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सियासत

डॉ. जी. एन. साईबाबा की जमानत के लिए वैंकूवर में कैंडल जुलूस

कनाडा के वैंकूवर नगर में 19 मई 2015 को दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद कॉलेज में अंग्रेजी के लेक्चरर, डॉ. जी. एन. साईबाबा को एक वर्ष से अधिक समय तक जेल में रखे जाने के विरोध में किंग जॉर्ज स्टेशन के बाहर मैदान में स्थानीय बुद्धिजीवियों द्वारा एक कैंडल जुलूस का आयोजन किया गया जिसमें बड़ी संख्या में लोग उपस्थित रहे। 

कनाडा के वैंकूवर नगर में 19 मई 2015 को दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद कॉलेज में अंग्रेजी के लेक्चरर, डॉ. जी. एन. साईबाबा को एक वर्ष से अधिक समय तक जेल में रखे जाने के विरोध में किंग जॉर्ज स्टेशन के बाहर मैदान में स्थानीय बुद्धिजीवियों द्वारा एक कैंडल जुलूस का आयोजन किया गया जिसमें बड़ी संख्या में लोग उपस्थित रहे। 

यहां भारतीय लोग बड़ी संख्या में रहते हैं। भारतीय समस्यायों के प्रति उनकी यह संवेदनशीलता काबिले तारीफ है। ध्यातव्य है कि डॉ. साईबाबा को 9 मई 2014 को महाराष्ट्र पुलिस द्वारा नाटकीय तरीके से गिरफ्तार किया गया था। अरुंधति राय के अनुसार गढ़चिरौली के पुलिस उप महानिरीक्षक रविंद्र कदम ने यह दावा किया था कि साईबाबा को प्रतिबंधित संगठन भाकपा-माओवादी का कथित सदस्य होने, उन लोगों को साजो सामान से समर्थन देने और भर्ती में मदद करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। 

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डॉ. जी.एन. साईबाबा को अपने काम से घर लौटते हुए अनजान लोगों ने अगवा कर लिया था। डॉ. साईबाबा की पत्नी वसंता ने कहा कि जब उनके पति लापता हुए और उनका फोन नहीं लग रहा था तो उन्होंने स्थानीय थाने में गुमशुदगी की शिकायत दर्ज कराई। बाद में उन अनजान लोगों ने अपनी पहचान महाराष्ट्र पुलिस के रूप में जाहिर की और बताया कि वह अपहरण, एक गिरफ्तारी थी। महाराष्ट्र पुलिस के अनुसार साईबाबा का नाम उस समय सामने आया, जब जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र हेमंत मिश्रा को गिरफ्तार किया गया था। उसने जांच एजेंसियों को बताया था कि वह छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ के जंगलों में छिपे माओवादियों और प्रोफेसर के बीच ‘कूरियर’ का काम करता है। 

पुलिस का आरोप है कि प्रोफेसर एक संगठन चलाते हैं जो भाकपा-माओवादी का मुखौटा संगठन है। इस आरोप से साईबाबा ने इनकार किया है। सवाल यह है क़ि आखिर उन्हें इस तरह से अगवा क्यों करना पड़ा, जबकि वे उन्हें औपचारिक रूप से गिरफ्तार कर सकते थे? उस प्रोफेसर को जो व्हीलचेयर पर चलते हैं और पांच बरस की उम्र से कमर के नीचे लकवे के शिकार हैं। इसकी पृष्ठभूमि यह कि 12 सितंबर 2013 को उनके घर पर पचास पुलिसकर्मियों ने महाराष्ट्र के एक छोटे से शहर अहेरी के मजिस्ट्रेट द्वारा चोरी की संपत्ति के लिए जारी किए गए तलाशी वारंट के साथ छापा मारा था। उन्हें कोई चोरी की संपत्ति नहीं मिली। उनका निजी लैपटॉप, हार्ड डिस्क और पेन ड्राइव्स। गढ़चिरौली पुलिस ने उनका कंप्यूटर फोरेंसिक जांच के लिए पहले ही जब्त कर लिया था। 

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दो हफ्ते बाद मामले के तफ्तीश अधिकारी सुहास बवाचे ने डॉ. साईबाबा को फोन किया और हार्ड डिस्क खोलने के लिए उनसे पासवर्ड पूछा। डॉ. साईबाबा ने उन्हें पासवर्ड बताए।  डा.जीएन साईबाबा ने नक्सलियों से संबंध होने से इंकार किया है। ग्वेयर हाल हास्टल स्थित निवास में एक प्रेस वार्ता में उन्होंने कहा कि, मैं लगातार लोकतांत्रिक आंदोलनों में हिस्सा लेता आया हूं, गरीबों, मजदूरों और वंचितों के हक के लिए लड़ता रहा हूं। इसलिए मुझे फंसाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि हेम मिश्रा एक संस्कृति कर्मी है और पुलिस यह कह रही है कि उसने मेरा नाम लिया है। जबकि हेम के बारे में पुलिस खुद झूठ बोल रही है। साईं बाबा ने नक्सली नेता गणपति से याहू ग्रुप पर प्रकाश और चेतन नाम से चैट के आरोप पर कहा कि यह पुलिस का झूठ है। जीएन साई ने सवाल उठाया कि क्या यह संभव है कि नक्सली या माओवादी खुलकर इंटरनेट का प्रयोग करेंगे। 

9 जनवरी 2014 को पुलिसकर्मियों के एक दल ने उनके घर पर आकर घंटों उनसे पूछताछ की थी। फिर  9 मई को उन्होंने उन्हें अगवा कर लिया। उसी रात वे उन्हें नागपुर लेकर गए जहां से वे उन्हें अहेरी ले गए और फिर नागपुर ले आए, जिस दौरान सैकड़ों पुलिसकर्मी, जीपों और बारूदी सुरंग रोधी गाड़ियों के काफिले के साथ चल रहे थे। उन्हें नागपुर केंद्रीय जेल में, इसकी बदनाम अंडा सेल में कैद किया गया, जहां उनका नाम हमारे देश के जेलों में बंद, सुनवाई का इंतजार कर रहे तीन लाख लोगों की भीड़ में शामिल हो गया। हंगामे भरे इस पूरे नाटक के दौरान उनका व्हीलचेयर टूट गया। डॉ. साईबाबा की जैसी हालत है, उसे ’90 फीसदी अशक्त’ कहा जाता है। अपनी सेहत को और बदतर होने से बचाने के लिए उन्हें लगातार देखरेख, फिजियोथेरेपी और दवाओं की जरूरत होती है। 

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इसके बावजूद, उन्हें एक खाली सेल में फेंक दिया गया (वे अब भी वहीं हैं), जहां बाथरूम जाने में उनकी मदद करने के लिए भी कोई नहीं है। उन्हें अपने हाथों और पांवों के बल पर रेंगना पड़ता था। साईबाबा को जमानत देने से दो बार इंकार किया गया, लेकिन न्यायिक व्यवस्था ने दोषी ठहराये गए सलमान खान, गुजरात दंगों के मामलों में दोषी करार दी गई माया कोडनानी और (तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री) जयललिता को जमानत दे दी। 11 मई को दक्षिण भारत के दो अलग-अलग कोर्ट से दो फैसले आए, एक में तमिलनाडु की पूर्व मुख्यमंत्री जयललिता को कर्नाटक हाई कोर्ट ने भ्रष्टाचार के मामले में मिली सजा से उनको बरी कर दिया और खातों में हेराफेरी कर करोड़ों रुपए के घोटाले में दोषी ठहराए गए बी. रामालिंगा राजू तथा 9 अन्य को अदालत द्वारा जमानत दे दी गई। 

दशकों से भारतीय न्यायतंत्र में सुधारों की आवश्यकता महसूस की जा रही है क्योंकि सस्ता एवं शीघ्र न्याय कुल मिलाकर भ्रामक रहा है। अदालतों में लंबित मामलों को जल्दी निपटाने के उपायों के बावजूद 2 करोड़ 50 लाख मामले लंबित हैं। विशेषज्ञों ने आशंका प्रकट की है कि न्याय तंत्र में जनता का भरोसा कम हो रहा है और विवादों को निपटाने के लिए अराजकता एवं हिंसक अपराध की शरण में जाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। वे महसूस करते हैं कि इस नकारात्मक प्रवृत्ति को रोकने और इसके रुख को पलटने के लिए न्याय तंत्र में लोगों का भरोसा तुरंत बहाल करना चाहिए। आज न्यायालय से कुछ उम्मीद करें भी तो कैसे वो तो पुराने पोथों से चलता है। उन नियमों से, जिनका औचित्य शायद बस कुछ सदियों पहले तक ही था। अदालती कठघरे में देखिए तो खड़ा नजर आएगा बस आम आदमी क्यों कि अमीर आदमी तो घर बैठे ही इंसाफ का तराजू अपनी ओर झुका ले जाता है। 

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आज कोई मुकदमा अगर अदालत में जाता है, तो उम्र बस फिर तारीखों में ही गुजरती है। जमीन का केस लड़ते-लड़ते हमारी चप्पले घिस जाती हैं पर केस जिनसे और लंबा खिंचे, वो दलीलें नहीं घिसतीं। अब बात दिल्ली विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति की संवेदनहीनता की कि जी.एन. साईबाबा को विश्वविद्यालय द्वारा दिए गए आवास को खाली करने के आदेश को पूरा कराने के लिए उस आवास की बिजली और पानी आपूर्ती बंद करने से लेकर 40 हजार रूपए प्रति महीना जुर्माना तक लागू किया गया। इसके विरोध में दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ से लेकर लगभग सभी शिक्षक संगठनों ने जी.एन. साईबाबा के साथ किए जा रहे प्रशासनिक बदसलूकी का विरोध किया और वैकल्पिक व्यवस्था करने की मांग की लेकिन कुलपति के नेतृत्व में प्रशासनिक कार्यवाही जारी रही। ‘काम और सम्मान’ की नीति-निर्देश पर चलने वाले दिल्ली विश्वविद्यालय में विकलांग शिक्षकों के लिए रिहाइश की कोई सुविधा ही नहीं है। करोड़ों रुपयों की परियोजनाओं में इन आवश्यक्ताओं के लिए कोई जगह नहीं है। ऐसे में स्वयम को ‘छात्रों का हितैषी’ कहने वाले कुलपति के मुंह से विश्वविद्यालय को ‘अंतर्राष्ट्रीय मानदंड’ पर खड़ा करने की बात सुनने के दौरान नाक में साम्राज्यवादी कुचक्र की तीखी गंध महसूस की जा सकती है। 

यह मसला दलाली की शिक्षा व्यवस्था को निर्मित करने का है और जिस पर काम ‘अंतवर्ती नेतृत्व’ के तौर-तरीकों के साथ पूरे विश्वविद्यालय में लागू हो रहा है। जो विरोध कर रहे हैं कुलपति अपने ही ‘बल-बूते’ पर उसे निपटा रहे हैं। 6 अप्रैल, 2013 को श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स के प्रो. संजय कुमार बोहिदार को जो अकादमिक काउंसिल के सदस्य हैं, कुलपति दिनेश सिंह के सामने उनके ‘बाउंसर’ (लठैत) ने पीट दिया था। प्रो. बोहिदार कुलपति के ‘अंतवर्ती नेतृत्व’ विषय पर हो रहे भाषण की समाप्ति पर खड़े होकर अपने ही कॉलेज के ऑडोटोरियम में उनसे इस सवाल को पूछने की अनुमति मांगने की जुर्रत कर रहे थे। यह उनके 30 साल के अध्यापन का कुलपति द्वारा दिया गया सम्मान था। 

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शिक्षा और न्याय जो स्वयं विकलांग हैं वे समाज को क्या दे पाएंगे (अंजनी कुमार, समयांतर)। इनकी देश के विकास के एजेंडे में क्या क्या भूमिका सुनिश्चित होगी अब इस पर मात्र बहस हो सकती है। हमारे प्रधानमंत्री संभवतः इस बात से अनजान हैं या बेफिक्र हैं कि जो चल रहा है वह ठीकठाक है और उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। जो भी हो पर समाज और व्यक्ति की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए इन संस्थाओं का महत्व है। समाज के अंतिम पायदान पर रहनेवाले व्यक्ति के लिए  मध्यवर्ग के लिए भी ये संस्थाएं विकास की सूचक हैं पर दुर्भाग्य यह है कि यहां भी दबंगों की ही चलती है। चाहे सलमान खान हों, जयललिता हों या माया कोडनानी उन्हें जमानत भी मिलती है और सामाजिक रुतबा भी।  क्या यही विकास का असल मॉडल है ? 

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