ज्ञानेश उपाध्याय-
‘केजीएफ’ शृंखला की पहली फिल्म ने अपनी लागत से तीन गुना से ज्यादा कमाई(250 करोड़) की थी और दूसरी ने दस गुना से ज्यादा कमाई(1000 करोड़) की है। दरअसल, यह गुस्से का कमाल है, जो लोगों में पलने लगा है। प्रचंड हिंसा सुकून देने लगी है, तो शायद सतर्क हो जाना चाहिए।

आज शायद हर आदमी भरा बैठा है, वह अपनी इच्छा के विरुद्ध खड़े किसी भी व्यक्ति को एक ही वार में धूल बना देना चाहता है। यहां लाठी कहीं नहीं है, लोहे की रॉड है, जो एकदम लाल गर्म कर ली गई है, एक ही बार में फाड़ देगी। यहां बार-बार खतरनाक चीखें हैं, जो शायद राहत का एहसास कराने लगी हैं। सत्ता में बैठे लोगों को सावधान हो जाना चाहिए।
बॉलीवुड मतलब उत्तर भारत की कला प्रतिभा शायद सत्ता के समक्ष कुंद होकर घुटने टेकने लगी है, लेकिन उत्तर की राजनीति से दक्षिण अभी भी बहुत अछूता है, वहां प्रतिभा अपने समय और भाव को साफ पेश कर दे रही है।
लगभग पचास साल पहले एंग्री यंगमैन का पदार्पण हुआ था। मई 1973 में अमिताभ बच्चन की ‘जंजीर’ आई थी। ‘जंजीर’ में सताए-गुस्साए बच्चे को पुलिस वाले ने पाला था और ‘केजीएफ’ में ऐसा ही बच्चा खूंखार गुंडों के बीच पला है। कुछ अंतर स्पष्ट हैं, लेकिन कुछ साम्यताएं भी हैं, जैसे दोनों ही बच्चे अपने गुस्से के साथ बड़े होते हैं और दोनों को मांद में घुसकर दुश्मनों को मारने या अपना सपना साकार करने में आनंद आता है। व्यवस्था से मोहभंग तब भी था और इस बार भी जबरदस्त है, तो सॉफ्ट मारधाड़ अब भूल जाइए।
पुरानी क्रोनोलॉजी समझिए। मई 1973 में ‘जंजीर’ रिलीज हुई थी, जून 1974 में संपूर्ण क्रांति का बिगुल बजा था और जून 1975 में आपातकाल थोपा गया था। लेकिन सावधान, समय और भाव का अंतर बहुत ज्यादा है। संपूर्ण क्रांति के समय लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कहा था, ‘सम्पूर्ण क्रांति से मेरा तात्पर्य समाज के सबसे अधिक दबे-कुचले व्यक्ति को सत्ता के शिखर पर देखना है।’ लेकिन अब ध्यान रखना होगा, ‘केजीएफ’ के जिस रॉकी को मनमानी करने के लिए दुनिया चाहिए, वह उस किस्म का दबा-कुचला व्यक्ति नहीं है, जिसे लोकनायक सत्ता के शिखर पर देखना चाहते थे।
‘जंजीर’ में एक तर्क था, प्रगतिशीलता थी, जबकि ‘केजीएफ’ में ऐसे गुणों की कोई गुंजाइश नहीं है। माताएं ही जब बच्चों को हिंसक बनाने लगी हैं, तो संगीत प्रेम नहीं, अय्याशी का माध्यम बन गया है। यह फिल्म पुरजोर एहसास करा रही है कि सारे नायक गए तेल लेने और यह खलनायकों का ही दौर है। गौर कीजिए, आज के समय में रॉकी ही नहीं, बल्कि ज्यादातर लोगों के मन में कोई न कोई अतार्किक, अलोकतांत्रिक जिद्द है कि कुछ भी हो जाए, मेरा नाला यहीं से बहेगा, तो यकीन मानिए, आगे झगड़ा तगड़ा है।