Shivendra Kumar Singh-
उम्र में कुछ बड़े, आदतों में कुछ छोटे और दोस्ती निभाने में बराबर के साथी प्रशांत त्यागी चले गए।
साल 2003 की बात है। भारतीय टीम दक्षिण अफ़्रीका में वर्ल्ड कप खेलने गई थी। यही वो वक्त था जब विनोद जी (विनोद कापड़ी सर) ने कहा तुम्हारी स्क्रिप्ट ठीक होती है तुम वर्ल्ड कप डेस्क पर काम कर लो। Sanjay Pandey सर उस डेस्क को हेड कर रहे थे। मैं उस डेस्क पर काम करने लगा।
Anurag Tomer और Sanjay Kishore सर टूर्नामेंट कवर करने गए थे। भारतीय टेलीविजन के इतिहास में यहीं से स्पोर्ट्स कवरेज को प्रमुखता भी मिली थी। खैर ये वो दौर था जब वी ट्रांसफ़र और सेंड स्पेस जैसी तमाम सुविधाएँ नहीं थीं जो शूट किया है उसको भेजने के लिए बुकिंग करानी होती थी। सौदा मंहगा था। अगर ग़लत नहीं हूँ तो उस समय दस मिनट के विजुअल्स मंगाने के लिए पच्चीस तीस हज़ार रुपये खर्च करने पड़ते थे।
विनोद जी का आदेश था कि दस मिनट की जो फ़ुटेज (विजुअल) आ रहे हैं उसका पूरा इस्तेमाल होना चाहिए। स्क्रिप्टिंग कम करो विजुअल पूरे दिखाओ। हम इसी आदेश को फ़ॉलो करते थे। हम यानि मैं और अनिमेष चौधरी तो हुआ यूँ कि एक रोज दक्षिण अफ़्रीका से फ़ुटेज (विजुअल) देरी से आए। हम भागकर एडिट कराने पहुँचे। एडिटर मिले प्रशांत त्यागी। कुछ ही दिन पहले उन्होंने जी न्यूज ज्वॉइन किया था। मामला बहुत तकनीकी हो जाएगा फिर भी समझा दें कि उन्होंने एडिट मशीन पर जल्दी जल्दी में एक प्वाइंट ग़लत लगा दिया जिसकी वजह से एडिट की हुई स्टोरी को दोबारा एडिट करना पड़ा। मैं और अनिमेष ग़ुस्साहो गए। हमें लगा कि किस नौसिखिए एडिटर से पाला पड़ गया है। हमने उन्हें भला बुरा भी कह दिया। खैर स्टोरी समय से ऑन एयर चली गई।
इसके कुछ दिन बाद एक एडिटर दोस्त ने बताया – अबे वो प्रशांत त्यागी है। शानदार एडिटर है। पुराना आदमी है। काबिल है। हम फ़ौरन टोन डाउन हुए। हमने प्रशांत को प्रशांत समझना शुरू किया। इसके बाद उनकी तेज़ी और समझदारी ने हमें उनका क़ायल बना दिया। ये कहना गलत नहीं है कि कुछ ही महीने में उस इंसान ने हमें अपना ग़ुलाम बना लिया। हम जब फँसते सबसे पहले प्रशांत के पास भागते। हेडलाइन चाहिए, कमिंग अप नहीं एडिट हुआ है, एडिट सॉफ़्टवेयर का सर्वर डाउन हो गया है, स्पेशल प्रोग्राम जाना है… जब भी ऐसी किसी चुनौती में फँसे प्रशांत ने बेड़ा पार कराया।
2007 में मैंने जी न्यूज़ छोड़ दिया था। उसके बाद भी प्रशांत से रिश्ता बना रहा। वो इस इंडस्ट्री के उन चंद लोगों में था जो दोस्तों की कामयाबी पर खुश होता था। चार महीने पहले प्रशांत की माँ की तेरहवीं पर मैं गया था। प्रशांत काफ़ी कमजोर दिख रहे थे। मैंने पूछा भी कि क्या हुआ तो बोले- कुछ भी नहीं। अपने पिताजी के अकेलेपन पर बात करते रहे। आज प्रशांत के पिता जी ने कंधे पर हाथ रखकर कहा – मैंने उसे सिर्फ़ तीन चीजें सिखाईं थीं – वफ़ादारी, काम से ईमानदारी और दोस्तों का साथ देना।
प्रशांत भाई आप बहुत जल्दी चले गए लेकिन ये तीनों काम आपने बहुत बेहतर तरीक़े से किया।
मेरे लिए तो अब भी टाइगर ज़िंदा है और वो हमेशा ज़िंदा रहेगा