दिल्ली में खूब मजे हुए सो एक्यूआई बढ़कर ‘तकलीफदेह’ हुई। हिन्दुस्तान टाइम्स में भी यह खबर लीड है और शीर्षक प्रतिबंध के उल्लंघन पर है। इसी को प्रदूषण का कारण बताया गया है। शीर्षक का हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह होगा, “दिल्ली का गला घोंटना जारी है क्योंकि आतिशबाजी पर प्रतिबंध का उल्लंघन हुआ”। यहां प्रदूषण से संबंधित एक और खबर साथ ही है, “दीवाली की रात एक्यूआई आंकड़ों से आगे: पीएम 2.5 के घातक स्तर तक पहुंचा।“
शीर्षक से खबर की प्रस्तुति और दी जा रही प्राथमिकता को समझा जा सकता है। दूसरी ओर, मेरा मानना है कि दिल्ली की जनता अगर खुद प्रदूषण बढ़ाकर आत्महत्या करने पर आमादा हो जाये तो भी सरकार का काम है कि वह इसे रोके। इसलिए भी कि इसमें जबरदस्ती तो नहीं है, जो ऐसे नहीं मरना चाहते हैं उनकी इच्छा का सम्मान हो आदि आदि। आत्महत्या वैसे भी कानूनन गलत है। ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता है कि सरकार क्या करे या क्या कर सकती है। सरकार का काम है कि जनता और जान-माल की रक्षा करे। उसे इसीलिए चुना जाता है वह अपने समर्थकों के साथ मिलकर न तो विरोधियों पर अत्याचार कर सकती है और ना उन्हें मरने के लिए छोड़ सकती है। इसलिए सरकार कुछ नहीं कर सकती है या उसकी कोई भूमिका नहीं है, यह सरकार का बचाव नहीं है। समर्थकों को समझना चाहिये।
इसलिए मैं बता चुका हूं कि जन स्वास्थ्य की दृष्टि से यह समस्या कितनी गंभीर है। जनहित में इसे कम या ठीक किया जाना जरूरी है और अगर यह मान भी लिया जाये कि जनता खुद अपना नुकसान उठाकर आतिशबाजी चला रही है और नेता राजनीति में लगे हुए हैं तो मेरा मानना है कि ऐसे समय में जो राजनीति में नहीं है उसका काम है कि जनहित में लोगों को शिक्षित किया जाये। इसके नुकसान बताये जायें और इस समस्या से निपटने का सामूहिक हल ढूंढ़ जाये। निश्चित रूप से इसमें मीडिया की बड़ी भूमिका है और इंडियन एक्सप्रेस की यह खबर राजनीति से भरी हुई है। अदालत के प्रतिबंध के बावजूद आतिशबाजी हुई तो वह नाकाम रहा जिसे रोकना था। दोषी वो हैं जिन्हें रोकना था या जिन्होंने आतिशबाजी की। तृणमूल पार्टी के सांसद और प्रवक्ता साकेत गोखले ने लिखा है कि आतिशबाजी चलाने वालों में उनके पड़ोसी भाजपा के सांसद और मंत्री थे। उन्होंने पुलिस से पूछा है कि आतिशबाजी रोकने के लिए क्या किया गया और कितने पटाखे पकड़े गये आदि।
अखबारों का काम था कि पुलिस से यह सवाल पूछकर उसका जवाब बताते। लेकिन इंडियन एक्सप्रेस के पहले पन्ने की खबर में ऐसा कुछ नहीं है और आरोप लगाने के खेल को महत्व दिया गया है। कहने की जरूरत नहीं है कि नेता एक दूसरे पर आरोप लगा रहे होंगे पर उसने (पहले पन्ने पर) यह नहीं कहा है कि पुलिस ने कार्रवाई नहीं की या क्यों नहीं की या जो की उसके बावजूद आतिशबाजी नहीं रोकी गई। टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपनी मूल खबर के साथ सिंगल कॉलम में एक खबर छापी है। इसका शीर्षक है, ‘पटाखों पर प्रतिबंध नाकाम रहा, पार्टियों ने एक दूसरे की ओर उंगली दिखाई’। खबर के अनुसार दिल्ली के पर्यावरण मंत्री गोपाल राय ने कहा है कि भाजपा नेताओं के आदेश पर यह सब, कुछ जगहों पर एक लक्ष्य पूरा करने की शैली में किया गया तथा पटाखे (डबल इंजन वाले) उत्तर प्रदेश से आये। खबर के अनुसार, भाजपा ने कहा कि केजरीवाल सरकार सर्दियों की समस्या को आतिशबाजी की एक रात के लिए दोषी ठहराने की कोशिश करती है।
मैं नहीं जानता कि भाजपा की ओर से क्या सब कहा गया और जो छपा है उसके अलावा और कुछ है कि नहीं। लेकिन जो छपा है उससे साफ है कि भाजपा आतिशबाजी रोकने को तो महत्व नहीं ही दे रही है (सुप्रीम कोर्ट के प्रतिबंध के बावजूद) और मानती है कि एक दिन का प्रदूषण चिन्ता की बात नहीं है (बाकी सब पंजाब में पराली जलाने से होता है। उसपर मैं कल लिख चुका हूं)। तथ्य यह नहीं है। मैंने कल भी लिखा है कि दीवाली के दिन एक्यूआई 999 पर पहुंच गया था और तीन अंकों में एक्यूआई बताने वाली मशीन इससे ज्यादा नहीं बताती है। वैसे भी 287 को दुनिया में सबसे खराब माना गया है। कहने की जरूरत नहीं है कि एक दिन का प्रदूषण भी कम नहीं है और दीवाली के कारण जिन्हें यह पसंद हो उनकी बात छोड़ दी जाये तो बाकी के लिए सरकार के क्या उपाय हैं? और यह सब नहीं बताना अखबारों के लिए कितना नैतिक है?
कुल मिलाकर, लगता है कि यह साबित किया जा सकता था कि भाजपा ने जानबूझकर प्रतिबंध का उल्लंघन किया। गोपाल राय ने यही आरोप लगाया है और यह निराधार नहीं होगा। वैसे भी आतिशबाजी हुई ही। साकेत गोखले ने उसी समय एक्स पर लिख दिया था। और तब आज की खबर का शीर्षक होना चाहिये था, भाजपा को एक दिन के प्रदूषण की चिन्ता नहीं, इस कारण सुप्रीम कोर्ट के प्रतिबंध का उल्लंघन किया गया। वैसे भी, धर्म विशेष के लोगों के (धार्मिक) अधिकारों की रक्षा उसका काम है और जो हालात उसने बनाये हें उसमें यह सब नहीं करे तो चुनाव जीतना मुश्किल हो जायेगा और वैसे ही मुश्किल लग रहा है तो यह सब होना ही था। लेकिन मीडिया? इमरजेंसी का विरोध करने वाला इंडियन एक्सप्रेस?
यह इसलिए भी जरूरी था कि मौजूदा समय में जब भिन्न संस्थाओं को कमजोर किया गया है तो सुप्रीम कोर्ट को भी कमजोर किया जा रहा है। उसके आदेश लागू नहीं होने का एक मतलब तो यही है और इसकी वजह से लोग सुप्रीम कोर्ट पर व्यंग कर रहे हैं, अदालत के आदेश के बिना व्यंग करने वालों पर भी कार्रवाई नहीं हो रही है और संभावना है कि ऐसे व्यंग का दबाव जजों पर पड़ेगा और उसका असर उनके फैसलों पर पड़ेगा। इसलिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश को लागू नहीं कराने के अपने मतलब है, प्रदूषण की समस्या तो जो है सो है ही और उससे निपटना कितना जरूरी है यह जिन लोगों को समझ में नहीं आ रहा है उन्हें बताना भी एक महत्वपूर्ण काम है। वह भी सरकार को ही करना-कराना है।
स्थिति यह है कि दिल्ली के प्रदूषण की बात कीजिये तो कुछ सरकार समर्थक कहने लगते हैं कि प्रदूषण कहां नहीं है। व्हाट्सऐप्प पर कई संदेश आते हैं जो भिन्न आधार पर, भिन्न वर्गों में बांटे गये शहरों का नाम बताते हैं और कहते हैं कि प्रदूषण यहां भी है औऱ इसमें दिल्ली नहीं है। या प्रदूषण तो इन छोटे शहरों में भी है, दिल्ली में है तो कौन सी बड़ी बात है और इस तरह की दूसरी बातें। वास्तविकता यह है कि द हिन्दू की एक खबर के अनुसार, भारत के तीन शहर दूनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में हैं। 287 के एयर क्वालिटी इंडेक्स (एक्यूआई) के साथ दिल्ली दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में है। दूसरे दो शहर मुंबई और कोलकाता हैं। यह सर्वेक्षण स्विस, फर्म आईक्यू एयर ने करवाया है।
कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार और उसके समर्थक उन सर्वेक्षणों को नहीं मानते हैं जिनमें सरकार की आलोचना होती है। प्रशंसा कहीं भी हो, कोई भी करे तो ढोल-नगाड़े के साथ बतायेंगे। वैसे यह अलग मुद्दा है। तथ्य यह है कि प्रदूषण कहीं भी हो, वहां की आबादी के लिए नुकसानेह है। उसका एक स्वीकार्य स्तर है और उससे ज्यादा होना चिन्ता की बात है। इसपर नजर इसीलिए रखा जाता है कि समय पर सुधार के आवश्यक उपाय किये जा सकें और वह नहीं हो रहा है। इसके लिए सरकार की आलोचना करने की बजाय दूसरों शहरों की आड़ में दिल्ली के प्रदूषण को कम महत्वपूर्ण बताने या ऐसी दूसरी कोशिश चल रही है। दिल्ली में अगर आबादी का घनत्व ज्यादा है तो यहां ज्यादा लोगों का नुकसान होगा और अगर कहीं प्रदूषण ज्यादा है, आबादी का घनत्व कम है तो नुकसान कम लोगों को होगा। अध्ययन का मकसद यही सब होगा लेकिन उसका उपयोग प्रदूषण के पक्ष में किया जा रहा है।