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सुख-दुख

दिलीप मंडल लिख रहे हैं अपनी आत्मकथा… ‘तुम मंडल कमीशन वाले मंडल की ही जाति के हो न?’

दिलीप मंडल-

1990 में नौकरी में ज्वाइन करने के एक हफ़्ते के अंदर मेरे सीनियर ने मुझसे मेरी जाति पर सवाल कर दिया – “तुम मंडल कमीशन वाले मंडल की ही जाति के हो न? सारा बवाल मंडल के कारण ही हो रहा है।”

ये सवाल ऑफिस में मेरे सामने कई बार आया। ये टाइम्स ऑफ इंडिया बिल्डिंग, दिल्ली में हुआ। मेरी उम्र तब सिर्फ़ 22 साल थी।

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बाहर मंडल कमीशन विरोधी आंदोलन में दिल्ली जल रही थी। कई मौतें हुईं थीं। आत्मदाह हो रहे थे। ऑफिस गेट पर बसें जल रही थीं। मैं डर गया। बाहर मैं सरनेम छिपा सकता था। ऑफिस में ये सबको पता था।

आज की तरह तब भी मीडिया में सवर्ण ही ज़्यादा होते थे। वहाँ SC, ST, ओबीसी दो या तीन ही थे। वे भी पहचान छिपाकर थे। इसलिए उनसे कोई सपोर्ट मिलना नहीं था। मेरी कटेगरी तो मेरे नाम में चिपकी थी। छिपने का कोई रास्ता नहीं था।

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यू समझिए कि शेरों के बीच एक नन्हीं जान! कुछ भले लोग भी थे।

पीछे मेरा परिवार प्रभावशाली था। पर दिल्ली आकर मेरा पूरा वजूद हिल गया। मुझे यही बताया गया था कि जाति गाँवों-क़स्बों की चीज है। यहाँ मुझे हटाने की कोशिश की गई।

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पर एडिटर सुरेंद्र प्रताप सिंह जैसे अभिभावक में मुझे सँभाल लिया। तो करियर बच गया।

जाति जितनी गाँव में है, उससे कम शहरों, कॉरपोरेट सेक्टर और अपार्टमेंट में नहीं है।

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(ये प्रसंग मेरी भावी आत्मकथा में विस्तार से होगा। ख़रीदना न भूलें)

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1 Comment

1 Comment

  1. अशोक कुमार शर्मा

    May 1, 2023 at 11:24 pm

    दिलीप भाई मंडल जी का जब जिक्र आए तो पाकिस्तान में उनके साथ भेदभाव, दुर्व्यवहार और उनके भारत लौटने का किस्सा जरूर लिखियेगा।

    1981 में लिखी अपनी एक कविता की कुछ पंक्तियां आज याद आ गई:

    लेखक अछूत है
    चाहता है फूंक दे
    धन्ना सेठों और
    स्वयंभू सवर्णों की
    ये दुनिया
    मगर मजबूर है
    ताकत कहां है
    कलम में इतनी
    कागज तक
    जला नहीं पाती

    लेखक अछूत है
    जिसकी
    क्षमताओं, आकांक्षाओं
    और सपनों के साथ
    होता आया है
    सदा ही बलात्कार
    शोषण के सौदे में
    लेखक ही बेचा गया है
    हर बार

    आपकी किताब बेशक बहुत अच्छी होगी उसका इंतजार रहेगा। शुभकामनाएं।

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