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सुख-दुख

माननीय मच्छर महोदय मरजीवड़े!

यशवंत सिंह-

माननीय मच्छर महोदयों के नाम आज की रात रही। मौसम हल्का सा ठंढा क्या हुआ, मरजीवड़े मासकीटोज ने धावा बोल दिया। दो तीन घंटे ही सो पाया। एक बार नींद टूटी तो सोने के सारे प्रयोजन बेकार साबित हुए।

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अब साढ़े पाँच बज गया है तो मान लिया सुबह हो गई। हालाँकि मेरी सुबह नौ दस बजे के क़रीब होती है। सोना मेरे सबसे प्रिय कामों में से एक है। फ़ोन वग़ैरह सब साइलेंट कर देता हूँ और अगले दिन की सारी मीटिंग्स को दिमाग़ से फेंक देता हूँ। नींद में नो कंप्रोमाइज।

पर हे दुश्मन मच्छर, किस जनम का बदला लिए आज।

कल मच्छरदानी निकालना होगा। दुनिया इतनी तरक़्क़ी कर गई पर मच्छरों का इलाज नहीं ढूँढ पाई। धुँवा वग़ैरह कोई करता नहीं क्योंकि दिल्ली एनसीआर वैसे ही धुंवा धुंवा रहता है। धुँवे से वैसे भी एलर्जी है। इन चादरमोदों को श्राप देता हूँ कि अगले जनम तुम्हें आदमी बनना है और मैं बनूँगा मच्छरों का नेता। फिर लूँगा बदला।

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यक़ीन है मुझे, तब तक भी मच्छर प्रजाति का कोई इलाज बेचारे मनुष्य नहीं खोज पाए होंगे!

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