अनिल यादव-
कबीरदास पर विशेषज्ञों की हिंदी-अंग्रेजी किताबें पढ़ते हुए, यदा-कदा लेक्चर सुनते हुए उनकी काव्यभाषा की छटा, अन्य पंथों का प्रभाव, आत्मा-पमात्मा के द्वैत-एकता और अध्यात्म की बारीकियों पर कुलीन मिठास (चीनी कम) वाला रसीला विमर्श परोसा मिलता है. बीच में गवैये और गायिकाएं हैं जो बिडंबना और हैरानी वाली जगहों पर इतनी जोर से बाजा बजाते हैं कि मस्ती छा जाती है.
कबीरपंथियों के पास जाते ही मिठास गंवई मेले वाली हो जाती है. साहेब बंदगी! से सादा सुमिरन होता है फिर कबीर साहेब रहस्यमय, चमत्कारी, अवतारी, समझ न आवनहारी हो जाते हैं. जब उन्मत्त हाथी सूंड़ उठाकर सलामी देने लगें, सूत पर बैठकर आकाश में शास्त्रार्थ होने लगे, शव फूलों में बदल जाए तो अन्य हिंदू देवताओं की तरह उनके आगे भी माथा नवाने के अलावा और क्या किया जा सकता है. धर्म की मामूली आलोचना (आलोचना भी नहीं सिर्फ जिक्र) पर ट्रालों की अक्षौहिणी के आक्रमण और सत्ता के कोप और फतवों के इस आधुनिक दौर में भी इन जगहों पर यह पता नही चलने पाता कि कबीर ने छह सौ साल पहले खरी-खरी कहने की क्या कीमत चुकाई, उसे झेलने में कैसे समर्थ हुए और कैसे बचे रहे.
लगता है भारतीय स्मृति का यथार्थ से बैर है. या तो कोई पैदा ही न हो. पैदा हो तो सात साल की उम्र तक यदि शेर के दांत न गिने, कालिया नाग को नाथ न दे, मगरमच्छ पकड़ कर घर न ले आए, उसे नायक की तरह लंबे समय तक याद नहीं रखा जा सकता. उसे रंदा मार कर स्मृति योग्य बनाना पड़ता है. गनीमत है Pratap Somvanshi की किताब, ‘लोई चलै कबीरा साथ’ की शुरूआत में ही काशी के पंडे, युवा कबीर को पीटने के बाद, एक गठरी में पत्थर के साथ बांध कर गंगा में फेंक आते हैं. बीच में पूरे परिवार का वध करने फरसा-भाला लिए जोगी घर पर चढ़ आते हैं. अंत में मुल्लाओं के पथराव का जिक्र आता है.
यह एक नाटक है जिसकी नायिका, उनकी पत्नी, एक मल्लाह की बेटी लोई है जो कबीर को गंगा में डूबने से बचाती है. सुहागरात में वह कबीर को सखा जानकर, कहती है कि वह तो एक साहूकार के बेटे से प्रेम करती है. कबीर उसे अपने साथ साहूकार के घर पहुंचाने ले जाते हैं ताकि दो प्रेमी मिल जाएं. यहीं से कबीर-लोई के बीच आत्मिक मैत्री का एक नया संबंध जन्म लेता है. लोई, निचली जातियों में स्थापित हो चुके संत कबीर से पूछने की हिम्मत रखती है, उनके भीतर इतना स्त्री द्वेष कहां से आया जो ‘चली है कुलबोरनी गंगा नहाय’ जैसा पद लिखा. हमला करने वाले जोगियों के आगे तन कर खड़ी हो जाती है और कहती है नारी को नरक का द्वार बताने वालों, तुम सब अपनी मांओं को छोड़कर भागे हुए हो. अगर तुम सही हो तो सारे ईश्वर स्त्रीविहीन क्यों नहीं है.
अंततः काफिर कबीर के साथ हिंदोस्तान के सुल्तान, सिंकदर लोदी के दरबार में खड़ी होकर कहती है, कौन सा इस्लाम है आपका जो औरतों को छोटा बताता है, उन पर कोड़े बरसाने को अल्लाह का कानून कहता है….और दंडस्वरूप में हाथी से कुचलवा दी जाती है. एक मामूली मल्लाह की बेटी, लोई एक स्वतंत्रचेता, निर्भीक और आध्यात्मिक औरत है जो कबीर की ताकत है. वह न होती तो कबीर भी वैसे न होते जैसे आज दिखाई देते हैं. जबकि लोई के बारे में जो कहानियां प्रचलित हुईं उसमें उन्हें दीन-हीन और पारंपरिक समर्पिता दिखाने की कोशिश हुई है. जैसे कि एक कहानी में अतिथि साधुओं के लिए घर में खाने में सामान न होने पर लोई, खुद को सामान के बदले गांव के सेठ को सौंपने की बात करती है और कबीर पहुंचाने जाते हैं.
प्रताप ने यह नाटक कोई दस-बारह साल के शोध और विशेषज्ञों से सलाह के बाद लिखा है जिसमें भक्तिकाल की एक जमीनी, मुखर और तेजस्वी औरत उभर कर सामने आई है. नाटक पढ़ते हुए कुछ चीजें खटकती हैं- जैसे, लोई और कबीर अपनी मैत्री पक्की करने के प्रतीक के रूप में अमेरिकनों की तरह ‘हाई-फाइव’ करते हैं. अगर उस समय के अनुरूप देहभाषा होती तो बेहतर होता…लेकिन यह भी हो सकता है इसे पीटर ब्रुक की महाभारत के ग्लोबल चरित्रों की तरह स्वीकार कर लिया जाए. इन दिनों अपने आसपास देखिए, वहां इस किताब की ही तरह समानता के एक साफ विचार की धमक है. सांप्रदायिक उन्माद के बीच घर, दफ्तर, सोशल मीडिया, स्टेडियम, झुग्गी बस्ती, राजनीति, सिनेमा हर कहीं साधारण औरतें लड़ती दिखाई दे रही हैं. वे संगठित नहीं हैं लेकिन बहनापे का एक आक्रामक आवेश और उसके अक्सर कामयाब न हो पाने का अफसोस महसूस किया जा सकता है. कुकिंग को हॉबी बताने वाले मर्द, कम से कम महानगरों में अक्सर टकराने लगे हैं. जमाने की हवा बता रही है, इस नाटक का अच्छा मंचन होगा तो मकबूल होगा.