गुरबत के दिनों में किसी घिसी हुई पतलून की जेब से कभी लापरवाही से रख छोड़े पैसे हाथ लग जायें तो कैसा महसूस होगा? मेहदी हसन की इन अनसुनी ग़ज़लों का खजाना हाथ लग जाने के बाद मुझे कुछ ऐसा ही लग रहा है। सदा-ए-इश्क मेरी जानकारी में मेहदी हसन साहब का अंतिम एल्बम था जो म्यूजिक टूडे वालों ने वर्ष 2000 के आस-पास निकाला था। इसके बाद केवल एक ग़ज़ल “तेरा मिलना बहुत अच्छा लगे है, मुझे तू मेरे दुःख जैसा लगे है” सुनने में आयी थी जो उन्होंने लता मंगेशकर के साथ गायी थी। इस ग़ज़ल में दोनों गायकों ने अपना-अपना हिस्सा भारत और पाकिस्तान में रेकार्ड किया था और बाद में इसकी मिक्सिंग भारत में हुई। एक साथ इन दो बड़े कलाकारों की यह संभवतः इकलौती और ऐतिहासिक प्रस्तुति थी। ग़ज़ल उन्हीं दिनों में सुनने में आयी जब मेहदी हसन साहब बीमार चल रहे थे और अपन ने भी मान लिया था कि इस खूबसूरत ग़ज़ल को खाँ साहब की अंतिम सौगात समझ लेना चाहिये।
इधर स्मार्ट फोन वगैरह से मैं काफी दिनों तक बचता रहा। एप का इस्तेमाल भी बहुत कम किया- खासतौर पर संगीत वाले। मुझे लगता रहा कि चूंकि ये नये जमाने की चीजें है इसलिये इनका संगीत भी वैसा ही होगा। पर कुछ दिनों पहले न जाने क्या सूझा कि “सावन” पर हाथ आजमाया और खाँ साहब को सर्च किया। जो नतीजा सामने आया वो चौंकाने वाला था। “दिल जो रोता है” नामक एक नया एल्बम सामने आया। इसकी पहली ही ग़ज़ल सुनकर “दी लिजेंड” नामक एल्बम की याद आयी जो खाँ साहब ने ललित सेन के साथ किया था और उसके आवरण में उनके हस्ताक्षरों के साथ यह बयान दर्ज था कि इतनी सादगी भरी पर खूबसूरत धुनों के साथ मैं पहली बार गा रहा हूँ। इस अल्बम की एक ग़ज़ल “मै होश में था तो फिर अपने ही घर गया कैसे” बेहद पापुलर ग़ज़ल थी। ललित सेन के साथ उनका एक और मशहूर एल्बम “तर्ज” था जिसमें उन्होंने शोभा गुर्टू के साथ ग़ज़लें गायी थीं। गणेश बिहारी तर्ज की एक मशहूर ग़ज़ल “इश्क की मार बडी दर्दीली” इसी एल्बम में थी। एक अपेक्षाकृत कम सुना गया एल्बम भी इसी दौर में उनका ललित सेन के साथ आया था, जिसका नाम तो मुझे याद नहीं है पर इसकी ग़ज़ल एक “दीवारो-दर पर नक्श बनाने से क्या मिला” मुझे बेहद पसंद थी। यह एल्बम मुझे भारत में अब दुर्लभ हो चली छोटी लाइन के एक स्टेशन नैनपुर की एक अनजानी सी दुकान में मिला था जो मूलतः लोहा-लंगड़ बेचने का काम करता था।
“दिल जो रोता है” सुनकर ललित सेन के साथ उनकी उसी जुगलबंदी की याद आती है पर ठीक-ठीक मालूम करना है कि इसका संगीत किसने तैयार किया है। पहली ग़ज़ल “दिल जो रोता है” मेहदी हसन साहब की ही आवाज में है और उनके खास अंदाज में। दूसरी ग़ज़ल चौंकाने वाली है। इस एल्बम की सबसे खूबसूरत ग़ज़ल -“‘दर्द के साज की लय और बढ़ा जायेगा, जो भी आयेगा कोई तार हिला जायेगा।” अगर आपको पहले से मालूम नहीं है तो यह जानकारी आपको बेहद सुकून देगी कि मेहदी हसन के साहबजादे आसिफ मेहदी को सुनकर आप मेहदी हसन साहब के चले जाने का ग़म गलत कर सकते हैं। तसल्ली दे सकते हैं कि खाँ साहब की आवाज और अंदाज जिंदा है और जो परंपरा उन्होंने कायम की वह आगे भी जारी रहने वाली है।
बस अब ओर ज्यादा नहीं। लिंक मैं नहीं दे रहा हूँ। थोड़ी सी मेहनत करें और मेहदी हसन साहब की उन अंतिम ग़ज़लों को सुनें जो किन्ही कारणों से सामने नहीं आ पायी थी। उन्हें भी जो मेहदी हसन साहब के काम और नाम को आगे बढ़ा रही हैं।
दिनेश चौधरी
भिलाई
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