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सुख-दुख

क्या आज के वक्त कोई निर्भीक संत या साहित्यकार किसी सत्ताधारी के सामने यह कहकर सुरक्षित रह पाएगा- ‘जाको मुख देखे घिन उपजत, ताको करिबे परी सलाम’

अजय तिवारी-

मुग़ल बहुत क्रूर थे। वे तुर्क थे। संसार की सबसे क्रूर जातियों में अरब, तुर्क, रोमन और ऐंगल रहे हैं। लेकिन फ़ारसी असर के कारण तुर्क कुछ संस्कृति पा गये थे। भारत में रहते हुए उनकी तुर्कों वाली क्रूरता धीरे-धीरे विलुप्त हो गयी। भारत आगमन से पहले अरब और तुर्क जहाँ गये, उन्होंने वहाँ अपने आततायी स्वरूप का ही परिचय दिया। लेकिन तुर्कों को अपनी क्रूरता से परास्त किया रोमनों और जर्मन कबीले के ऐंगल लोगों ने। रोमवासियों ने प्राचीन मिस्र और यूनान की सभ्यता को सबसे पहले नुक़सान पहुँचाया। वे इतने स्वाभाविक आततायी थे किभारत आकर भी अरबों-तुर्कों की भाँति उनमें सभ्यता का प्रवेश नहीं हुआ।

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इसकी परख एक बात से ही हो जाती है। अरब और तुर्क भारत आये, उसके पहले जैसे भी थे लेकिन अपनी जातीयता छोड़ी थी, न स्वभाव। भारत में उनकी जातीयता लुप्त हो गयी। जातीयता की पहचान है भाषा। भारत के किसी कोने में न अरबी बोली जाती है, न तुर्की। यहाँ के जीवन और समाज में घुल-मिलकर अरब और तुर्क भारतीय बन गए। उन्होंने यहीं के विकास में भूमिका अदा की, यहाँ की संस्कृति को समृद्ध किया। वे लुटेरे बनकर आये लेकिन इंसान बनकर बस गये। लेकिन रोमन-ऐंगल मूल के ब्रिटिश भारत में भी अपनी क्रूरता बनाये रहे, अपनी जातीयता बनाये रहे। वे लूटने आये थे, लूटते रहे और अंत में मार खा-खाकर चलते बने। जाते-जाते न केवल फूट, हिंसा से भारतीय समाज को क्षत-विक्षत कर गये बल्कि भावी फूट और विघटन का बीज बो गये।

हिंदू सहिष्णु रहे हैं। इसी सहिष्णुता के नाते हर आगन्तुक जाति को उन्होंने अपने समाज में पचा लिया। आभीर, जाट, शक, कुषाण आदि बाहर से आये और भारत में रच-बस गये; अरब और तुर्क भी यहीं के होकर रह गये। लेकिन अँग्रेज़ अकेले थे जो न यहाँ समाज के अंग बने, न जिन्होंने अपनी भाषा छोड़ी, न लूट-फूट-हिंसा की अपनी फ़ितरत छोड़ी। कहिए कि भारतीय समाज, संस्कृति और मनुष्य को जितनी स्थायी हानि रोमन-ऐंगल समुदाय के अँग्रेज़ों ने पहुँचाया, वह अकल्पनीय-अविश्वसनीय है।

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लेकिन मैं अभी एकदम अलग विषय पर बात करना चाहता हूँ। उसका सम्बन्ध आज के सांस्कृतिक संदर्भ से है। निस्संदेह यह संदर्भ समाज में सचेत प्रयत्न द्वारा फैलये गये हिंदू-मुस्लिम वैमनस्य को छूता है।

चूँकि आजकल सारे मुग़ल शासकों के उन्मूलन का अभियान चल रहा है, औरंगज़ेब का ही नहीं, बाबर से बहादुरशाह ज़फ़र तक सबका नामोनिशान मिटाने को ही इतिहास का सुधार बताया जा रहा है, दूसरी तऱफ एक नये प्रकार का”भक्ति” आंदोलन संगठित किया जा रहा है, इसलिए उससे सम्बंधित प्रसंग का ज़िक्र करना चाहता हूँ।

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अकबर बहुत ताक़तवर शासक था। अशोक और हर्षवर्धन के बाद अकबर ने अधिकांश भारत को एकसूत्र में बाँधा और शान्ति-व्यवस्था की स्थापना की। इसका असर देश के आर्थिक और सांस्कृतिक विकास पर पड़ा। लेकिन वह लोकतंत्र का युग नहीं था, राजतंत्र का युग था। राजा का लड़का ही राजा बनता था, बशर्ते आक्रमण या षडयंत्र में कोई दूसरा गद्दी पर न बैठ जाय। इस सामंती ढाँचे में अक्सरसर्वशक्तिमान शासक था। उसे जिल्ले इलाही कहा जाता था। फिर भी उसमें कुछ स्पृहणीय गुण थे। जब उसने कुम्भनदास को बुलवाया तो उस सन्त ने फतेहपुर सीकरी में अकबर के सामने आने पर यह प्रसिद्ध पद कहा था:

सन्तन की कहा सीकरी सो काम।
आवत जात पनहिया टूटी, बिसरि गयो हरिनाम।
जाको मुख देखे घिन उपजत, ताको करिबे परी सलाम।।

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सबको पता है कि इसपर अकबर ने कुम्भनदास को दंडित नहीं किया, उनसे क्षमा माँगी और सम्मान सहित उन्हें विदा किया। एक क्रूर, सर्वशतिशाली मुग़ल शासक ने एक हिंदू सन्त के साथ यह व्यवहार किया। अकबर के समकक्ष और समकालीन राणाप्रताप थे। उनके पिता उदयसिंह ने अपनी भाभी मीराँबाई की हत्या करवायी थी। जिस राणा ने मीराँ के लिए विष का प्याला भेजा था, वह उदयसिंह का सौतेला बड़ा भाई था। उसी के समय मीराँ ने चित्तौड़ गढ़ छोड़ा था।

एक तरफ़ अकबर था जिसने अपने को चुनौती देने वाले हिन्दू सन्त की सम्मान विदा किया था, दूसरी तरफ़ राणा उदयसिंह थे जिन्होने अपनी भाभी मीराँ को विष देकर मरवा दिया था।

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इस पूरे मसले में हिन्दू-मुस्लिम का सवाल ही नहीं था। सवाल सत्ता बनाम सन्त का था। इसीलिए उदयसिंह के व्यवहार के समकक्ष औरंगज़ेब का व्यवहार मिलता है जिसने सूफ़ी सन्त सरमद को जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर क़त्ल करवा दिया था। हिन्दू शासक हिन्दू सन्त की हत्या करते हैं, मुस्लिम शासक मुस्लिम सन्त की हत्या करते हैं। यह लड़ाई सत्ता और सन्त की है, इसके अनन्त प्रमाण भरे पड़े हैं।

इस रौशनी में अकबर का बड़प्पन स्पष्ट होता है जिसने अपनी ताक़त का उपयोग कुम्भनदास को दंडित करने में नहीं किया। बल्कि उनसे क्षमा माँगी और उन्हें सम्मान पूर्वक वापस भेजा।

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क्या आज लोकतांत्रिक समाज में रहते हुए हम कल्पना कर सकते हैं कि कोई निर्भीक साहित्यकार सत्ताधारी के सामने कहे: जाको मुख देखे घिन उपजत…और फिर भी सुरक्षित रहे? यदि मुसलमान शासक के सामने हिंदू सन्त की तरह हिन्दू शासक के सामने किसी मुसलमान लेखक-पत्रकार की तो बात ही छोड़िए, कोई हिंदू भी कह दे कि तुम्हारे कार्यों से घिन होती है तो क्या हश्र होगा, कौन नहीं जानता? सत्ता के चाटुकार ट्रोल ही उसे नहीं छोड़ेंगे। सत्ता तो जेल, मुकदमा और दंड का सारा कार्यक्रम चलायेगी ही!

भक्ति आंदोलन में संत सत्ता के मुक़ाबले खड़े थे, अपनी आस्था के साथ। उन्हें वैभव, सम्पत्ति, राजसम्मान नहीं चाहिए था। अपनी आस्था के लिए वे बलिदान देने को तत्पर रहते थे। आज सन्त वही हैं जिन्हें सम्पत्ति, स्त्रीभोग, राजसम्मान वगैरह चाहिए। इसलिए सत्ता संत का इस्तेमाल कर रही है, संत सत्ता के साथ खड़े हैं आस्था का नाम लेकर समाज को विभाजित करते हुए!

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वह समय था जब सन्त भक्ति के माध्यम से समाज और देश को एक कर रहे थे। इस समय भक्ति के नामपर समाज और देश को विभाजित करने की रणनीति अपनायी जा रही है। समाज को एकजुट करने वाले सन्त सत्ता से मुठभेड़ करते हैं, सत्ता से एकजुट होने वाले सन्त समाज को विखण्डित करते हैं। ताक़तवर सत्ता के मुग़ल दौर से ताक़तवर सत्ता के हमारे दौर में यह मूलभूत अंतर है।

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