Connect with us

Hi, what are you looking for?

सियासत

जेपी आज होते तो कितने लोग उनका साथ देते?

-श्रवण गर्ग-

लोक नायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) की आज पुण्यतिथि है और तीन दिन बाद ग्यारह अक्टूबर को उनकी जयंती ।सोचा जा सकता है कि वे आज अगर हमारे बीच होते तो क्या कर रहे होते ! 1974 के ‘बिहार आंदोलन’ में जो अपेक्षाकृत छोटे-छोटे नेता थे, आज वे ही बिहार और केंद्र की सत्ताओं में बड़ी-बड़ी राजनीतिक हस्तियाँ हैं। कल्पना की जा सकती है कि जेपी अगर आज होते और 1974 जैसा ही कोई आह्वान करते (‘सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है ‘) तो कितने नेता अपने वर्तमान शासकों को छोड़कर उनके साथ सड़कों पर संघर्ष करने का साहस जुटा पाते ! ऐसा कर पाना शायद उस जमाने में काफ़ी आसान रहा होगा !

Advertisement. Scroll to continue reading.

चौबीस मार्च, 1977 को मैं उस समय दिल्ली के राजघाट पर उपस्थित था, जब एक व्हील चेयर पर बैठे हुए अस्वस्थ जेपी को गांधी समाधि पर जनता पार्टी के नव-निर्वाचित सांसदों को शपथ दिलवाने के लिए लाया गया था। वर्तमान की मोदी सरकार में शामिल कुछ हस्तियाँ भी तब वहाँ प्रथम बार निर्वाचित सांसदों के रूप में मौजूद थीं। जेपी के पैर पर पट्टा चढ़ा हुआ था।आग्रह किया जा रहा था कि उनके पैरों को न छुआ जाए। वह दृश्य आज भी याद आता है, जब भीड़ के बीच से निकल कर उनके समीप पहुँचने के बाद मैंने उन्हें प्रणाम किया तो वे हलके से मुस्कुराए और मैं स्वयं को रोक नहीं पाया … उनके पैरों के पास पहुँचकर हल्के से स्पर्श कर ही लिया।उन्होंने मना भी नहीं किया।

जेपी ने (और शायद दादा कृपलानी ने भी) सांसदों को यही शपथ दिलवाई थी कि वे गांधी का कार्य करेंगे और अपने आप को राष्ट्र की सेवा के लिए समर्पित करेंगे।राजघाट पर हज़ारों लोगों की उपस्थिति थी।अभिनेता देव आनंद भी वहाँ पहुँचे थे।प्रशंसकों ने उन्हें अपने पैर ज़मीन पर रखने ही नहीं दिए।अपने कंधों पर ही उन्हें बैठाकर पूरे समय घुमाते रहे।शत्रुघ्न सिन्हा भी शायद वहाँ थे। अदभुत दृश्य था। राजघाट की शपथ के बाद के दिनों में दिल्ली के दीनदयाल उपाध्याय मार्ग स्थित गांधी शांति प्रतिष्ठान में जे पी की उपस्थिति में ही सत्ता के बँटवारे को लेकर बैठकों का जो दौर चला उसका अपना अलग ही इतिहास है। राजघाट की आशाभरी सुबह के कोई ढाई वर्षों के बाद आज के ही दिन जेपी ने देह त्याग कर दिया।वे भी तब उतने ही निराश रहे होंगे जैसे कि आज़ादी प्राप्ति के बाद गांधी जी रहे होंगे। कांग्रेस, बापू को और जनता पार्टी जेपी को जी नहीं पाईं। जेपी के निधन तक उनका जनता पार्टी का प्रयोग उन्हें धोखा दे चुका था।

Advertisement. Scroll to continue reading.

याद पड़ता है कि जेपी को सबसे पहले राजगीर(बिहार) में 1967 के सर्वोदय सम्मेलन में दूर से देखने का अवसर मिला था।तब तक उनके बारे में केवल सुन-पढ़ ही रखा था।जेपी की देखरेख में ही सम्मेलन की सारी तैयारियाँ हुईं थीं।दलाई लामा भी उसमें आए थे।संत विनोबा भावे तो उपस्थित थे ही, पर जेपी के विराट स्वरूप को पहली बार नज़दीक से देखने का मौक़ा अप्रैल 1972 में मुरैना के जौरा में हुए चम्बल घाटी के दस्युओं के आत्म-समर्पण और फिर उसके अगले माह बुंदेलखंड के दस्युओं के छतरपुर के निकट हुए दूसरे आत्म समर्पण में मिला था। उनका जो स्नेह उस दौरान प्राप्त हुआ, वही बाद में मुझे 1974 में बिहार आंदोलन की रिपोर्टिंग के लिए पटना ले गया।तब मैं दिल्ली में प्रभाष जोशी जी और अनुपम मिश्र के साथ ‘सर्वोदय साप्ताहिक’ के लिए काम करता था। पटना गया था केवल कुछ ही दिनों के लिए पर जे पी ने अपने पास ही रोक लिया उनके कामों में मदद के लिए। पटना में तब जेपी के कदम कुआ स्थित निवास स्थान पर केवल एक ही कमी खटकती थी और वह थी प्रभावती जी की अनुपस्थिति की। वे 15 अप्रैल, 1973 को जेपी को अकेला छोड़कर चली गईं थीं।

जे पी और प्रभावती जी के साथ केवल दो ही यात्राओं की याद पड़ती है।पहली तो तब की जब अविभाजित मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रकाश चंद सेठी के विमान में दोनों को लेने लिए दिल्ली से पटना गया था और वहाँ से हम तीनों बुंदेलखंड के दस्युओं के आत्म समर्पण के लिए खजुराहो के हवाई अड्डे पर पहुँचे थे। दूसरी बार (शायद) उसी वर्ष किसी समय जेपी और प्रभावती जी के साथ रेल मार्ग द्वारा दिल्ली से राजस्थान में चूरू की यात्रा और वहाँ से वापसी। चूरू में तब अणुव्रत आंदोलन के प्रणेता आचार्य तुलसी की पुस्तक ‘अग्नि परीक्षा’ को लेकर विवाद खड़ा हो गया था।

Advertisement. Scroll to continue reading.

जेपी के मित्र प्रभुदयाल जी डाबरीवाला लोक नायक को आग्रह करके चूरू ले गए थे, जिससे कि वहाँ साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित हो सके। जेपी ने कहलवाया कि मुझे उनके साथ चूरू की यात्रा करनी है और मैं तुरंत तैयार हो गया। चूरू की वह शाम भूले नहीं भूलती है, जब जे पी ने पूछा था उनके साथ टहलने हेतु जाने के लिए … और मैं भाव-विभोर हो चूरू के एकांत में उस महान दम्पति के साथ घूमने चल पड़ा था।तब दिल्ली में स्वतंत्रता सेनानियों को ताम्रपत्र बाँटे जा रहे थे। मैंने उनसे इस दौरान किए गए कई सवालों के बीच यह भी पूछ लिया था कि:’ क्या सरकार आपको स्वतंत्रता सेनानी नहीं मानती ?’ जेपी शायद कुछ क्षण रुके थे फिर धीमे से सिर्फ़ इतना भर कहा कि :’हो सकता है, शायद ऐसा ही हो।’ मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने तब जेपी से कितने सवाल किए होंगे और उन्होंने क्या जवाब दिए होंगे।क्योंकि मैं तो उस समय अपने इतने निकट उनकी आत्मीय उपस्थिति के आभा मण्डल में ही पूरी तरह से खो गया था।जिस तरह से गांधी नोआख़ली में दंगों को शांत करवाकर चुपचाप दिल्ली लौट आए थे, वैसे ही जेपी भी चूरू से लौट आए।

मुझे अच्छे से याद है कि हम दिल्ली के रेल्वे स्टेशन पर चूरू जाने वाली ट्रेन की प्रतीक्षा में खड़े थे। जेपी थे, प्रभावती जी थीं, उनके सहायक गुलाब थे और मैं था।शायद प्रभुदयाल जी भी रहे हों। लम्बे प्लेटफ़ार्म पर काफ़ी लोगों की उपस्थिति के बावजूद कोई जेपी को बहुत विश्वास के साथ पहचान नहीं पा रहा था।उनकी तरफ़ लोग देख ज़रूर रहे थे।हो सकता है कि किसी को उनके वहाँ इस तरह से उपस्थित होने का अनुमान ही नहीं रहा होगा। पर जेपी के चेहरे पर किसी भी तरह की अपेक्षा या उपेक्षा का भाव नहीं था।वे निर्विकार थे।बेचैनी मुझे ही अधिक थी कि ऐसा कैसे हो रहा है ! याद पड़ता है कि सर्वोदय दर्शन के सुप्रसिद्ध भाष्यकार दादा धर्माधिकारी ने एक बार जेपी को संत और विनोबा को राजनेता निरूपित किया था।ऐसा सच भी रहा हो ! स्मृतियाँ तो कई और भी हैं पर फिर कभी। जेपी की स्मृति को प्रणाम ।

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement