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सियासत

महात्मा गांधी के मुसलमान साथी

अमरीक-

पूछा जाए कि आजादी की जंग में महाद्वीप और समूचे विश्व में कौन-सा महानायक अथवा जननायक मुसलमानों के सबसे ज्यादा करीब और उन्हें पसंद था? तो खिलाफत करने वालों की ओर से भी दो-टूक जवाब मिलेगा मोहनचंद करमचंद गांधी यानी महात्मा गांधी! मुसलमान भी उन्हें अपना मसीहा और रहनुमा मानते थे, इतिहास इन तथ्यों से भरा पड़ा है। गांधीजी अगर स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व नहीं कर रहे होते तो मुसलमान किसकी अगुवाई में चलते, यह भी एक अहम सवाल है। इसलिए भीगी इसका जवाब बेहद मुश्किल है। गांधी जयंती और उनकी पुण्यतिथि पर महात्मा पर तो खूब बात होती है लेकिन उनके मुस्लिम साथियों पर इन दिनों खासकर, कम ही लिखा-कहा और बोला जाता है।

महात्मा गांधी की उदारता थी कि उन्होंने अलग मुल्क पाकिस्तान बनने दिया लेकिन इसके पछतावे ने रहती जिंदगी तक उनका पीछा नहीं छोड़ा। विभाजन के वक्त जो मारकाट हुई, उसे उन्होंने अपनी जिंदगी के बेतहाशा नागवार अनुभवों में शुमार किया था। 15 अगस्त 1947 के फौरन बाद वह पाकिस्तान जाना चाहते थे लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और केंद्रीय गृहमंत्री वल्लभ भाई पटेल ने उनसे गुजारिश की कि थोड़ा इंतजार कीजिए। पाकिस्तान में महात्मा गांधी के आगमन को लेकर बेहद उत्साह था। क्योंकि वहां उनके गहरे मित्र ही नहीं बल्कि उनके फलसफे में गहरा यकीन रखने वालों की तादाद लाखों में थी। जान की बाजी लगाकर भी हिंदू-मुस्लिम एकता की बुनियादों को पुख्ता करने का जो काम महात्मा गांधी ने आखिरी सांस तक किया, वह किसी दूसरे नेता ने नहीं किया और न ही तवारीख वह दौर कवि हाशिए को हासिल होगा। पाकिस्तान और बांग्लादेश में आज भी बेशुमार मुसलमान परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी उनके अनुयायियों में शुमार हैं। उन्हें अपना सूफी फकीर मानते हैं। पाकिस्तान के प्रसिद्ध अखबार ‘डॉन’ ने अपना एक पूरा एडिशन इस पर निकाला था। बीबीसी ने रिपोर्ट्स दीं। ऐतिहासिक तथ्य गवाह है कि महात्मा गांधी के बलिदान पर पाकिस्तान और हिंदुस्तान के कितने ही मुसलमान घरों में मातम मनाया गया और यह सिलसिला कई दिन तक जारी रहा।

खैर, खान अब्दुल गफ्फार खान साहब को कौन नहीं जानता? जो उन्हें नहीं जानता, यकीनन वह महात्मा गांधी को भी नहीं जानता! जीवन के 45 वर्ष आजादी के इस गांधीवादी सिपाही ने जेलों में बिताए। खान अब्दुल गफ्फार खान महात्मा गांधी के सबसे करीब भी मुस्लिम दोस्त थे। अनुयायी कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगा। उन्हें यूं ही ‘सरहदी गांधी’ का खिताब नहीं दिया जाता। पाकिस्तान अलहदा मुल्क बना तो महात्मा गांधी ने गफ्फार खान से कहा कि वह वहां सौहार्द और जम्हूरियत की मजबूती के लिए काम करें। सरहदी गांधी जीवनपर्यंत करते भी रहे। वह पाकिस्तान के महात्मा गांधी थे। यह भी कह लीजिए कि गांधीवाद का पाकिस्तान में प्रतिनिधित्व करते थे। स्वतंत्रता संग्राम में उनकी अति अहम भूमिका को कभी बिसराया नहीं ही जा सकता। गांधीजी की शहादत के बाद भी हिंदुस्तान से उनके रिश्ते कायम रहे। खासतर से पंडित जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री से। नेहरू और शास्त्री भी उनके गहरे दोस्त थे। गांधीवादी राहों के हमख्याल भी।

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दारुल उलूम देवबंद के मौलाना महमूद हसन का शुमार भी गांधीजी के बेहद करीबियों में होता है। मौलाना महमूद हसन पर अंग्रेजों के खिलाफ हथियारबंद करने की साजिश का आरोप था। दारुल उलूम देवबंद लंबे अरसे तक गांधीवाद के खुले प्रभाव में रहा और आज भी उस पर उसकी छाया है। हिंदू-मुस्लिम एकता तथा अमन-सद्भाव के बेशुमार बादलील फैसले वहां से निकलते रहते हैं जो असहिष्णुता के इस माहौल में जरूरी सबक की मानिंद हैं। दारुल उलूम देवबंद के शेख उल हदीस मौलाना हुसैन अहमद मदनी भी प्रख्यात गांधीवादी रहे हैं और स्वतंत्रता संग्राम के एक अप्रीतम अंग।

सिंध अब पाकिस्तान का हिस्सा हो गया लेकिन वहां के बड़े कद के स्वतंत्रता संग्रामी मौलाना उबैदुल्लाह खान सिंधी महात्मा गांधी के निकट साथियों में से थे। सिंध और पश्चिमी पाकिस्तान में गांधीवाद के प्रसार में उबैदुल्लाह खान साहिब ने बहुत बड़ी भूमिका अदा की। वामपंथी विचारधारा के संस्कृतिकर्मी, ट्रेड यूनियन नेता और अभिनेता के तौर पर ज्यादा पहचान रखने वाले बलराज साहनी एकबारगी पाकिस्तान के सिंध प्रांत में गए थे और लौटकर लिखा था कि वहां किस तरह गांधीजी के अनुयायी बड़ी तादाद में हैं और कई गांधी को सजदा तक करते हैं। महात्मा गांधी के अन्य करीबी मुस्लिम साथियों अजमल खान, हसरत मोहनी, प्रोफेसर मौलवी बरकतुल्लाह खान, (दो सगे भाइयों) मौलाना शौकत अली और मौलाना मोहम्मद अली जौहर को कौन भूल सकता है; जिन्होंने कदम से कदम मिलाकर स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन में उनका साथ दिया। तवारीख इन सब की बाबत बहुत सुनहरे पन्ने हैं। यकीनन ये न होते तो शायद आजादी की जंग और ज्यादा लंबी चलती तथा हिंदू-मुस्लिम एकता के पुल कमजोर होते। यह फेहरिस्त बहुत लंबी है। जिक्रेखास यह कि गांधीजी के बेहद करीबी विद्वान प्रोफेसर जाकिर हुसैन आजादी के बाद स्वतंत्र भारत के तीसरे राष्ट्रपति निर्वाचित हुए।

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अंग्रेजों ने सन् 1957 में ईस्ट इंडिया कंपनी के जरिए इस महादेश पर हुकूमत की थी और 1858 आते-आते रफ्ता-रफ्ता मुस्लिम शासन का पूरी तरह से खात्मा कर दिया। हर संभव हथकंडा इस्तेमाल करते हुए। मुस्लिम शासन का अंतिम स्तंभ गिरने के बाद अंग्रेज हुक्मरानों ने समूचे संयुक्त हिंदुस्तान पर एकमुश्त कब्जा कर लिया और रानी विक्टोरिया का झंडा हिंदुस्तान की शासन-व्यवस्था के शिखर पर लहराने लगा। मुसलमानों ने जमकर अंग्रेजों से लोहा लिया और इसका तगड़ा नुकसान भी उठाया। ब्रिटिश साम्राज्य का रवैया उनके प्रति बदस्तूर दमनकारी होता गया और खिलाफत में मुस्लिम भी मजबूती के साथ खड़े हो गए। यह तब भी जारी रहा जब आजादी आंदोलन की अगुवाई गांधीजी करने लगे और मौलाना अब्दुल कलाम आजाद ने कंधे से कंधा मिलाकर उनका सक्रिय सहयोग किया। मौलाना अब्दुल कलाम जबरदस्त जनप्रभाव रखते थे। उर्दू और देवनागरी के अलावा उन्हें अरबी में भी महारत हासिल थी। वह उस्मानी खिलाफत के वक्त मक्का में पैदा हुए थे। वही उनकी शिक्षा हुई और धार्मिक शिक्षा के नए-नए पाठ उन्होंने सीखे। उनमें से अपने जीवन में उन शिक्षाओं को ढाला जो कट्टरपंथ से परे इस्लाम की मूल अवधारणा सौहार्द का सबक सिखातीं थीं। इस्लाम की बाबत बहुत कुछ महात्मा गांधी ने मौलाना अब्दुल कलाम आजाद की तहरीरों से जाना।

हिंदुस्तान आने से पहले अफ्रीका में भी, जब गांधी-मोहनचंद करमचंद-थे यानी महात्मा गांधी नहीं बने थे, मुसलमानों ने उनका खूब साथ दिया था। इतिहास में दर्ज है कि ब्रिटेन में कानून की पढ़ाई पूरी होने के बाद भारत में काम ना मिलने पर उन्हें एक मुस्लिम ने ही अफ्रीका में काम दिलवा कर निराशा और अवसाद में जाने से बचाया था। अरब देशों के बारे में महात्मा गांधी पर बहुचर्चित शोधपरक किताब लिखने वाले अब्दुलनबी अलशोला ने अपनी किताब ‘हिज अगेंजमेंट विद इस्लाम एंड द अरब वर्ल्ड’ में उन्होंने लिखा है कि, “गांधीजी जब एक साधारण वकील की हैसियत से दक्षिण अफ्रीका पहुंचे थे तो वहां मुसलमानों ने बहुत ही प्रेम व सम्मान के साथ उनका स्वागत किया था, यह गांधी के लिए बेहद विश्वास और सम्मान की बात थी। एक तरह से उन्हें गोद ले लिया गया था और मुसलमानों ने अपनी हैसियत के मुताबिक हर तरह से उनका सहयोग किया।” अब्दुलनबी लिखते हैं कि वहां के प्रभावी मुस्लिम नेताओं और छोटे-बड़े व्यापारियों ने उनके लिए असाधारण संघर्ष किया। उन्होंने अपने तमाम संसाधन और शक्ति गांधीजी के हवाले कर दी, यहां तक कि मस्जिदों के इस्तेमाल की भी उन्हें उदारतापूर्वक खुली छूट थी। वह मस्जिदों में अपनी बैठकें और कार्यक्रम कर सकते थे। अब्दुल्लाह सेठ ने गांधी जी का पहली बार स्वागत किया और उन्हें डरबन बंदरगाह पहुंचते ही गले लगा लिया। उसके बाद हर जगह मुस्लिम नेतृत्वकर्ताओं और मुस्लिम व्यापारियों ने खुलकर उनका समर्थन किया। डरबन में ऐसे लोगों में अब्दुल्लाह सेठ के अलावा मोहम्मद हाजी यूसुफ, हाजी मोहम्मद, हाजी दाऊद, अब्दुल्लाह हजी आदम और दाऊद अब्दुल्ला थे। नटाल में आदमजी मियां खान ने गांधी जी का साथ दिया, साए की तरह उनके साथ रहे और फिर ‘नटाल इंडियन कांग्रेस’ की स्थापना दोनों ने मिलकर की थी। अहमद मोहम्मद कगालिया ने अपनी तमाम गतिविधियां स्थगित कर दीं, कारोबार खत्म कर दिया और गांधी जी के साथ 1909 में लंदन की यात्रा की। प्रीटोरिया में तय्यब हाजी खां मोहम्मद ने वहां रहते हुए गांधीजी का सक्रिय साथ दिया। वहां स्टेशन पर जब गांधी को उतारा गया तो उस वक्त बड़ी तादाद में शहर के मुसलमान उनके समर्थन और हौसला अफजाई में खड़े थे। स्टैंडट्रन शहर में भी ईसा हाजी समर की अगुवाई में बड़ी तादाद में मुसलमानों ने गांधीजी का साथ दिया। जोहानेसबर्ग में भी मुस्लिमों ने उन्हें गले से लगाया और वहां उन्हें मोहम्मद कासिम कमरुद्दीन, अब्दुल गनी सेठ और दाऊद मोहम्मद इत्यादि का साथ हासिल हुआ। गौरतलब है कि दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान गांधीजी को इस्लाम और मुसलमानों को बेहद करीब से देखने का मौका मिला। गांधीजी के विचारों के व्यक्तित्व और विचारों की छाप की यह भी एक नजीर है। अति अहम नजीर! सुदूर विदेश में राजनीतिक संघर्ष और नक्सलवादी व्यवस्था का विरोध महात्मा गांधी ने 20 साल वहां रहकर किया और मुसलमान इसमें उनके अंग थे।

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बहरहाल, महात्मा गांधी ने 1920 में ‘यंग इंडिया’ में लिखा, “मुझे इस बात पर पूरा विश्वास है कि इस्लाम में तलवार के बल पर यह मुकाम हासिल नहीं किया है; बल्कि यह रसूल की सादगी, उनकी वचनबद्धता, अपने साथियों तथा समर्थकों के प्रति उनकी ईमानदारी एवं कुर्बानी तथा बहादुरी-ये विशेषताएं थीं, जिन्होंने रास्ते को आसान किया और बाधाओं को सरल बनाया। यह प्रचार सरासर गलत है कि इसमें तलवार की कोई भूमिका थी।” ‘द बांबे क्रॉनिकल’ के लिए लिखे एक लेख में 1930 में उन्होंने लिखा कि आजादी के लिए जारी संग्राम में मेरे मुस्लिम भाइयों की भूमिका बेहद ज्यादा मुफीद और अपरिहार्य है। इनके बगैर हम गुलामी से मुक्ति नहीं पा सकते।”

… और अंत में (हरमन प्यारे महात्मा गांधी के कातिल) नाथूराम गोडसे उवाच: “30 जनवरी की तारीख थी। मैं पहले उनके सामने आया, फिर करीब से मैंने उन पर तीन फायर किए और उन्हें कत्ल कर दिया। मुझे जिस चीज ने इस बात पर मजबूर किया, वह मुसलमानों के साथ उनके निरंतर बढ़ रहे अथवा गहराते संबंध/रिश्ते थे।” (गांधी-हत्या के बाद, अदालत के सामने, 1949 में दिए गए नाथूराम गोडसे के इकबालिया बयान के अंश)…!

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