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सियासत

हिंदू राष्ट्र का मेरा सपना कैसे टूटा

ashwini Kumar Shrivastava-

नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ जैसे हिंदू कट्टरपंथी नेताओं का राज यह साबित कर रहा है कि भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना करोड़ों हिंदू देख रहे हैं। इन्हीं करोड़ों लोगों की तरह अपने जीवन में अपनी पूरी युवावस्था तक मैंने भी हिन्दू राष्ट्र का सपना ही देखा है लेकिन अब मैं इस विकराल भीड़ से अलग खड़े होकर बहुत ही कम लोगों की तरह एक ऐसा सपना देखता हूं, जिसमें हिंदू समाज में जातिवाद न हो और समानता हो।

हिंदू राष्ट्र के सपने से नाता तोड़ने की शुरुआत तब हुई , जब अपने घर- परिवार से दूर निकलकर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान मैंने असल हिन्दू समाज को जीकर देखा। वहां मैं तीन साल से ज्यादा समय रहा लेकिन जब यह देखा कि इलाहाबाद पढ़ाई के साथ-साथ जातिवाद का भी गढ़ है तो मुझे हिन्दू राष्ट्र से विरक्ति होने लगी। 

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जबकि अपनी युवावस्था तक देखे हिन्दू राष्ट्र के इस सपने के बीज मेरे जन्म से ही मेरे जीवन में थे क्योंकि आम हिंदुओं की तरह बेहद धार्मिक हिन्दू परिवार में मैंने भी जन्म लिया है। 

उसके बाद अपनी शुरुआती पढ़ाई भी आरएसएस के स्कूल सरस्वती शिशु मंदिर से ही की थी। शिशु यानी केजी से कक्षा पांच तक का मेरा अनुभव वहां बहुत ही शानदार और अविस्मरणीय रहा। 

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मैं उस स्कूल में क्लास ही नहीं स्कूल टॉपर्स में था और वहां बच्चों की स्टूडेंट यूनियन शिशु भारती का लगातार दो साल पदाधिकारी व अध्यक्ष भी रहा। 

फिर क्लास सिक्स्थ से लखनऊ के एक बेहद प्रतिष्ठित ईसाई मिशनरी स्कूल में पढ़ाई करने के बावजूद मेरे भीतर भरा हिंदुत्व इस क़दर उफान पर आ चुका था कि सूर्योदय से पहले उठकर घंटों पूजा-पाठ और योग ध्यान करके ही मैं अपने दिन की शुरुआत करता था। उसी दौरान राम मंदिर आंदोलन शुरू हुआ तो मैं भी किशोर उम्र से ही कट्टर हिन्दू संगठनों और भाजपा से जुड़ गया था। 

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हिंदुत्व का मेरा यह जुनून हल्का पड़ने लगा , जब स्नातक की पढ़ाई के दौरान इलाहाबाद में मैंने जातिवाद से भरे हिन्दू राष्ट्र का सैंपल बरसों तक उसका हिस्सा बनकर देख- समझ और महसूस कर लिया। 

तिग्मांशु धूलिया और अनुराग कश्यप जैसे नामी गिरामी लोगों को इलाहाबाद यूनिवर्सिटी समेत पूर्वांचल व बिहार के उसी भयावह जातिवाद का अपनी फिल्मों के जरिए महिमा मंडन करते देखता हूं तो मुझे बड़ी कोफ्त भी होती है। 

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क्योंकि उनकी फिल्मों में जिस तरह इसे गर्व करने वाली चीज दिखाया जाता है, दरअसल हिन्दू समाज के लिए सबसे शर्मनाक और सारी समस्याओं की जड़ यही चीज है। 

कैसे, यह बताने के लिए वहां के अनुभवों पर आधारित पोस्ट्स की पूरी सीरीज ही लिखनी पड़ जाएगी। हालांकि व्यक्तिगत रूप से मुझे खुद इस जातिवाद की लड़ाई में कोई नुकसान कभी नहीं हुआ क्योंकि मैं खुद क्षेत्र के आधार पर बने वहां के सबसे मजबूत छात्र गुट का बहुत अहम हिस्सा था। 

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मगर मैंने इस जातिवाद के चलते छात्रों के बीच फैले वैमनस्य के ऐसे-ऐसे जीवंत उदाहरण देखे कि तभी मैंने समझ लिया था कि अगर कभी भारत में हिन्दू राष्ट्र आया तो उसका असल परिदृश्य कैसा होगा। 

यही नहीं, तब यह भी समझ गया था कि इतिहास में हमें जिन हिंदू राजाओं पर गर्व करने  की पढ़ाई करवाई जाती है दरअसल वह हिंदू गर्व नहीं बल्कि जातीय गर्व है, जिस पर मुलम्मा हिंदुत्व का चढ़ाकर सबको शामिल करने की कोशिश की जाती है। 

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तभी इतिहास की पढ़ाई और हिन्दू समाज व भारत की राजनीति को देखने का मेरा नजरिया एकदम यू टर्न लेकर भाजपा और आरएसएस विरोधी हो गया। 

हालांकि तब तक भी मुझे जातिवाद में छुआछूत और भेदभाव देखने को नहीं मिला था क्योंकि मेरा वास्ता तब पिछड़े और दलित छात्रों से कभी पड़ा ही नहीं। मैंने तो वहां यूनिवर्सिटी में उस जबरदस्त जातीय लड़ाई को ही देखा, जो तब केवल सवर्णों के बीच ही अपने चरम पर थी। वहां तब हर हॉस्टल और कैंपस में पंडित, कायस्थ, ठाकुर और भूमिहार जातीय गुट थे, जो वर्चस्व की लड़ाई में एक- दूसरे से दिन – रात उलझे रहते थे। 

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यानी भारत में हिन्दू राष्ट्र भले ही न हो लेकिन इलाहाबाद यूनिवर्सिटी की छात्र राजनीति में यह तब पूरी शान से कायम था। मैंने उसी मिनी हिन्दू राष्ट्र में अपने जीवन के तीन-चार साल बिताए, जिस हिन्दू राष्ट्र को पूरे भारत में लागू करने का सपना मैंने अपनी किशोरावस्था से देखना शुरू कर दिया था। 

कैंपस में ही थोड़ा बहुत पिछड़े वर्ग की ताकतवर ओबीसी जातियों से भी राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई चलती रहती थी लेकिन कब्जा तब सवर्ण खेमे का ही था। दलित व मुस्लिम खेमे का तो चर्चा भी वर्चस्व की इस लड़ाई में कहीं दूर-दूर  तक नहीं था। 

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हिंदू राष्ट्र के उसी सैंपल को जातिवाद के चश्मे से देखने के बाद इसके विरोध का मेरा नजरिया तब और मजबूत हो गया ,  जब  इलाहाबाद के बाद दिल्ली में आईआईएमसी के दौरान मैंने जातिवाद का असली चेहरा देखा, जिसमें दलित और पिछड़े वर्ग के छात्रों को अपने सम्मान, संसाधनों और सत्ता में हिस्सेदारी की लड़ाई लड़ते हुए देखा। 

इतना कुछ देखने, पढ़ने और जीवंत महसूस करने के बाद जब मेरे परिवार,  नातेदार- रिश्तेदार, सहपाठी, कलीग या अन्य परिचित लोग आरएसएस या भाजपा के मेरे विरोध से चिढ़कर मुझसे बहस करते हैं या जबरन मुझे भी हिन्दू राष्ट्र का समर्थक बनाने का प्रयत्न करते हैं तो एक ही शेर मुझे याद आता है कि 

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” या-रब वो न समझे हैं न समझेंगे मिरी बात 

दे और दिल उन को जो न दे मुझ को ज़बाँ और” 

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उन्हें यह डर है कि जिस तरह पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान और कश्मीर में हिन्दुओं का नामोनिशान मिट गया , उसी तरह एक दिन पूरे भारत से इसे मिटाने की कोशिश इस्लामी आतंकवादी या कट्टरपंथी कर रहे हैं। उनका यह डर कहीं से गलत भी नहीं है क्योंकि इस्लामी कट्टरपंथी और आतंकवादी सिर्फ हिन्दुओं को ही नहीं, बौद्धों, ईसाईयों और सिखों आदि को भी दुनिया से मिटाकर पूरी दुनिया को केवल एक ही धर्म में रंगना चाहते हैं. 

बिल्कुल उसी तरह , जिस तरह हिन्दू पूरे भारत को भगवा रंग में रंगना चाहते हैं। 

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यह धार्मिक लड़ाई तो बाकी सभी धर्मों के बीच भी है, जो इस्लाम के आने के पहले से चल रही है। इस्लाम नहीं आया था तो बौद्ध धर्म से यह लड़ाई हिन्दुओं ने लड़ी। 

मगर अनवरत चलने वाली इस धार्मिक लड़ाई की आड़ में क्या हिंदुओं के बीच फैले इस जातिवादी वैमनस्य को दूर करने की बजाय केवल धार्मिक लड़ाई पर ही फोकस किया जाना चाहिए? 

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पहले तो इस कड़वे सच को हजम करना सीखिए कि इतने जातिगत वैमनस्य के कारण कभी एकजुट न हो पाने की वजह से हिंदू यह लड़ाई स्थाई रूप से जीत नहीं सकते। यदि यह धार्मिक लड़ाई थोड़े समय के लिए हिन्दू उसी तरह जीत भी गए, जैसे इतिहास में कई बार जीत चुके हैं…. तो इसकी क्या गारंटी है कि आपस में जातिगत लड़ाई का लंबा दौर फिर शुरू करके यह इसे किसी विदेशी हमलावर धर्म के हाथों गंवा नहीं देंगे? 

जिन्हें इस सच का न पता हो , उन्हें इतिहास खुद पढ़ कर यह जान लेना चाहिए कि जातिवाद के इसी वैमनस्य के चलते हर बार अपने हिन्दू राष्ट्र को हमने खुद ही आपसी लड़ाई और नफरत के खेल में उलझ कर विदेशी हमलावरों को सौंपा है। हमें किसी विदेशी हमलावर या जयचंद ने नहीं हराया है। 

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हम तो अपने जातिगत वैमनस्य और इसके चलते बने छोटे छोटे रजवाड़ों की लड़ाइयों से उपजी फूट के कारण हारते रहे हैं। 

बाकी उन अनपढ़ों से क्या बहस करना , जिन्हें इतिहास का या तो ज्ञान नहीं है या फिर वॉट्सएप यूनिवर्सिटी से ज्ञान लेकर बाकी हिंदुओं और मुसलमानों को दिन रात गरिया कर हिन्दू राष्ट्र बनाने में लगे हैं।

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लेखक अश्वनी कुमार श्रीवास्तव वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों लखनऊ में रह कर ख़ुद का बिज़नेस संचालित करते हैं.

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