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इमरजेंसी में सरकार का विरोध करने वाला मीडिया इन दिनों धर्म के आधार पर सरकार का समर्थन कर रहा है?

ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेज (रेगुलेशन) बिल 2023 के बहाने सरकार की नीयत और मीडिया की सेवा की चर्चा

संजय कुमार सिंह

पहले पन्ने की खबरों की अपनी चर्चा में मैं आज भी निर्माणाधीन सुरंग में फंसे 41 मजदूरों को सुरक्षित निकालने के लिए किये जा रहे प्रयासों और उससे संबंधित खबरों की चर्चा करूंगा। लेकिन इससे पहले द हिन्दू में छपे अधिवक्ता अपार गुप्ता के लेख की चर्चा करना चाहूंगा जिसकी सिफारिश मशहूर पत्रकार एन राम ने की है। इसके जरिये मैं इमरजेंसी में पत्रकारों और मीडिया की भूमिका की तुलना इस अघोषित इमरजेंसी जैसी स्थिति से करते हुए यह याद दिलाना चाहूंगा कि इमरजेंसी और कांग्रेस का विरोध करने वाले बहुत सारे नेता और पत्रकार मौजूदा व्यवस्था का भी विरोध कर रहे हैं। लेकिन बहुत सारे लोगों, खासकर धर्म विशेष के लोगों को इस सरकार और व्यवस्था में ना बुराई नजर आ रही है और ना विरोध का कोई कारण। यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ है, तब भी। इस व्यवस्था का विरोध करने वाले उसी धर्म के हैं और बहुत सारे लोग वही हैं जिन्होंने इमरजेंसी का भी विरोध किया था। ऐसे में सत्ता के समर्थकों और प्रचारकों को समझना उसके काम को समझने से ज्यादा जरूरी है।

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इस क्रम में यह याद दिलाना उचित होगा कि जब टेलीविजन आया तो उसकी खबरों को भी फिल्मों की तरह सेंसर करने की जरूरत बताई गई और साथी विनीत नारायण ने वीडियो पत्रिका काल चक्र शुरू की थी तो उसके अंक सेंसर ने रोक दिये गये थे। तब विनीत नारायण ने मुकदमा किया था जिसके बाद खबरें सेंसर नहीं होतीं। अब भारतीय टेलीविजन मीडिया जिस तरह से सरकार का प्रचार करता है वह अपने आप में बड़ी बेशर्मी का उदाहरण है। दूसरी ओर, अब जब इंटरनेट के साथ डिजिटल जमाना आया है तो उसी सेंसरकानून को नये रूप में पेश किया गया है जिसका विरोध जरूरी है। अपार गुप्ता ने अपने लेख में टनल में फंसे मजदूरों की खबरों का उदाहरण दिया है और कहा है कि मीडिया में विविधता की कमी है और इसका जवाब इंटरनेट है। टेलीविजन अभी भी प्राथमिक माध्यम है लेकिन उसका विकास धीमा हो रहा है। दूसरी ओर, कम से कम 85 मिलियन भारतीय घरों में स्मार्ट फोन हैं और वे यू ट्यूब वीडियो पसंद करते हैं।

सरकार इसे जानती है और इसलिए आप ऑनलाइन जो कुछ भी देखें उसके लिए एक सेंसरशिप तैयार करना चाहती है। इसके लिए जो कंट्रोल टावर बनाया गया है उसे ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेज (रेगुलेशन)  बिल 2023 कहा जाता है। इस सरकार के राज में कानून में जो बदलाव किये गये हैं वो सरकार के अधिकार बढ़ाने वाले हैं और पारदर्शिता तथा जिम्मेदारी की प्रक्रियाओं को कम करने तथा बुनियादी अधिकारों के क्षरण के लिए हैं। कहा जा सकता है कि सरकारें एक जैसी होती हैं और सब चाहती हैं कि उनके पास अथाह अधिकार हों लेकिन कांग्रेस और भाजपा की तुलना करनी हो तो यह याद रखना चाहिये कि कांग्रेस ने आरटीआई कानून दिया और भाजपा सरकार ने प्रधानमंत्री राहत कोष के रहते उसे खत्म किये बगैर लगभग उन्हीं उद्देश्यों के लिए पीएम केयर्स बनाया जो आरटीआई के अधीन नहीं है। इस तथ्य के साथ प्रधानमंत्री राहत कोष और पीएम केयर्स की तुलना करेंगे तो यही लगेगा कि सरकार पैसों के मामले में तो पारदर्शिता नहीं बरतना चाहती है। यह चुनावी चंदे के लिए शुरू किये गये इलेक्ट्रल बांड से संबंधित नियमों और दलीलों से भी साफ है।

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अपार गुप्ता ने अपने लेख में लिखा है, 24 नवंबर को टनल में मजदूरों के फंसे होने के 10 दिन से भी ज्यादा बाद में उन्हें सुरक्षित निकालने के प्रयासों को बड़ा झटका लगा। मजदूरों के टनल में फंसने के दिन से अखबारों में बचाव प्रयासों का विवरण छप रहा था जबकि इस घटना को लेकर टेलीविजन कवरेज छिटपुट था। निर्माणाधीन सुरंग का धंसना पर्यावरण क्लियरेंस, दोषपूर्ण लोक निर्माण तथा निर्माण ठेके पर परेशान करने वाले सवाल खड़े करता है जबकि यह सब मानव जीवन को प्रभावित करते हैं। यह केंद्र सरकार की महत्वाकांक्षी चार धाम सड़क परियोजना का हिस्सा है और उत्तरकाशी के यमुनोत्री की तीर्थ यात्रा को आसान बनाने के लिए इसका निर्माण किया जा रहा है। शायद इन्हीं सब कारणों से समाचार चैनलों ने इस घटना को कवर करने या इनपर सरकार से सवाल करने वाली ‘बहस’ आयोजित करने की हिम्मत नहीं की।      

यह चुप्पी तभी टूटी थी जब लंबे समय तक मजदूरों के फंसे रहने को नजरअंदाज करना मुश्किल हो गया। टेलीविजन कवरेज तब शिखर पर था जब राहत प्रयासों के लाभ दिखने लगे। उत्तराखंड के मु्ख्यमंत्री और केंद्रीय राजमार्ग मंत्री ने मौका मुआयना किया। परम लापरवाही और उपेक्षा की कहानी को वीरतापूर्ण तकनीकी बचाव कार्य के रूप में बदल दिया गया। अपार ने लिखा है, टेलीविजन मीडिया द्वारा नैरेटिव (कहानी) बदलने की यह कामयाबी आदर्शों को लेकर पक्षपात, आर्थिक मॉडल, डर और मीडिया तथा मनोरंजन क्षेत्र से संबंधित नियमन के मिश्रण के कारण हासिल होती है। मीडिया अगर आदेश मानने वाला और नियंत्रण में होगा तो यह आम बात है। यहां तक कि फिल्में और टेलीविजन जैसी लोकप्रिय संस्कृति को भी खराब शब्दों और विवादास्पद मुद्दों के लिए आलोचना झेलनी पड़ती है।

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वैसे तो अपार का यह लेख ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेज (रेगुलेशन) बिल 2023 के संबंध में है लेकिन इसमें बताया गया है कि फिल्मों के लिए तो फिर भी सेंसर बोर्ड है तीन दशक पुराने केबल टेलीविजन नेटवर्क्स (रेगुलेशन) ऐक्ट, 1995 के तहत एक नियामक व्यवस्था बनाई गई थी और उसमें बहुत कुछ लागू करने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है भले यह अंततः अंतर मंत्रालयी समिति के जरिये है। इसमें तीन उल्लंघन के बाद लाइसेंस रद्द करने का नियम और उसका डर भी है। दूसरी ओर मंत्रालयी समिति में विविधता नहीं होती है क्योंकि इसमें सरकारी नौकरशाह भरे होते हैं। निजी क्षेत्र के पास इसका एक समाधान था जिसे आत्म नियमन कहा जाता है। यह एक औपचारिक व्यवस्था बन गई थी पर इसकी अपनी समस्याएं हैं और हाल में इसके दुरुपयोग का भी एक मामला सामने आया था। ऐसे में प्रस्तावित विधेयक सरकार के लिए बेहद शक्तिशाली है तथा इस कारण और खराब है। अपार ने लिखा है, सेंसरशिप के इंजन को डिजिटल जमाने के लिए ओवरहॉल कर दिया गया है और यह “प्रधानमंत्री के विजन से संचालित” है।        

“प्रधानमंत्री के विजन” की बात चली है तो मीडिया की खबरों और उसकी चर्चा के साथ यह भी याद दिलाया जाना चाहिये कि सरकारें मीडिया पर नियंत्रण चाहती हैं और मीडिया का काम है कि वह स्वतंत्र रहे तथा जनता की जिम्मेदारी है कि वह इसके लिए प्रयासरत रहे। आप जानते हैं कि मीडिया के जरिये जनभावनाएं बनाई और बिगाड़ी जा सकती है और तथा स्वतंत्रता आंदोलन के समय या उसके बाद भी मीडिया ने यह काम बखूबी किया है। इमरजेंसी के बाद नेताओं और पत्रकारों की गलबहियां दिखने लगीं और अब तो उसका सबसे विकृत रूप सामने है। बगैर गलबहियां या किसी फायदे के लिए भी भक्ति जारी है। और यह परिवार के सदस्यों को पेशेवर पत्रकार के रूप में प्लांट किये जाने के कारण तो है ही बहुत कुछ डर के कारण भी है और इस मारे कुछ लोग चुप हैं। हालत यह है कि रवीश कुमार ने एक पैसे वाले से कहा कि आप मुझे एक लाख रुपये का पुरसकार देकर यह ट्वीट भर कर दीजिये कि आपने मुझे एक लाख का पुरस्कार दिया है। पर वे तैयार नहीं हुए। ऐसे में सरकार का विरोध करने वाले गिनती के लोग हैं। विरोध करने वाले वही हैं जिनकी दुकान छोटी है। बड़ी दुकानों पर नियंत्रण के लिए उन्हें खरीदने के लिए उदाहरण आपको मालूम है।

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आइये, अब आज की खबरें देख लेते हैं। एक ही खबर, जिससे पता चलता है कि 15 दिन से 41 मजदूरों की जान फंसी हुई है और मीडिया बचाव कार्यों का प्रचार कर रहा है। जो कमियां हैं उनकी चर्चा ही नहीं है। कहने की जरूरत नहीं है कि 14-15 दिन में मामला ऐसा हो गया है कि जब तक आर या पार नहीं होगा तब तक खबर ढूंढ़ कर पढ़ी जायेगी चाहे कहीं छपे। नहीं छपेगी तो यह खबर भी छप गई है कि खुदाई का काम करने वाली कंपनी कौन सी है और किसकी है। पर सब मेरा मुद्दा नहीं है। मैं तो यही बताउंगा कि वह सब भी सार्वजनिक होने के बावजूद अभी तक मुख्य धारा के अखबारों में खबर नहीं है।  

1. हिन्दुस्तान टाइम्स

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टनल से बचाव के भाग के रूप में बचावकर्ताओं ने वर्टिकली ड्रिल करना शुरू किया

2. द हिन्दू 

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बचावकर्ताओं ने सिल्कयारा में 15वें दिन 100 घंटे के वर्टिकल ट्रिलिंग का लक्ष्य तय किया उपशीर्षक है, अधिकारियों ने कहा कि कोई बाधा नहीं आयेगी तो लक्ष्य हासिल किया जा सकता है, उत्तरकाशी में आज बर्फबारी और बारिश के पूर्वानुमान से अधिकारी चिन्तित; पाइप के बीच फंसी ऑगर मशीन को निकालने के लिए काम जारी।  

3. इंडियन एक्सप्रेस

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टूटे हुए ड्रिल को हटाने के बाद बचावकर्ताओं ने श्रमिकों के जरिये खुदाई की योजना बनाई। उपशीर्षक है, वर्टिकल ड्रिलिंग (पहाड़ के ऊपर से नीचे सुंरग की ओर) पर भी काम शुरू

4. टाइम्स ऑफ इंडिया

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टनल अभियान के लिए सेना बुलाई गई; वर्टिकल ड्रिलिंग शुरू। बोरिंग मशीन ने ऊपर के 86 मीटर में से 19 मीटर ड्रिल कर दिया

5. द टेलीग्राफ

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अदूरदर्शी परियोजनाओं पर खास ध्यान (मुख्य शीर्षक)। टनल के धंसने से अवैज्ञानिक विकास पर चिन्ता का नवीकरण हुआ है (फ्लैग शीर्षक)

6. अमर उजाला

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ऊपर से भी खोदाई शुरू, बाधा न आई तो श्रमिकों तक पहुंचने में लगेंगे दो दिन

7. नवोदय टाइम्स

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छह योजनाओं पर काम, सेना भी मैदान में

इन खबरों के अलावा, अखिलेश यादव ने कहा है और द टेलीग्राफ ने आज अपना कोट बनाया है, “भाजपा के लोग कानून और संविधान में विश्वास नहीं करते हैं। संविधान और लोकतंत्र की रक्षा के लिए भाजपा को हराना जरूरी है। भाजपा शासन में किसी को न्याय नहीं मिल रहा है।“ क्या यह साधारण बात है? आपने इसे कहीं पढ़ा? मुझे तो यहीं दिखा। छोड़िये इसे, आते हैं अपार गुप्ता की बातों पर। अपार ने लिखा नहीं है पर मैंने लिखा है कि अखबारों की खबर, शीर्षक, भाषा शैली राजस्थान में मतदान यानी 25 नवंबर के बाद अचानक बदल गई। कल के शीर्षक ऐसे ही थे लेकिन तथ्य बताने की मजबूरी में थे और इन दिनों तथ्य अखबारों के लिए वही होते हैं जो उन्हें दिये जाते हैं और पीआईबी भी खबरों की सत्यता परखने लगा है। इसमें स्थिति बहुत विकट है लेकिन झुकने के लिए कहने पर रेंगने वाले दिखते ही हैं। आइये आज फिर देख लें।   

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अमर उजाला का शीर्षक सबसे गौरतलब है। 100 घंटे का लक्ष्य मतलब चार दिन से ज्यादा होता है पर अखबार उसे दो दिन ही बता रहा है। उपशीर्षक है, प्लाज्मा कटर की मदद से निकाला जा रहा है पाइप में फंसा ऑगर मशीन का मलबा। यह महत्वपूर्ण है कि राहत के लिए जो तरीका अपनाया गया था, जो मशीन पहले भी बार-बार क्षतिग्रस्त हो रही थी उसका उपयोग तब रोका गया जब वह खुद ही बाधा बन गई। लेकिन प्रशंसा यह कि प्लाज्मा कटर से काटा और निकाला जा रहा है। इसे महत्व दिया गया है पर विदेशी विशेषज्ञ ऑनाल्ड डिक्स ने कहा है कि सुरंग का धंसना असमान्य घटना है, उसकी जांच होनी चाहिये तो वह छोटे फौन्ट में है, प्रचार से नीचे है। 15 दिन बाद मजबूरी में मशीनों की बजाय हाथ से खुदाई करनी पड़ेगी या शुरू होगी यह और छोटे फौन्ट में और नीचे है। इसके साथ यह तथ्य भी कि काम ब्लेड काटने-निकालने के बाद आज सुबह शुरू हुआ होगा। लेकिन प्रचार लाल रंग में रिवर्स में है, चार रास्तों से पहुंच रहे मजदूरों के पास।

यहां दिलचस्प यह भी है कि आज सभी अखबारों में खबर है कि ऊपर से खुदाई अब शुरू हुई जब ऑगर मशीन नाकाम हो गई, फंस गई तो काम हुआ था वह भी मुश्किल में आ गया। पहले यह प्रचारित किया गया था कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने पांच तरीके सुझाये गये हैं सब पर एक साथ काम चलेगा। वैसे भी ऐसे मामलों में एक साथ तभी तरीकों पर काम किया जाता है ताकि कोई तरीका फेल हो तो समय खराब न हो और किसी भी तरीके से सबसे पहले राहत पहुंचे। यहां प्रचारित करने के बावजूद दूसरे तरीके से शुरुआत की खबर आज है। इससे पहले यह खबर छप चुकी है कि ऊपर से खुदाई करने के लिए जरूरी है कि मशीन आदि ले जाने के लिए सड़क बनाई जाये औऱ यह काम सीमा सड़ संगठन ने कर दिया है। और कर दिया होगा तभी काम शुरू हो सका है लेकिन सड़क बनाने के बाद काम नहीं शुरू हुआ था, आज की खबरों से साफ है। क्यों? कोई जवाब तो नहीं ही है, अखबारों ने लिखा-बताया हो तो मुझे नहीं दिखा। ऐसी सरकार ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेज (रेगुलेशन)  बिल 2023 बना रही है। यह क्या होगा और कैसा होगा तथा भविष्य में क्या होगा यह चिन्ता और चर्चा का विषय नहीं है। संभवतः यू ट्यूब पर भी नहीं।      

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टाइम्स ऑफ इंडिया का शीर्षक है, टनल अभियान के लिए सेना बुलाई गई; वर्टिकल ड्रिलिंग शुरू। देश में राहत कार्यों के लिए सेना को सबसे पहले बुलाया जाता है। यह मुश्किल काम था, पर सेना को अब बुलाया गया है। इसका भी कारण होना चाहिये और जनता को जानने का हक है कि इस तरह की प्राथमिकता कौन कैसे तय करता है खासकर तब जब प्रधानमंत्री बार-बार मजबूत सरकार की बात करते हैं और मजबूत सरकार के मुखिया के रूप में तानाशाही व्यवहार करते हैं। दुखद यह है कि उन्हें इस पद पर पहुंचाने वाला उनका संगठन या परिवार इसके बावजूद उन्हें अभी तक समर्थन और संरक्षण दे रहा है।    

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