सुप्रीम कोर्ट की कसौटी पर खरा उतरा दिवालिया कानून… लोन डिफॉल्टर्स पर शिकंजा कसने के लिए इन्सॉल्वंसी ऐंड बैंकरप्सी कोड…
उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड (आईबीसी) यानी दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता की संवैधानिक वैधता को लेकर बड़ा फैसला सुनाया है. उच्चतम न्यायालय ने दिवाला एवं शोधन अक्षमता संहिता की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा है. न्यायमूर्ति आर. एफ. नरीमन की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि वे संपूर्णता में इसकी संवैधानिक वैधता को मान्यता देते हैं. न्यायालय ने 16 जनवरी को इस पर फैसला सुरक्षित रखा था. हालांकि न्यायालय ने यह साफ किया कि अधिनियम में संबंधित पक्ष से आशय कारोबार से जुड़ा कोई व्यक्ति होना चाहिए. इसी के साथ न्यायालय ने कई कंपनियों द्वारा आईबीसी के कई प्रावधानों को चुनौती देने वाली सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया.
गौरतलब है कि मोदी सरकार ने लोन डिफॉल्टर्स पर शिकंजा कसने के लिए इन्सॉल्वंसी ऐंड बैंकरप्ट्सी कोड बनाया था. इसमें इनसॉल्वेंसी प्रोसेस का सामना कर रही कंपनियों को प्रमोटर्स के हाथों में सौंपने से रोकने का प्रावधान किया गया है. इससे इन कंपनियों के प्रमोटर्स का वापस इन कंपनियों पर कंट्रोल करना लगभग असंभव हो गया है.
फैसले के मुताबिक कानून में एकमात्र बदलाव संबंधित व्यक्ति की परिभाषा में होगा. नई परिभाषा के मुताबिक वहीं व्यक्ति संबंधित व्यक्ति माना जाएगा, जो कर्जदाता या डिफॉल्ट कर चुकी कंपनी से संबंधित होगा यानी अधिनियम में संबंधित पक्ष से आशय कारोबार से जुड़ा कोई व्यक्ति होना चाहिए. दिवालिया कानून को जून 2017 में लाया गया था, जब आरबीआई ने बैंकों को ये निर्देश दिए थे कि वे 12 बड़े कर्जदारों का मामला नेशनल कंपनी लॉ ट्रीब्यूनल में ले जाएं. बैंकों के बकाया 8 लाख करोड़ रुपये का करीब 25 प्रतिशत हिस्सा इन 12 कंपनियों पर बाकी था।इनमें से केवल पांच का मामला अब तक सुलझ पाया है.
डिफॉल्टर्स में जवाबदेही बढ़ी
गौरतलब है कि देश में इनसॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्सी कोड लागू हो जाने के बाद से अचानक बैंक डिफॉल्टर कंपनियों में मामलों के जल्द निपटारे को लेकर हलचल बढ़ गई है. तय वक्त में डिफॉल्टर कंपनियों के मामले का निपटारा हो रहा है।बैंकों को डिफॉल्टर कंपनियों के पीछे भागना नहीं पड़ रहा, बल्कि खुद कंपनियां नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) के जरिये निपटारे के लिए पहल कर रही है. दरअसल, इनसॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्सी कोड इस तरह के प्रावधान हैं कि तय समय तक अगर किसी ने लोन नहीं अदा किया तो कंपनी को बेचकर बैंक कर्ज की राशि वसूल की जा सकती है. इसने कंपनियों में खलबली मचा दी है.
300 मामले एनसीएलटी के पास
इनसॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्सी कोड लागू होने के बाद अबतक 300 से अधिक मामले एनसीएलटी में दर्ज हो चुके हैं। ये मामले आरबीआई की ओर से डिफॉल्टरों की लिस्ट जारी करने और इनसॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्सी कोड लागू होने के बाद आए हैं.
विलफुल डिफॉल्टर्स
दरअसल दिवालिया कानून विलफुल डिफॉल्टर्स यानी जानबूझकर कर्ज नहीं चुकाने वालों के लिए बेहद खतरनाक है. दिवालिया कानून ने उन कंपनियों के मन में भी खौफ पैदा कर दिया है, जो लोन ले रही हैं या लेना चाहती हैं. अगर उन्होंने लोन नहीं चुकाया तो उनका हश्र भी इन्हीं विलफुल डिफॉल्टर्स की तरह होगा.
कर्ज वसूलने के लिए दो तरीके
इनसॉल्वेंसी ऐंड बैंकरप्सी कोड के तहत अगर कोई कंपनी कर्ज नहीं देती है तो उससे कर्ज वसूलने के लिए दो तरीके हैं। एक या तो कंपनी को दिवालिया घोषित कर दिया जाए। इसके लिए एनसीएलटी की विशेष टीम कंपनी से बात करती है। कंपनी के मैनेजमेंट के राजी होने पर कंपनी को दिवालिया घोषित कर दिया जाता है और उसकी पूरी संपत्ति पर बैंक का कब्जा हो जाता है। बैंक उस असेट को किसी अन्य कंपनी को बेचकर कर्ज की राशि वसूलता है। बेशक यह राशि कर्ज की राशि से कम होता है, मगर बैंक का पूरा कर्जा डूबता नहीं है।कर्ज वापसी का दूसरा तरीका है कि मामला एनसीएलटी में ले जाया जाए। कंपनी के मैनेजमेंट से कर्ज वापसी पर बातचीत होती है। 180 दिनों के भीतर कोई समाधान निकालना होता है। कंपनी को उसकी जमीन या संपत्ति बेचकर कर्ज चुकाने का विकल्प दिया जाता है। ऐसा न होने पर कंपनी को ही बेचने का फैसला किया जाता है। खास बात यह है कि जब कंपनी को बेचा जाता है तो उसका प्रमोटर या डायरेक्टर बोली नहीं लगा सकता।
बैंकरप्सी क्या है?
बैंकरप्सी एक ऐसी स्तिथि है जिसमे देनदार लेनदारों को लोन चुकाने में असमर्थ होता है। इंसोल्वेंसी का मतलब व्यक्तियों या निगमों को अपने कर्ज चुकाने में असमर्थता है और बैंकरप्सी मतलब दिवालियापन की कानूनी घोषणा है।इस कानून के तहत कंपनी को समाप्त करने के बारे में 180 दिनों के भीतर फैसला लेना होगा। इसके अलावा फास्ट ट्रैक अप्लीकेशन को भी 90 दिनों में निपटाना होगा। भारत की अदालतों में करीब 60,000 बैंकरप्सी के मामले पेंडिंग हैं। विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, भारत में एक कंपनी समेटने में औसत 4.3 साल लगते हैं। इससे बाहर निकलने के बजाय तो एक नया बिज़नेस शुरू करना आसान है।

लेखक जेपी सिंह इलाहाबाद के वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं.