कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेशशंकर विद्यार्थी का नाम ऐसे ही पत्रकारों में गिना जाता है। देश के तमाम बुद्धिजीवी विद्यार्थी जी को कानपुर शहर की पहचान का प्रतीक मानते हैं। लेकिन उनकी कर्मस्थली पर अब गिफ्ट और डग्गे की पत्रकारिता हो रही है। डंके चोट पर अखबार मालिक तक जमीनों के सौदे में लिप्त हैं और ज्यादातर पत्रकारों के पास खेमेबाजी के चटखारों के सिवा जैसे पत्रकारिता से रत्तीभर वास्ता नहीं।
अपनी आर्थिक कठिनाइयों के कारण गणेश शंकर विद्यार्थी एंट्रेंस तक ही पढ़ सके किंतु उनका स्वतंत्र अध्ययन अनवरत चलता ही रहा। अपनी मेहनत और लगन के बल पर उन्होंने पत्रकारिता के गुणों को खुद में भली प्रकार से सहेज लिया था।
कानपुर में मीडिया से नजदीकी होने के साथ मैंने महसूस किया कि राज-समाज और पत्रकारिता का सरोकार निहायत बेमेल हो चला है। अधिकतर पत्रकारों को अपनी नासमझी पर कोई अफ़सोस नहीं बल्कि मीडिया ब्रांड का गुरुर सिर चढ़ के बोल रहा। वरिष्ठों का बड़प्पन उनकी मठाधीशी में नज़र आता है तो नवोदित चेहरे चरण चुम्बन को पत्रकारिता की पहली सीढ़ी मान बैठे। ऐसा भी नहीं कह सकते कि उनका अनजान होना ही कुछ खास न कर पाने की वजह है क्योंकि सहज ज्ञान यानि कॉमन सेंस सद्भावना और सहानुभूति किसी तथाकथित विद्वान की बपौती नहीं लेकिन मौका विशेष पर एडिटर के कहने से अगर कैमरा चमके या कलम चले तो इसको कर्मकांड के अलावा और क्या कहा जाएगा।
गणेश शंकर विद्यार्थी की कर्मभूमि कानपुर में पत्रकारिता का वर्तमान कितना बदहाल है, ये गिफ्ट और डग्गे की पत्रकारिता को देख के नज़र आता है। ये पब्लिक है, सब जानती है। आम लोगों की चर्चा में अक्सर सुनने को मिलता है, आइये जानते हैं कि इस मामले में जागरुक शहरी क्या कहते हैं।
बहुत सी कड़वी सच्चाइयों को जानते हुए अख़बारों में सिर्फ रूटीन न्यूज भर पढ़ने को मिले तो पत्रकारों को कोसने से ज्यादा और क्या किया जा सकता है। मैंने बेबाकी से अपनी नाराजगी और शिकायतें बयाँ करनी शुरू कीं तो कुछ लोग इसी नाराजगी को मेरी पत्रकारिता मान बैठे। बाद में पत्रकारों की दुर्दशा देखी तो लगा कि अख़बारों के मालिकान भी ठीक नहीं। इस निष्कर्ष पर पहुंचा ही था, तभी पता चला कि कुछ अख़बारों के मालिक अवैध जमीनी सौदों में लिप्त हैं। उन लोगों पर क़ानूनी कार्रवाई न होना उनके मीडिया हाउस के लिए सरकारी नजराने जैसा है।
जाहिर है कि गणेश शंकर विद्यार्थी के शहर में रह कर सरकार, पत्रकारिता और मीडिया घरानों की गिरोहबंदी भी देखने को मिली, साथ ऐसी पत्रकारिता भी देखने को, जिसके लिए प्रोफेशनलिज्म के नाम पर अर्धसत्य ही अंतिम लक्ष्य लगता है। तमाम साथी इस कर्मकांड के भुक्तभोगी के तौर पर ही मिले। उनमें से कइयों को लोग चंद रुपये में हुनर बेचने को मजबूर पत्रकार के तौर पर जानते हैं। उन्हीं में से एक अशक्त बुजुर्ग इंद्र भूषण रस्तोगी का चेहरा अक्सर याद आता है, जिन्हें जानकार शोषित पत्रकार जमात का प्रतीक मानते हैं।
मुद्दे, विचार और विमर्श के नाम पर प्रेस क्लब में अगर कुछ था तो कैरम बोर्ड और गर्मियों में चलने वाला वातानुकूलन यन्त्र यानि एसी। पत्रकार हितों के नाम पर किसी को पत्रकार पुरम बसाने की वाहवाही लूटना मजेदार लगता है तो किसी को खेमेबाजी की कहानियां चटखारे लेकर सुनाने में। कुल मिला के कहें तो जनता और जनहित की बात के लिए प्रेस क्लब के भवन से ज्यादा बतकही शिक्षक पार्क के कोने पर भोला की चाय की दुकान में ज्यादा होती नज़र आती है।