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सियासत

संघ का मोदी पर से क्यों दरक रहा भरोसा?

केपी सिंह-

सन्निकट विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में मतदाताओं के रूझान को लेकर जो सर्वे किये जा रहे हैं उनके निष्कर्ष भाजपा के लिये खतरे की घंटी बजाने वाले हैं। लोकप्रियता में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपने प्रतिद्वंदियों से काफी आगे बने हुये हैं लेकिन भाजपा के माथे पर बल पड़ने की वजह राहुल गांधी की तेजी से बढ़ती स्वीकार्यता है जबकि मानहानि कानून के तहत दोषी ठहराये जाने के बाद अनुमान था कि राहुल गांधी जनमानस में खलनायक साबित होकर और ज्यादा नकारे जाने लगेंगे। भाजपा फिर भी मोदी के साथ उनके मुकाबले को अपने प्रोपोगैण्डा अभियान का केन्द्रीय तत्व बनाये हुये हैं लेकिन पहले की तरह पार्टी को इससे लाभ दिलाना संदिग्ध बन गया है। राहुल गांधी को उनकी भारत जोड़ो यात्रा के बाद गम्भीरता से लिया जाने लगा है, मोदी सरनेम मानहानि मामले में राहुल गांधी के अदालत से दण्डित होने और उन्हें आनन फानन लोकसभा की सदस्यता से वंचित किये जाने और उनका बंगला छीनें जाने से उनके प्रति तमाम नये लोगों में सहानुभूति उमड़ी है। इससे मोदी बनाम राहुल करने का दाव भाजपा के लिये बूमरैंग बनने लगा है।

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चर्चा तो यह है कि संघ के आन्तरिक सर्वे में भी भाजपा की डांवाडोल तस्वीर सामने आयी है जिसका प्रतिबिंब उसके मुख पत्र आर्गेनाइजर में प्रकाशित एक लेख में नजर आया है। इस लेख की देशभर में चर्चा हो रही है। लेख में कहा गया है कि भाजपा को केवल मोदी करिश्में के भरोसे नहीं रहना चाहिये। जिसे लेकर उसे चुनावी जीत के लिये विभिन्न राज्यों में मजबूत क्षेत्रीय नेतृत्व तैयार करने की सलाह लेख में दी गयी है। कांग्रेस ने प्रभावशाली क्षेत्रीय नेतृत्व और लोकल मुद्दों को आगे करके कर्नाटक में चुनावी जीत के जिस मंत्र को सिद्ध किया है संघ उसी मंत्र का अनुकरण करने की अपेक्षा भाजपा से कर रहा है।

भाजपा की जिस रणनीति ने अभी तक उसे सफलता दिलाई अब उस पर प्रश्न चिह्न लगाये जाने की जरूरत महसूस की जा रही है। भाजपा के पास पिछले 9 वर्षों के केन्द्रीय शासन में उठाये गये कदमों के मद्देनजर कई सकारात्मक उपलब्धियां हैं जिन्हें सामने रखकर वह प्रतिद्वंदी पार्टियों को पीछे छोड़ सकती है लेकिन मोदी का जोर शुरू से नकारात्मक रणनीति पर रहा है जिसमें विपक्ष का सफाया करके अपने लिये निद्र्वद्व वर्चस्व की जमीन बनाना शामिल है। यह उनकी निरंकुश ढंग से सत्ता संचालन का अवसर पाने की अभीप्सा का इशारा करती है और जिसके दुष्परिणाम पार्टी के हनीमून का दौर व्यतीत होने के बाद सामने आने लगे हैं।

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अब यह स्पष्ट हो चुका है कि उन्होंने नोटबंदी का कदम किसी वित्तीय सुधार के लिये नहीं उठाया था बल्कि विपक्ष को धनहीन करके बलहीन करने की भावना इसमें मुख्य रूप से निहित थी। इसलिये काले धन पर प्रहार, आतंकवादियों के वित्त पोषण पर चोट या जाली नोट के चलन को रोकने आदि नोटबंदी के जो उद्देश्य गिनाये गये थे उनमें से एक भी इसके कारण फलीभूत नजर नहीं आ सका।

कहा जाता है कि भाजपा ने तो दो हजार के अपने नोट बदलने का इंतजाम पहले ही कर लिया था जिसके बाद नोटबंदी की घोषणा हुयी लेकिन अन्य पार्टियों को दो-दो हजार के नोटो में एकत्र अपने अघोषित कोष को सही ठिकाने लगाने का पूरा अवसर नहीं मिला। अगर उसने नोट बदल भी पाये तो दलालों को कमीशन देने में वे बुरी तरह चूंक गयीं। इसके साथ राजनीतिक उद्देश्यों के लिये उठाये गये इस खब्ती कदम से आम लोगों को जिन गम्भीर समस्याओं से दो-चार होना पड़ा वे अगर इससे कोई फायदा मिला भी हो तो नगण्य हैं।

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अब यह बात छुपी नहीं रह गयी है कि जहां भी चुनाव आने वाले होते हैं उन राज्यों में प्रतिपक्षी नेताओं और उनके फाइनेंसरों पर ईडी, इनकम टैक्स के छापे पड़ने शुरू हो जाते है ताकि उनके वित्त पोषण की सप्लाई लाइन काटी जा सके। इसमें सरकार का पाखण्ड साफ उजागर है। क्या कोई पार्टी यह दावा कर सकती है कि उसके सारे लोग राजा हरिश्चंद्र के अवतार हैं फिर इन नौ वर्षों में भाजपा का कोई नेता मनलोंड्रिंग में क्यों नहीं फंस सका। यहां तक की अगर दूसरी पार्टी से घोटाले में लिप्त कोई नेता उसके पाले में आ गया तो ईडी और आयकर विभाग उसके दरवाजे की गैल भी भूल गये।

भाजपा के मोदी युग का जब तक नये नवेलेपन की चैधियाट का दौर रहा तब तक उसकी भ्रष्टाचार को पूरी तरह खतम कर देने की मुहंजोरी पर मतदाता न्योछावर होते रहे लेकिन कर्नाटक विधानसभा के हालिया चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा के कमीशन राज को टारगेट किया और उसे मुख्य रूप से इसी की बदौलत मात दे डाली जिससे जाहिर हो गया कि मतदाताओं की भाजपा के लिये भावुकता के वे दिन अब बीत चुके हैं और लोग स्थितियों का परिपक्वता पूर्वक यथार्थवादी आकलन करने लगें हैं। यह भाजपा के लिये मुसीबत शुरू होने का संकेत है।
इसी रणनीति का सहउत्पाद है जबरजस्त व्यक्तिवाद जिससे भाजपा में दूरगामी तौर पर सांगठनिक खोखलेपन की स्थितियां बन रहीं हैं भले ही संख्यात्मक आधार पर भाजपा दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बन गयी हो लेकिन यह मात्र सतही उपलब्धि है। उसका संख्यात्मक वृहदाकार कितना क्षणभंगुर है कर्नाटक विधान सभा के चुनाव में यह भी सामने आ चुका है वरना वहां भाजपा के पन्नास्तर के संगठन के सामने कांग्रेस की बिसात क्या थी। भाजपा में केन्द्रीय नेतृत्व से लेकर राज्यों के स्तर तक पायेदार नेताओं को ठिकाने लगाने का असर है कि अंदरूनी तौर पर पार्टी संगठन शक्तिहीन होकर पंगु बन गया है। इस पर चर्चा आगे पहले बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के अपने व्यक्तित्व को किसी भी जबावदेही से परे बनाने के लिये दैवीय रूप में प्रस्तुतीकरण की जिस पर उंगली उठाना कुफ्र जैसा हो गया है। इसलिये उनके खिलाफ पोस्टर छापने वालों, मीम बनाने वालों और टिप्पणी करने वालों को जेल भेजा गया है। आज बात बात पर यह दुहाई दी जाती है कि प्रधानमंत्री का असम्मान करने की जुर्रत कैसे की गयी जबकि पहले कभी ऐसा नहीं था। कांग्रेस के समय वाह री इन्दिरा तेरे खेल खा गयी शक्कर पी गयी तेल जैसे नारों को लेकर किसी विपक्षी कार्यकर्ता के यहां पुलिस यह कहते हुये नहीं पहुंचती थी कि ये प्रधानमंत्री के प्रति व्यक्तिगत तौर पर अशिष्टता है जिसकी सजा भोगनी पड़ेगी।

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लखीमपुर खीरी में शांतिपूर्ण ढंग से जा रहे किसानों पर मंत्री पुत्र द्वारा जीप चढ़ाये जाने को लेकर तत्काल मंत्री पर कड़ी कार्यवाही होनी चाहिये थी क्योंकि टैनी महाराज ने इस काण्ड के संबंध में अपने बेटे को बचाने के लिये गुमराह करने वाला बयान दिया था पर उनका विभाग तक नहीं बदला गया। जाहिर है कि मंत्री का संरक्षण करने की हिमाकत इसलिये दिखाई गयी क्योंकि इससे सरकार पर उंगली उठाने वाली जनता का मनोबल बढ़ता। किसान आंदोलन के समय सात सौ किसानों की जानें चली गयीं लेकिन सरकार नहीं पसीजी। सयानों ने मीडिया के माध्यम से प्रधानमंत्री को सलाह दी कि उन्हें गतिरोध खत्म करने के लिये स्वयं चाय पर बुलाकर किसानों से चर्चा कर लेनी चाहिए लेकिन यह सलाह कैसे मानी जाती। प्रधानमंत्री को जनता के सामने झुकना अपना मान मर्दन लगता है। वे चाहते है कि मनोवैज्ञानिक तौर पर लोग इतने पस्त हो जायें कि उनके किसी फैसले के खिलाफ सोचना तक बंद कर दें भले ही इससे लोकतंत्र एक सजावटी आइटम भर बनकर रह जाये। यौन उत्पीड़न के आरोपो से घिरे सांसद बृजभूषण सिंह का इकबाल भी उसके लिये मान सम्मान का सवाल बन गया है जबकि पूरी दुनिया में इसके कारण देश की बदनामी हो रही है।

संघ बदलते समय की आहट देख अब महसूस करने लगा है कि उसने मोदी को जरूरत से ज्यादा छूट दी। हालांकि उसके एजेंडे को फलीभूत करने के लिये उन्होंने जो मजबूत इच्छा शक्ति दिखाई संघ को उसका आभार मानना ही था। अटल जी तो उदार थे लेकिन अपने को सरदार पटेल के बाद दूसरे लौहपुरूष के सम्बोधन से नवाजे जाने पर मुग्ध रहने वाले लाल कृष्ण आडवाणी भी अयोध्या में रामलला मन्दिर बनवाने, अनुच्छेद 370 को हटाने और समान नागरिक संहिता लागू करने जैसे कदम उठाने की दिशा में एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सके थे लेकिन मोदी ने सीना तानकर यह सब किया (समान नागरिक संहिता अभी लागू नहीं हो पायी है। शायद लोकसभा चुनाव के एलान के पहले इसे लागू कर दिया जायेगा।) और इसके बावजूद राजनीतिक जोखिम झेलने की बजाय चुनाव में मजबूत समर्थन जुटाया। राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति के मामले में भी उनका जोड़ नहीं रहा लेकिन स्वस्थ्य परंपराओं को विकसित करने में उन्होंने कोई रूचि नहीं ली।

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अटल आडवाणी की भाजपा में पार्टी विद ए डिफरेंस का जो आग्रह था संघ उसका पूरी तरह समर्थन करता था पर मोदी ने यह ट्रैक बदलकर पार्टी की नैतिक साख को जिस तरह कमजोर किया है उसे संघ पचा नहीं पा रहा है। संघ हिंदुत्व को मर्यादाओं से जुड़ा देखता था और उसकी हिन्दू राष्ट्र की कल्पना में इसकी गरिमा का पुट था लेकिन मोदी की अपने व्यक्तित्व में दम्म जैसी कवियों की वजह से उनके हाथ में पड़कर हिंदुत्व जिस तरह से उददंड हुआ है वह संघ की अपेक्षाओं के प्रतिकूल है। उददंडता इस सीमा तक कि इसके चलते समावेशी हिंदुत्व भी लहूलुहान होने लगा है।

अतीत की गलतियों के दोहराव को रोकने के लिये संघ प्रमुख स्वयं जातिगत अहंकार के शमन के लिये आगे आये तो उनके प्रतिवाद तक का दुस्साहस कर डाला गया। उम्र के हिसाब से भी मोदी के मामले में संघ को यथार्थवादी होने की जरूरत महसूस हो रही हो तो अन्यथा क्या है। उसके सामने आदर्श हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के लिये बहुत आगे के भविष्य की रूपरेखा बनाने का कार्यभार है इसलिये मोदी के उत्तरार्ध के इस मोड़ पर कमान अपने हाथ में लेकर भाजपा में उसके द्वारा प्रभावी हस्तक्षेप के आसार बन चुके हैं और देश की राजनीति की आगे के बिसात इसी पर तय होनी है।

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