लड़ाई ऐसे नहीं लड़ी जाती शशि शेखर जी

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पटना में अपने संवाददाता की हत्या के बाद दैनिक हिन्दुस्तान अपने संवाददाता के साथ है, यह बड़ी बात है। मुझे नहीं पता पीड़ित संवादादाता हिन्दुस्तान के पेरॉल पर थे या स्ट्रिंगर। लेकिन इतिहास गवाह है, हिन्दी अखबार का संवाददाता मरता है तो वह स्ट्रिंगर ही होता है। मरने के बाद उसका संस्थान उससे पल्ला झाड़ लेता है। हिन्दुस्तान ने ऐसा नहीं किया बहुत बड़ी बात बात है। इसके लिए पूरे संस्थान की प्रशंसा की जानी चाहिए। पर संपादक जी एक दिन बाद जगे और लिख रहे हैं हम लड़ेंगे क्योंकि जरूरत है। बहुत ही लिजलिजा है।

इससे अच्छा संदेश तो पटना की टीम ने हत्या के बाद जो एडिशन निकाला उससे दे दिया था। कहने की जरूरत नहीं है, लाजवाब निकाला। लड़ने का तेवर वहां दिख रहा था। आपका लिखा तो औपचारिकता है। नौकरी बजाना है, शर्मनाक है। आपका लिखा पढ़कर मुझे याद आया जब इंडियन एक्सप्रेस की हड़ताल के दौरान जनसत्ता के तीन लोग घायल हुए थे तो इंडियन एक्सप्रेस प्रबंधन के साथ जनसत्ता ने क्या रुख अपनाया था और क्या तेवर था।

ठीक है, वह झगड़ा हड़ताल को लेकर था लेकिन एक्सप्रेस मैनेजमेंट उसे सरकार से लड़ाई के रूप में ले रहा था और वैसे ही तेवर थे। आप लड़ेंगे क्योंकि जरूरत है जमा नहीं। जरूरत तो बहुत पहले से है। आप अभी जगें हैं और नीन्द में ही लग रहे हैं। पाठकों के लिए मैं अपनी अप्रकाशित पुस्तक से एक्सप्रेस मैनेजमेंट की घोषणा और प्रभाष जी का लिखा पेश कर रहा हूं। यह बताने के लिए कि लड़ा कैसे जाता है। प्लेसमेंट के लिहाज से ही देखें तो पेज वन बॉटम हार्ड न्यूज नहीं होता है। प्लेसमेंट ही बहुत कुछ कह रहा है।

प्रबंधन की घोषणा 

दो दिसंबर 1987 को जारी कंपनी प्रबंधन की घोषणा के बारे में जनसत्ता ने लिखा था, “प्रबंधन ने जनसत्ता के बहादुर पत्रकारों पर कायराना हमले की निन्दा की है। प्रबंधन ने कहा है कि जनसत्ता के प्रदीप कुमार सिंह, संजय कुमार सिंह और महादेव चौहान पर टीएम नागराजन के गुंडों ने हमला किया। नागराजन गुंडों और कुछ बाहरी राजनैतिक ताकतों की मदद से इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता के दिल्ली के संस्करणों को बंद कराने पर तुले थे। दिल्ली दफ्तर के बहादुर साथियों ने उनकी कोशिश को नाकाम कर दिया। जनसत्ता के ये तीन साथी भी इन्हीं में से थे। जनसत्ता और एक्सप्रेस को निकालने के संकल्प के साथ जुटे इन युवकों की कोशिशों से दोनों अखबार निकले पर गुंडे नहीं चाहते थे कि अखबार हॉकरों तक पहुंच पाए। जब तक प्रदीप कुमार सिंह, संजय सिंह और महादेव चौहान जैसे लोग रहेंगे जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस को निकलने से कोई नहीं रोक सकता। 

प्रबंधन को इन बहादुर साथियों पर हुए हमले से गहरी ठेस पहुंची है। वह इन युवकों के साहस के सामने श्रद्धा से सिर झुकाता है क्योंकि वे खतरे से आमने सामने मुकाबला करते हुए घायल हुए हैं ना कि उससे कतराते हुए। हमले में पत्रकार शंभूनाथ शुक्ल, मनोज चतुर्वेदी और अजय शर्मा भी घायल हुए हैं। ये युवक दिन भर की मेहनत को अखबार विक्रेताओं तक पहुंचाने की गारंटी करने का असाधारण काम कर रहे थे। वह अखबार पहुंचाने वाली गाड़ियों की पहरेदारी कर रहे थे। प्रबंधन की घोषणा में कहा गया है कि वह सच्चाई के हक में इन साथियों के समर्थन की कोई भरपाई नहीं कर सकता लेकिन कृतज्ञता के एक छोटे से प्रतीक के रूप में प्रबंधन ने प्रदीप कुमार सिंह, संजय सिंह और महादेव चौहान के लिए 10,001 रुपए प्रत्येक और मनोज चतुर्वेदी, शंभूनाथ शुक्ल और अजय शर्मा के लिए 2001 रुपए प्रत्येक की कृतज्ञता राशि की घोषणा की है। (इस घोषणा के साथ हमले की खबर जनसत्ता, इंडियन एक्सप्रेस और फाइनेंशियल एक्सप्रेस – तीनों में प्रमुखता से छपी थी।)

प्रभाष जोशी ने लिखा था 

3 दिसंबर 1987 के जनसत्ता में पहले पेज पर छपी खबर के साथ प्रभाष जोशी का विशेष आलेख भी था। “तेजाब से बची आंखें”, शीर्षक से उन्होंने लिखा था, “एक्सप्रेस बिल्डिंग के कोने में लगे तंबू से कुछ थके लोग नारे लगा रहे हैं – मजदूर, मजदूर भाई-भाई और मजदूर एकता जिन्दाबाद। इन्हीं में से तीन-चार लोगों ने परसों रात जनसत्ता के उन आठ साथियों पर गुंडों से तेजाब, पत्थरों, लाठियों और सरियों से हमला करवाया जो प्रसार विभाग के मजदूरों की रक्षा में अपने दफ्तर से प्रताप भवन जाकर लौट रहे थे। इन उप संपादकों और संवाददाताओं से प्रसार विभाग के साथियों ने संरक्षण मांगा था क्योंकि हिंसा आतंक और सरकारी मदद से “हड़ताल” करने वाले मजदूर नेताओं ने अखबार न बंटने देने की धमकी दे रखी थी। लेकिन जनसत्ता के ये साथी अड़तालीस दिन बाद निकले अपने अखबार को पाठकों तक पहुंचाना चाहते थे। टाइम्स बिल्डिंग के सामने कोई पंद्रह-बीस लोगों ने उनपर घात लगाकर हमला किया। तेजाब से अपनी आंखें बचाकर भागते साथियों में से ट्रेनी उपसंपादक संजय सिंह गिर गया। उस लड़के को इन “हड़ताल बहादुरों” ने इतना पीटा कि सिर पर दर्जन भर टांके आए। 

इस हमले के डेढ़ घंटे बाद आए एसीपी वीरेन्द्र सिंह ने वहां तैनात बीसियों पुलिस वालों से यह नहीं पूछा कि उनके होते हुए हमला कैसे हुआ और हमलावर क्यों नहीं पकड़े गए। उन्होंने कहा कि इन जर्नलिस्टों को रात में वहां जाने की क्या जरूरत थी? दरियागंज पुलिस ने कहा कि ये पत्रकार चाय पीने निकले थे और हड़तालियों के तंबू के सामने से गुजरे इसलिए झगड़ा हो गया। लेकिन एसीपी वीरेन्द्र सिंह की सीख और पुलिस की गलतबयानी का क्या गिला? जिस बिल्डिंग के सामने इन पत्रकारों पर हमला हुआ वहां से निकलने वाले टाइम्स ऑफ इंडिया के स्वनामधन्य संपादक गिरिलाल जैन से कोई पूछे तो वे भी कहेंगे कि पत्रकारों को अखबार निकालने की जरूरत क्या थी? हड़ताल है अपने घर में बैठो। पत्रकार का आखिर क्या रोल है? क्या वह अंगरक्षक है जो अखबार लादने वालों के साथ जाए? उसका काम गुंडों से मजदूरों को पिटते देखना है और जब उसके खुद के साथ ही कोई बदसलूकी हो तो अपने अखबार में हड़ताल करवा के दूसरे दिन संपादकीय लिखना है। पत्रकार पर्यवेक्षक है जबतक उसकी कार रोककर पुलिस आईडेंटिटी कार्ड न मांगे। अगर पुलिस ऐसा कर दे तो पत्रकार को तथ्यों से आंख मूंदकर लिखने की आजादी है लेकिन यह भी तभी तक जब तक सरकार न रोके। 

ऐसे गिरिलाल जैन सब तरफ हैं इसलिए 28 अक्तबूर को अपना अखबार निकालने की एक्सप्रेस के लोगों की कोशिश पर जमीन आसमान एक कर देने वाले वाले आज चुप हैं। वे दबी जुबान से इसकी निन्दा भी नहीं करते हैं क्योंकि जैसा कि दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट की एक बैठक में कोई महासंघ के किसी अध्यक्ष संतोष कुमार ने कहा था, ‘हड़तालों में तो ऐसी हिंसा होती ही है।’ यूनियन हिंसा हिंसा न भवति! जनसत्ता के सोलह पत्रकार साथी यूनियन नेताओं के बताने पर गुंडों से पिट चुके हैं। न पुलिस ने कुछ किया है न पत्रकारों के वाचाल संघों ने। भले ही लोकतंत्र हो, सरकार की थोपी गई हड़ताल को तोड़ने और अखबार निकालने की कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी। संजय सिंह, प्रदीप सिंह, महादेव चौहान और मंगलेश डबराल ने अपने खून से यह कीमत चुका दी है और अभी किसी का भी उत्साह चुका नहीं हैं। दिल्ली हाई कोर्ट ने पुलिस को निर्देश दिया था कि एक्सप्रेस बिल्डिंग से 50 मीटर दूर तक धरना देना वालों को पहुंचाया जाए। उन्हें नहीं हटाया गया। पुलिस को एक्सप्रेस के लोगों के आने-जाने की सुरक्षा करने को कोर्ट ने कहा था। और बिल्डिंग के बाहर बीसियों पुलिस वालों के बावजूद तंबू से निकले लोगों ने हमला करवा दिया और वापस आकर सो गए लेकिन पुलिस ने नहीं देखा। जब घायल पत्रकार पानी के लिए चिल्लाते एक्सप्रेस भवन में भागे आए और उन्हें अस्पताल पहुंचा दिया गया तब भी पुलिस को कुछ मालूम नहीं हुआ। जब एक्सप्रेस के लोग हल्ला करते हुए पुलिस के पीछे पड़े तो किसी अफसर ने पूछा – कहां हुआ हमला, क्यों हल्ला मचा रहे हो ! मौके पर तैनात दरियागंज के थानेदार कालिया को जीप में सोते हुए से मैंने जब जगाया तो हमला हुए को आधा घंटा हो गया था। इसके बाद से रक्षा में तैनात पुलिस लगातार शिकायत करती रही कि पत्रकारों को बाहर जाने की क्या जरूरत थी और जाना ही था तो बता कर क्यों नहीं गए? सोने वालों और हमला होते हुए न देखने वालों को बताने से फायदा? पुलिस की पहरेदारी और वफादार प्रेस की पहरेदारी में कोई फर्क नहीं है। संजय सिंह, प्रदीप सिंह और महादेव चौहान भगवान की कृपा मानो कि मुंह पर फेंके गए तेजाब से तुम्हारी आंखें बच गईं। यही आंखें तुम्हे अपनी पत्रकारिता की सच्चाई दिखाएंगी।”

लेखक संजय कुमार सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं।

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Comments on “लड़ाई ऐसे नहीं लड़ी जाती शशि शेखर जी

  • संदीप ठाकुर says:

    हिंदी का पत्रकार ताे वैसे भी राेज तिल तिल कर मरता है….घर का किस्त भरने में,बच्चाें के स्कूल की फीस भरने में,बूढ़े मां-बाप के ईलाज में खर्च हाेने वाली रकम जुटाने में। पढ़ा लिखा हाेता है इसलिए भीख भी नहीं मांग सकता। किसी हिंदी पत्रकार का घर जाकर देखिए कभी…वह भी छाेटे जगहाें पर काम करने वाले पत्रकार का। शशि शेखर ने सीवान के पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या पर एक भावुक पीस लिख मारा…आैर हाे गई इतिश्री। मैं राजदेव रंजन काे नहीं जानता था …भगवान उनकी आत्मा काे शांति दे आैर उनके परिवारवालाें काे दुखः सहने का साहस। परंतु, इस हालात के लिए कौन जिम्मेदार हैं…साेचा है कभी पत्रकाराें ने। 28 साल से पत्रकारिता में हूं। हिंदी से तमाम बड़े अखवाराें में काम कर चुका हूं…नवभारत,हिंदुस्तान,राषट्रीय सहारा…आदि। मेरा अनुभव बताता है कि एेसी घटनाआें के लिए संपादक आैर अखबार का प्रबंधन जिम्मेदार है। खास ताैर से संपादक क्याेंकि संपादकीय विभाग से जुड़े लाेगाें काे रखने हटाने का काम वही करता है। राजदेव रंजन का पद जरूर ब्यूराे चीफ का था लेकिन उनकी सैलरी कितनी थी..क्या ने स्टाफर थे…उन पर सिर्फ खबर लिखने की जिम्मेदारी थी या फिर पैसे जुटाने की भी…दरअसल इनदिनाें हाे क्या रहा है। संपादक मैनेजमेंट से ठेका लेता है ..किस बात का। कम से कम पैसे में अखबार निकालने का। अपनी सैलरी लाखाें में आैर संवाददाताआें की सलरी हजाराें में। छाेटे शहराें में काम करने वाले मैं कई पत्रकाराें काे जानता हूं जिन्हें हिंदुस्तान जैसा बड़ा अखबार आठ-दस हजार रुपए महीने पर खटवाता है। शशिशेखर ने अपने कुछ लाेगाें काे छाेड़ समाचारपत्र में शायद ही किसी काे सम्मानजनक सैलरी दी है। हिंदी में पत्रकार वैसे भी बैगन के भाव उपलब्ध हैं। शशिशेखर जैसे संपादक इसी का लाभ उठाते हैं। चपरासी से भी कम तनख्वाह पर काम करने वाला पत्रकार क्या करे ? वह इधर उधर से कमाएगा,पापर्टी डीलिंग,दूकान मकान का काराेबार करेगा आैर फिर बेमाैत मारा भी जाएगा। मरने के बाद जिंदगी भर दूसराें की खबर छापने वाला खुद खबर बन कर रह जाएगा। कुछ दिन शाेर शराबा हाेगा आैर फिर मृतक परिवार के दरवाजे पर काेई झांकने तक नहीं जाएगा। हाल ही में मेरे अनुज अनूप झा की पत्नी ने फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली ..क्याें ? क्याेंकि एक हिंदी दैनिक में काम करने वाले अनूप की एक सड़क दुर्धटना में माैत हाे गई थी। खूब शाेर मचा। 20 साल नाैकरी करने के बाद भी अनूप इतना नहीं कमा पाए थे कि उनका परिवार दाे चार साल तक बैठ कर खा सके। माैत के एक साल के भीतर ही दाे बच्चाें काे छाेड़ उसकी पत्नी ने आत्महत्या कर ली। संपादकाें के मरसीहा पढ़ने से कुछ नहीं हाेगा। यदि ने सही में चाहते हैं कि पत्रकार बेमाैत न मारें जाएं ताे सबसे पहले सम्मानजनक सैलरी देने दिलवाने की शुरुआत करें…आज मजीठिया वेज बाेर्ड के पक्ष में कितने संपादकाें ने बाेला है….नाम पता हाे ताे जरूर बताएं….

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