Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

पत्रकारिता में बढ़ा हार्ट-अटैक और ब्रेन-स्‍ट्रोक का हमला, क्या हम अपने दोस्‍तों की सिर्फ तेरही-बरसी ही मनाते रहेंगे?

गैर-मान्‍यताप्राप्‍त पत्रकारों के प्रति सतर्कता की जरूरत, सन्दर्भ संतोष ग्वाला व सुरेन्द्र सिंह की अकाल मौत

कितनी अनियमित होती है आम पत्रकार की दिनचर्या। कभी दफ्तर के कामधाम में डूबा होता है, कोई खबर पकड़ने की आपाधापी में, तो कोई बाइट लेने की दौड़ा-भागी में। न खाने का वक्‍त और न कौर चबाने का मौका। कई बार तो ऐसा होता है जब एक पत्रकार जब सोने जाता है, वह समय होता है बच्‍चों के स्‍कूल की तैयारी का। और जब वह थका-चूर होकर घर लौटता है तो घर के सारे लोग अपनी ज्‍यादातर नींद पूरी कर चुके होते हैं। ऐसे में किसी को जगाने-परेशान करने का कोई औचित्‍य तक नहीं होता। सोने का वक्‍त आते ही अगली खबर की प्‍लानिंग-रूपरेखा को लेकर बचे-खुचे दिमाग के तन्‍तु-रेशे आपस में लबड़-झबड़ करना शुरू कर देते हैं।

<p><span style="font-size: 14pt;">गैर-मान्‍यताप्राप्‍त पत्रकारों के प्रति सतर्कता की जरूरत, सन्दर्भ संतोष ग्वाला व सुरेन्द्र सिंह की अकाल मौत</span> </p> <p>कितनी अनियमित होती है आम पत्रकार की दिनचर्या। कभी दफ्तर के कामधाम में डूबा होता है, कोई खबर पकड़ने की आपाधापी में, तो कोई बाइट लेने की दौड़ा-भागी में। न खाने का वक्‍त और न कौर चबाने का मौका। कई बार तो ऐसा होता है जब एक पत्रकार जब सोने जाता है, वह समय होता है बच्‍चों के स्‍कूल की तैयारी का। और जब वह थका-चूर होकर घर लौटता है तो घर के सारे लोग अपनी ज्‍यादातर नींद पूरी कर चुके होते हैं। ऐसे में किसी को जगाने-परेशान करने का कोई औचित्‍य तक नहीं होता। सोने का वक्‍त आते ही अगली खबर की प्‍लानिंग-रूपरेखा को लेकर बचे-खुचे दिमाग के तन्‍तु-रेशे आपस में लबड़-झबड़ करना शुरू कर देते हैं।</p>

गैर-मान्‍यताप्राप्‍त पत्रकारों के प्रति सतर्कता की जरूरत, सन्दर्भ संतोष ग्वाला व सुरेन्द्र सिंह की अकाल मौत

कितनी अनियमित होती है आम पत्रकार की दिनचर्या। कभी दफ्तर के कामधाम में डूबा होता है, कोई खबर पकड़ने की आपाधापी में, तो कोई बाइट लेने की दौड़ा-भागी में। न खाने का वक्‍त और न कौर चबाने का मौका। कई बार तो ऐसा होता है जब एक पत्रकार जब सोने जाता है, वह समय होता है बच्‍चों के स्‍कूल की तैयारी का। और जब वह थका-चूर होकर घर लौटता है तो घर के सारे लोग अपनी ज्‍यादातर नींद पूरी कर चुके होते हैं। ऐसे में किसी को जगाने-परेशान करने का कोई औचित्‍य तक नहीं होता। सोने का वक्‍त आते ही अगली खबर की प्‍लानिंग-रूपरेखा को लेकर बचे-खुचे दिमाग के तन्‍तु-रेशे आपस में लबड़-झबड़ करना शुरू कर देते हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

नतीजा, बीमारियों की आमद बिना किसी अग्रिम संकेत के किसी भी अच्‍छे-खासे पत्रकार के स्‍वास्‍थ्‍य के दरवज्‍जे की कुण्‍डी बजाय घर में घुस आ चुकी होती है। किसी को ब्‍लड-प्रेशर है तो किसी को सुगर। किसी को ब्रेन-स्‍ट्रोक हो जाता है, तो कोई हार्ट-अटैक के हमले से 50 फीसदी से भी सिमट जाता है। यह बात मैं अपने निजी अनुभव से कह रहा हूं। चार साल पहले मैं भी ब्रेन-स्‍ट्रोक से डगमगा चुका हूं। गनीमत है कि मैंने खुद को बहुत जल्‍दी सम्‍भाला, लेकिन मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि ज्‍यादातर पत्रकार इतने खुशनसीब नहीं होते हैं। आज अखबार वाले सुरेंद्र सिंह की छीछालेदर आप देख चुके हैं, जिन्‍हें कई दिनों पहले ही मौत ने शिकस्‍त दे दी थी। संतोष ग्‍वाला भी इसी में खप गये।

इसके 4 साल पहले मुझे भी एक जबरदस्त ब्रेन स्ट्रोक पड़ा। महीनों बिस्तर रहा। कई सेक्टर हमेशा के लिए बर्बाद हो गए। नुकसान अपूर्णनीय। लेकिन इसके बावजूद मैं बहुत जल्दी सम्हाल गया, मगर संतोष और सुरेन्द्र मौत के गाल में समा गए। हिसाम सिद्दीकी, शलभ मणि त्रिपाठी, रामदत्त त्रिपाठी, प्रांशु मिश्र, अलोक पांडेय, नवलकांत सिन्हा जैसे तमाम मित्र मजबूती के साथ खड़े रहे, जबकि आज पत्रकार एकता के डंके बजाने वाले बड़े पत्रकार न जाने किस बिल में घुसे ही रहे। झाँकने तक नहीं आये। मजे की बात यही लोग एकता के नाम पर एकता की किर्च-किर्च बिखार्ने की साजिश करते ही रहे। ख़ैर, ग्वाला और सुरेन्द्र की मौत के बाद अब हमारे सामने जिम्मेदारी है कि हम अपनी बिरादरी को मजबूत करें। अब खोजिए न, कि प्रदेश के दूरस्थ इलाकों में कितने पत्रकार खामोश मौत के प्रगाढ़ आलिंगन में चले गए। हमेशा-हमेशा के लिए।

Advertisement. Scroll to continue reading.

गजब है यार। इस तरह तो हमारे लोग एक-एक कर खपते जाएंगे और हमारा काम केवल उनकी याद में शोक-सभा आयोजित करना या तेरहीं-बरसी बनाता रह जाएगा। आज इसी समस्‍या पर चर्चा हो गयी। दोस्‍तों को लेकर बेहद आग्रही दीपक गिडवानी का कहना है कि पत्रकारों की बेहूदी दिनचर्या को लेकर अब जरूरत है कि हर पत्रकार अपने स्‍वास्‍थ्‍य को लेकर सजग रहे और कम से कम एक साल में दो बार अपने शरीर का पूरा चेकअप कराता रहे। दीपक का कहना है कि इसमें केवल डेढ़ से लेकर दो हजार रूपयों का ही खर्चा है, और फायदा यह कि आप अपने शरीर को किसी आसन्‍न खतरे को पहचान सकते हैं और उसे दूर कर सकते हैं।

Advertisement. Scroll to continue reading.

हर शख्‍स इस बात की जरूरत महसूस करता है। लेकिन उसे इस तरह की चिन्‍ता नहीं होती, जिसका इशारा दीपक गिडवानी ने किया। मैं दीपक की बात से पूरी तरह सहमत हूं। मैंने दीपक से कहा:- आइये दीपक। कल हम लोग इस मामले पर बात करते हैं। समय और जगह आप तय कर लीजियेगा।  बात तो ठीक है। हमने और दीपक ने तय किया है कि इस मसले पर हम शलभमणि त्रिपाठी, प्रांशु, ब्रजेश मिश्र, अनूप श्रीवास्‍तव, रामदत्‍त त्रिपाठी, शरद, योगेश मिश्र, मनोज रंजन त्रिपाठी, आलोक पाण्‍डेय, कमाल खान, नवल कान्‍त सिन्‍हा, घनश्‍याम शुक्‍ल, नीरज श्रीवास्‍तव, मुदित माथुर आदि दोस्‍तों के पास पहुंचें और उन्‍हें इस बारे में एक बड़ी बैठक की तैयारी सौंपने की जरूरत बतायें। यह सभी जिम्‍मेदार और संवेदनशील हैं, समस्‍या को चुटकियों में समझने और उसका निदान खोजने में सक्षम हैं।

मैंने यह भी कहा कि चूंकि किसी संस्‍था से सीधे-सीधे नियमित रूप से जुड़े पत्रकारों के लिए यह सतर्क रहने की जरूरत है, लेकिन जो पत्रकार मान्‍यता प्राप्‍त नहीं हैं, हमें उन पत्रकारों तक यह सुविधा मुहैया कराने की कोशिश करनी चाहिए। हमें देखना चाहिए कि कैसे गैर मान्यता पत्रकारों तक यह सुविधा मिल सकती है। गैर-मान्‍यताप्राप्‍त पत्रकारों का स्‍वास्‍थ्‍य हमारे लिए सर्वाधिक महत्‍वपूर्ण और सघन चिंता का विषय है। तो क्‍या किया जाए। पहला तरीका तो यह है कि इस मसले पर सीधे सरकार से बातचीत की जाए। इसके अलावा यह भी किया जा सकता है कि हमारा संगठन आईएमए यानी भारतीय स्‍वास्‍थ्‍य संघ (आइएमए) से बातचीत करे, जो हर जिले में अपने निजी या सरकारी सदस्‍यों को इस बारे में शिविर लगाने की कोशिश करें। लेकिन एक बड़ी बाधा सामने जरूर है। हमें अपने बीच पैठ बिठाये दलालों-बिचौलियों को चिन्हीकरण करना पड़ेगा, जो वाकई कुल-कलंक हैं, पत्रकारिता के चेहरे पर कालिख हैं और बाकायदा कोढ़ हैं, भले वो किसी दूरस्थ जिले के दूरतम कस्बे के हों या फिर यही लखनऊ में कुंडली मारे बैठे हों। अगर आप ऐसा कर सकते हैं तो यकीन मानिए, कल आपका ही है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

लखनऊ से वरिष्ठ पत्रकार कुमार सौवीर की रिपोर्ट.

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement