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सियासत

चुनावी नतीजे : क्या 400 पार या दो सौ तक ही रथ रुक जाएगा!

नवनीत चतुर्वेदी-

चुनाव के पहले दो फेज संपन्न हो चुके लेकिन बाज़ार गली मोहल्ले गाँव सब जगह रौनक़ चहल पहल नज़र नहीं आई!

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कार्यकर्ताओं पदाधिकारियों की जेब ख़ाली है, प्रत्याशी चाहे सत्ता पक्ष का हो या विपक्ष का पैसे बहुत कम बाहर निकल रहे है कुछेक अपवाद छोड़ कर। जब बाज़ार में पैसा ही नहीं आ रहा तो रौनक़ कैसी!

छोटे मोटे यूट्यूबर पोर्टल अख़बार वालों से ले कर बड़े मीडिया घरानों के लिए लोकसभा चुनाव किसी दीवाली के त्यौहार से कम नहीं होता , बड़े मीडिया घरानों की दीवाली तो वैसे ही हर दिन मन ही जाती है लेकिन मझोले छोटे अख़बार पोर्टल सब ख़ाली है उनके लिये यह लोकसभा चुनाव एक तरह से फीकी दीवाली बन चुकी है अपेक्षाकृत पहले के चुनावों को देखते हुए।

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सत्ता पक्ष वाले प्रत्याशी का सोच है अबकी बार चार सौ पार, तो कैसे आए वो मोदीजी जाने ईवीएम में कुछ न कुछ कर ही लेंगे हमको क्या! इस सोच के साथ वो पैसे खर्च नहीं कर रहा!

उधर विपक्ष में राहुल गांधी जी का कॉन्फिडेंस उच्च स्तर पर है शायद किसी गुरुकुल से कोई भरोसा मिला हो उन्हें! लेकिन उनके पास जो कॉन्फिडेंस है वो नीचे उनके टीम में या प्रत्याशियों में नहीं है उनका सोच यह है कि हार तो रहे ही है पैसे क्यों फ़ालतू खर्च किए जाए! इस तरह दोनों ही पक्ष इस बार बड़ी कंजूसी से जेब में हाथ अंदर बाहर कर रहे है इसलिए बाज़ार से चुनाव की रौनक़ ग़ायब है। अपवाद को छोड़ कर।

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चुनावों के दौरान जो छोटे मोटे व्यापारी फाइनेन्सर होते है जो प्रत्याशियों को दस पाँच लाख रुपया करते हुए चुनावी मदद करते रहते है, ये वर्ग भी इस बार अपेक्षाकृत शांत मौन है सामान्य तौर पर देखा जाये तो एक प्रत्याशी यदि किसी बड़ी राष्ट्रीय पार्टी का टिकट लिए हुए है तो उसको मिनिमम एक करोड़ से पाँच करोड़ तक की स्थानीय फंडिंग कई लोगों से मिला जुला कर हासिल हो जाती है लेकिन इस बार ये पैसा भी बहुत कम मिल रहा है , यह भी एक वजह है कि चुनाव से रौनक़ ग़ायब है।

कुछ लोगों का कहना और मानना यह है कि इस बार चुनाव भाजपा वर्सेज़ जनता का बन गया है , उनकी यह सोच मान्यता है कि विपक्ष के लिये जनता ख़ुद आगे से स्वतःस्फूर्त होते हुए एंटी भाजपा माइंडसेट लिये हुए विपक्ष को वोट कर रही है लेकिन चुनावी रणनीति और बूथ मैनेजमेंट का जो जानकार होगा वो इस राय से इत्तफ़ाक़ नहीं रखेगा!

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क्योंकि यह चुनाव कोई 1977 का इमरजेंसी वाला चुनाव नहीं है कि जहां जनता ख़ुद आगे से चुनाव लड़ रही हो , किसी भी शहर राज्य में चले जायें अधिकतर वोटिंग वोटर को पैसे दे कर दारू शराब भंडारा गिफ्ट इत्यादि के लेने देने के बाद ही होती है और इस बार यह सब नाम मात्र को दिख रहा है इसीलिए वोटिंग % भी कम है हिन्दी भाषी राज्यों में।

नौकरशाही में भी कोई बहुत बड़ी हलचल बाहर से नहीं दिख रही है कि सत्ता जाने वाली है, जो अफ़सर बेनेफ़िशियरी नहीं है वो ज़रूर भाजपा की विदाई तय है यह कहने लगा है लेकिन जो सत्ता के बेनेफ़िशियरी अफ़सर है वो शांत है उनके अंदर से कोई अल्टरनेटिव प्लान बी यदि कुछ है तो वो नहीं दिख रहा।

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भाजपा और संघ के अंदर जो असंतुष्ट वर्ग है जो मोदी शाह से त्रस्त दुखी है उनके द्वारा भीतरघात की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता लेकिन दोनों ही पक्षों में यदि तुलनात्मक देखा जाये तो विपक्ष के अंदर भीतरघात करने वाले यदि सौ लोग होंगे तो यहाँ भाजपा में उसकी संभावना उससे बहुत कम सिर्फ़ दस लोगों की ही है कारण कि नंगों से हर कोई डरता है।

Note—
आख़िर दारोमदार बूथ मैनेजमेंट और उसके बाद अलादीन के चिराग़ उर्फ़ ईवीएम पर टिकी हुई है और दोनों ही पॉइंट भाजपा के पक्ष में जाते है अतः मैं बेनिफिट ऑफ़ ऑल का लाभ देते हुए भाजपा को तीन सौ प्लस सीट आनी मान रहा हूँ। और यह मेरा स्टैंड है जो चार जून तक बना रहेगा बदलेगा नहीं।

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