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सुख-दुख

पाकिस्तान में मेरी रेल यात्रा : मैं सिर पर कफ़न बांधे बैठा था कि टिकट चेकर आ गए!

असगर वजाहत-

पाकिस्तान में ट्रेन का सफ़र… सन 2011 में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के जन्म शताब्दी समारोह में पाकिस्तान जाना हुआ था। लौटकर मैंने 40 दिन की सघन यात्रा पर एक किताब लिखी थी जो रवींद्र कालिया ने ज्ञानोदय में छापी थी और उसे ज्ञानपीठ ने किताब की शक्ल में छापा था। उस किताब में ‘पाकिस्तान में ट्रेन के सफर’ का जिक्र भी है। लेकिन लॉकडाउन के दिनों में जब करने को कुछ नहीं है तो सोचा पाकिस्तान में ट्रेन के सफर को फेसबुक के दोस्तों के साथ शेयर कर दिया जाए।

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मेरे पाकिस्तान जाने से पहले कई दोस्तों ने पाकिस्तान में दो काम न करने की सलाह दी थी। पहली सलाह यह थी कि मैं पाकिस्तान में रेल यात्रा न करूं । दूसरी सलाह थी कि मैं कराची के डाउनटाउन इलाके में पैदल घूमने की कोशिश न करूं। शुभचिंतकों और दोस्तों की सलाह के विपरीत मैंने यह दोनों काम किए।

पाकिस्तान में मेरी ट्रेन यात्रा को केवल मेरा व्यक्तिगत अनुभव माना जाए। इस आधार पर कोई बड़े निष्कर्ष न निकाले जाएं।

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मुल्तान (मूल स्थान) का रेलवे स्टेशन एक शाहकार है, एक मास्टरपीस है। उसकी एक दिलचस्प तस्वीर मिली है जो पार्टीशन से पहले की है। लेकिन तस्वीरों में मुल्तान रेलवेस्टेशन की भव्यता ठीक से नजर नहीं आती।

स्टेशन पहुंचने पर पता लगा की बहाउद्दीन एक्सप्रेस जो मुल्तान से कराची जाती है चार घंटा लेट है। अपने लोकल गाइड जाफरी साहब के साथ चाय पीते और गप्प मरते चार घंटे बिता दिए। ट्रेन आई। फर्स्ट क्लास कंपार्टमेंट के कूपे में बैठकर यह लगा के पूरा कोच बहुत पुराना है।

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सर्दियों के दिन थे। मैंने जाफरी साहब से पूछा कि क्या यहां बिस्तर वगैरह मिलेगा?

जाफरी साहब ने कहा, यहां आपको एक रुमाल भी न मिलेगा।

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मैंने कहा, तब तो रात में बहुत सर्दी लगेगी ।

जाफरी साहब ने बताया कि जैसे-जैसे ट्रेन कराची की तरफ बढ़ेगी वैसे-वैसे सर्दी कम होती चली जाएगी…

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कुछ देर के बाद जाफरी साहब चले गए और मैं डिब्बे का मुआयना करने लगा। छः बर्थ वाला कूपे था । सीटों पर जो रक्सीन चढ़ा हुआ था उस पर जगह जगह सिलाई की हुई थी और उस पर ER लिखा था। मैंने मतलब लगाया ईस्टर्न रेलवे । लेकिन पाकिस्तान में तो ईस्टर्न रेलवे जैसी कोई चीज है नहीं। फिर ये क्या है?

डिब्बे की छत पर लाइट के पांच पॉइंट थे लेकिन चार पॉइंट्स से तारों के गुच्छे लटक रहे थे। पांचवें पॉइंट से एक तार लटक रहा था जिसमें एक बल्ब लगा था। स्विच बोर्ड से भी तारों का गुच्छा लटक रहा था। मतलब यह कि बल्ब जलाने बुझाने या पंखा चलाने के लिए तारों को जोड़ना पड़ता है और जो नहीं जानता किस-किस तार से कौन सा तार जुड़ेगा वह बैठा रहे। खिड़कियों के जो शीशे बंद थे उन्हें खोलना और जिनके खुले थे उन्हें बंद करना मुझे अपने बस की बात नहीं लग रही थी। खिड़की के शीशों से बाहर देखने के लिए काफी कल्पना करना पड़ती थी जो मेरे लिए मुश्किल न था।

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कूपे का एक टॉयलेट भी था। मैंने टॉयलेट का दरवाजा खोल कर देखा तो सीट की जगह एक इतना बड़ा ‘होल’ था कि पूरा आदमी नीचे चला जाय। इतना तय था कि टॉयलेट का इस्तेमाल टॉयलेट के अंदर जाकर नहीं किया जा सकता। हां टॉयलेट का दरवाजा खोल कर टॉयलेट के बाहर खड़े होकर कुछ कोशिश की जा सकती थी। लेकिन दूसरे यात्रियों की मौजूदगी में ऐसा करना शायद अपराध माना जाए। मैं पाकिस्तान में सब कुछ कर सकता था लेकिन अपराध नहीं।

ट्रेन छूटने का नाम नहीं ले रही थी। मैं कूपे में अकेला था। अचानक कूपे के दरवाजे के अंदर आता मानव शरीर का एक ऐसा अंग नजर आया जो पहले कभी नहीं देखा था। कुछ ही क्षण बाद पता चला कि यह एक भिखारी का कटा और सूजा हुआ हाथ था जिसे उसने दरवाजे के अंदर डालकर मेरे अंदर भय और दया का भाव पैदा करने की कोशिश की थी। कुछ क्षण बाद उसका सिर भी दिखाई दिया। मैंने हाथ जोड़कर उससे माफी मांग ली और वह आगे बढ़ गया। इसके बाद एक – दो भिखारी और आये लेकिन मैंने किसी को कुछ नहीं दिया।

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ट्रेन बेमन से चलने लगी। ट्रेन के चलते ही टॉयलेट से चुड़ियों के चहचहाने जैसी आवाजें आने लगी। यह बात समझ में नहीं आई। क्या टॉयलेट की छत पर चिड़ियों ने अपना घोंसला बना रखा है ? और अगर ऐसा है तो ट्रेन चलने से पहले उनकी आवाज क्यों नहीं सुनाई दी? और फिर लगातार उनके बोलने की आवाज कैसे आ रही है? कुछ जांच करने पर पता चला कि ये चिड़ियों की आवाज नहीं है बल्कि लोहा लोहे से या तार तार से है या लकड़ी लकड़ी से या ये सब एक दूसरे से टकराते हैं तो यह आवाज़ पैदा होती है।

ट्रेन इतनी मंद गति से चली जा रही थी कि कोई भी बड़ी आसानी से चढ़ या उतर सकता था। सोचा, डिब्बे में अकेला हूं। कोई एक आदमी छोटा सा चाकू ले कर भी अगर आ गया तो मुझे अपना फोन और पर्स देना पड़ेगा। इसलिए मुझे लुट जाने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। मैंने अपना पर्स खोल कर बड़ी रकम निकाल ली और उसे सामान के थैले में छुपा दिया । यह तय कर पाना थोड़ा मुश्किल था कि पर्स में लुटने के लिए कितनी रकम छोड़ी जाए ।अगर पर्स में लुटेरे को बहुत कम पैसे मिले तो हो सकता है उसे गुस्सा आ जाए और वह मुझे मारना पीटना शुरू कर दे । इस तरह के किस्से मैंने सुने थे। इसलिए पर्स में पहले मैंने दो सौ छोड़े ….लगा बहुत कम हैं , फिर पांच सौ रखे, उसके बाद हज़ार रख दिए। मैंने सोचा पाकिस्तानी एक हजार रुपया हमारे पांच सौ के बराबर होता है। अगर लुटेरा हजार रुपया ले भी गया तो यह मानकर मुझे कुछ तस्कीन मिलेगी कि वह सिर्फ पांच सौ ले गया है। मोबाइल फोन निकाल कर कुछ जरूरी नंबर एक कागज पर नोट किए। पर्स और मोबाइल को बिल्कुल अपने बराबर इस तरह रख लिया कि अगर लूटने वाला आए तो उसे बहुत तकलीफ न हो और उसे तकलीफ नहीं होगी तो मुझे भी तकलीफ नहीं होगी।

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सफर करने के दौरान मैं बार-बार जेब से टिकट निकाल कर चेक करता रहता हूं। मुझे लगता है कि टिकट, टिकट नहीं है, कोई चिड़िया है जिसे मैंने जेब में रखा हुआ है और वह मौका पाते ही उड़ जाएगी।

मैंने तीसरी बार मुल्तान से कराची जाने का टिकट निकाल कर बहुत ध्यान से पढ़ना शुरू किया। टिकट के पीछे उर्दू में साफ-साफ लिखा हुआ था की टिकट चेकर आईडी चेक करेगा। मैंने अपने टिकट पर लिखी आईडी देखी तो मेरे होश उड़ गए। जाफरी साहब के नौकर ने टिकट खरीदा था और टिकट पर अपनी आईडी लिखवा दी थी। अब टिकट चेकर जब देखेगा कि टिकट पर लिखी आईडी दूसरी है और मेरी आईडी एक हिंदुस्तानी पासपोर्ट है तो वह क्या करेगा? फौरन पुलिस को रिपोर्ट करेगा कि एक हिंदुस्तानी या भारती फेक आईडी पर यात्रा कर रहा है । पुलिस को जैसे ही यह जानकारी मिलेगी वह मुझे ट्रेन से उतार लेगी। फेक आईडी पर कौन सफर करते हैं? जासूस या अपराधी या भगोड़े ।और इन तीनों को सजा दी जाती है। मुझे गिरफ्तार करते ही पुलिस किसी स्टेशन के हवालात में बंद कर देगी।

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ट्रेन के फर्स्ट क्लास कूपे का जब यह हाल है तो हवालात कैसा होगा इसकी कल्पना करना बहुत मुश्किल न था। पुलिस जब यह पूछेगी कि आपको वीजा तो दिया गया था लाहौर में फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’ के जन्म शताब्दी समारोह में शामिल होने का।आप मुल्तान में क्या कर रहे थे? क्यों गए थे? और फिर कराची क्यों जा रहे हैं? क्या करेंगे ? इन सब सवालों का मेरे पास कोई जवाब न होगा तब मेरे ऊपर मुकदमा शुरू हो जाएगा। पता नहीं कितना लंबा चलेगा। फिर सजा होगी। वह भी पता नहीं कितनी होगी।

मोहनलाल भास्कर की किताब ‘मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था’ मेरी निगाहों के सामने से गुजरने लगी। मोहनलाल भास्कर को जितना टॉर्चर किया गया था उसका पांच परसेंट भी मुझे किया गया तो मैं पाकिस्तान से ही नहीं दुनिया से गुज़र जाऊंगा। ये यह सब सोचकर चक्कर आने लगे । सबसे बड़ी मुश्किल तो यह थी कि अब कुछ न किया जा सकता था। मैं अगर जाफरी साहब को फोन भी करता तो वह क्या कर सकते थे?

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मैं सिर पर कफ़न बांधे बैठा था कि टिकट चेकर आ गए। उन्होंने बैठते ही अपना चार्ट फैला दिया। मैंने अपना टिकट बढ़ाया। उन्होंने चार्ट पर ज्यादा गौर किया मेरे टिकट पर कम । और फौरन ही टिकट पर हिंदी के चार जैसी लाइन खींच कर टिकट मुझे वापस कर दिया और बग़ैर कुछ कहे उठ कर चले गए। मेरी जान में जान आई।
मुझे लगा आस्थावान हो जाने का एक मौका मैंने खो दिया है। अगर टिकट चेकर के आने से पहले कोई मन्नत, मनौती मान ली होती तो कितना अच्छा होता है।

जैसे-जैसे रात बढ़ रही थी वैसे वैसे सर्दी लगना शुरू हो गयी थी । मेरे पास कोई गरम कपड़ा न था इसलिए एक कमीज के ऊपर दूसरी कमीज पहन ली। कुछ देर बाद फिर सर्दी लगने लगी तो तीसरी कमीज पहन ली। एक पेंट के ऊपर दूसरी पैंट पहन ली।

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इतना सब कुछ पहनने के बाद मैंने सोचा कि अगर इस कूपे में कोई दूसरा मुसाफ़िर आया तो मुझे यकीनी तौर पर पागल समझेगा। लेकिन मुश्किल यह थी कि मैं और कुछ न कर सकता था। वैसे कूपे की रोशनी मेरा साथ दे रही थी। रात आधी से ज़्यादा गुज़र चुकी थी। अब तक कूपे में अकेला मैं किसी संभावित खतरे की शंका से मुक्त नहीं हो पाया था। कराची बहुत दूर थी।

सर्दी इतनी बढ़ गई थी कि मैं कूपे में टहलने पर मजबूर हो गया था। एक स्टेशन पर ट्रेन रुकी। बाहर प्लेटफार्म से ‘चाय चाय’ की आवाजें आने लगीं । मैंने चाय वाले को आवाज दी लेकिन कोई नहीं आया। मैंने कुछ और ऊंची आवाज में चाय वाले को पुकारा लेकिन कोई नहीं आया। फिर मैं चीखने लगा लेकिन कोई चाय वाला नहीं आया।
ट्रेन रेंगने लगी। इतना चीखने चिल्लाने से सर्दी और ज्यादा लगने लगी थी लेकिन कूपे के अंदर टहलने के अलावा और कोई रास्ता न था। शायद मैं सभी कपड़े पहन चुका था क्योंकि बैग काफी खाली लग रहा था।

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अगले स्टेशन पर भी यही हुआ। बात समझ में आई कि चाय वाले हैं फर्स्ट क्लास कंपार्टमेंट की तरफ नहीं आते। इसका मतलब यह था की पूरी रात मुझे चाय न मिल सकेगी और कूपे में टहलते हुए रात गुजारनी पड़ेगी।

लेकिन चाय के मामले में किस्मत इतनी खराब नहीं थी। एक बड़े स्टेशन पर चाय वाला आया मैंने उसे सौ का नोट दिया और पांच चाय मांगी। उस जमाने में पाकिस्तान में बीस रुपये की एक चाय मिला करती थी। चाय वाले ने मेरी तरफ कुछ अजीब नजरों से देखा लेकिन जल्दी ही खिड़की पर उसने छोटे-छोटे चाय के पांच कप रख दिए। एक कप मैंने फौरन हलक में उंडेल लिया। लगा गला ऊपर से नीचे तक किसी ने चाकू से काट दिया हो। चाय सकरीन में बनाई गई थी ।लेकिन इस तकलीफ के बावजूद मैं चार कप चाय और पी गया। सोचा हलक का जो हाल होगा सो देखा जाएगा फिलहाल सर्दी से बचने का इंतजाम जरूरी है।

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बहावलपुर स्टेशन पर ट्रेन रुकी तो कूपे में एक साहब आ गए ।अधेड़ उम्र वाले दुबले पतले सज्जन ने ऊपर की सीट पर अपना बिस्तर बिछाया और सामने बैठ गए । मुझसे पूछने लगे, क्या मैं सिगरेट पी सकता हूं?

मैंने कहा, जरूर जरूर पियें।

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मैं उनसे यह कह नहीं सकता था कि उनके आ जाने से मैं इतना खुश हूं कि अगर वो कुछ और भी कहते तो मैं उसके लिए भी तैयार हो जाता।

सिगरेट पीने के बाद सज्जन ऊपर चले गए। लेट गए और शायद जल्दी ही सो गए। मैं उनको दिखाने के लिए सीट पर लेट गया लेकिन नींद आने का सवाल न था। छोटी-छोटी झपकियां आती रहीं। इसी दौरान किसी स्टेशन पर तीन लोग कूपे में और आए। इनमें दो आदमी थे और एक महिला। आते ही तीनों ने लंबी तानी।

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सूरज नहीं निकला था लेकिन हल्का सा उजाला हो गया था। मैंने खिड़की से बाहर देखा। दूर एक तालाब दिखाई दिया जिसका पानी चमक रहा था। तालाब के किनारे एक दो मंजिला कच्चा मकान नजर आया जिसकी एक खिड़की से रोशनी आ रही थी। दूसरी तरफ खजूर के कुछ पेड़ भी खड़े थे। मैंने कैमरा निकाला और सोचा, रात भर तकलीफ उठाने के बाद अगर सुबह एक अच्छी तस्वीर मिलती है तो यह घाटे का सौदा न होगा।

मैंने कई बार कैमरा क्लिक किया। सामने की सीट पर लेटी महिला जाग गयीं।

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उन्होंने मुझसे कहा – लगता है आपको फोटोग्राफी का बड़ा शौक है?

मैंने कहा – मैं जो कुछ देख रहा हूं वह शायद दोबारा न देख सकूंगा…. इसलिए चाहता हूं कि जो कुछ अच्छा नजर आ रहा है उसे कैमरे में कैद कर लूं।

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महिला ने कहा – आप कहां से आए हैं?

पाकिस्तान में जिन लोगों ने मुझसे यह सवाल किया था कि आप कहां से आए हैं उनको मैंने एक ही जवाब दिया था और वह यह कि मैं दिल्ली से आया हूं।

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इस जवाब के पीछे छिपी धारणा, विश्वास और विचार को जो लोग समझ लेते थे ले मुस्कुरा देते थे और जो नहीं समझते थे उनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ता था।

दिल्ली सुनते ही ऊपर सोए दोनों आदमी नीचे उतर आए और हम लोगों के बीच बातचीत शुरू हो गई। महिला ने एक बड़ा सा फ्लास्क खोला गरम गरम चाय अपने दो साथियों को देने के बाद मेरी तरफ भी बढ़ाई। वाह मजा आ गया। कुछ खाने को भी था।

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बातचीत पाकिस्तानी रेलवे पर होने लगी।

मैंने पूछा – सीटों पर जो रकसीन चढ़ा है उस पर ER क्यों लिखा है?

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उनमें से एक ने कहा, यह पार्टीशन के टाइम मिला हुआ डिब्बा है।

इतना पुराना अब तक चल रहा है?

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एक ने कहा – पाकिस्तान रेलवे का हाल न पूछिए।

दूसरा बोला – रेलवे की न जाने कितनी ज़मीन बेंच कर खा गए।

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पहले ने कहा – ज़मीन…. अरे साहब जमीन तो छोटी चीज है इन्होंने पटरिया बेच डालीं… सिग्नल बेंच डालें…. रेलवे को बिल्कुल खोखला कर दिया..

मैंने कहा – कोई पूछताछ करने वाला नहीं है ।

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एक बोला – जनाब इस पूरे मुल्क में किसी की काउंटेबिलिटी नहीं है, कोई जवाबदेही नहीं है। – लोग बैंकों से करोड़ों का लोन लेकर वापस नहीं करते कोई पूछने वाला नहीं।

फौज इस मुल्क को खा गई ….पहले दो टुकड़े करवा दिए और अब दीमक की तरह लगी हुई है

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मैं यह सब सुनकर बहुत हैरान न था। क्योंकि मुझे पता था कि ये लोग जो कह रहे हैं वह सच है। मुझे डॉ आयशा सिद्दीका की किताब याद आ गई जो उन्होंने पाकिस्तानी सेना द्वारा किए जाने वाले व्यापार पर लिखी है। उन्होंने एक नया टर्म दिया है – Milbus यानी मिलिट्री बिजनेस। उन्होंने बहुत गंभीरता से, शोध करने के बाद, आंकड़े और उदाहरण देते हुए यह साबित किया है कि पाकिस्तान की सेना देश की सब से बड़ी लैंडलॉर्ड ( ज़मीन की मालिक /भूस्वामी) है। सेना जमीन बेचने का कारोबार ही नहीं करती बल्कि उसके अन्य व्यापार भी हैं जिसमें सिटी मॉल वगैरा भी शामिल है। सेना द्वारा किए जाने वाले इस व्यापार का मुनाफा सबसे ऊंची अधिकारी से लेकर सैनिक तक को मिलता है।

कुछ देर के बाद बातचीत भारत-पाकिस्तान की तुलना पर आ गई। बांग्लादेश बनने से पहले पाकिस्तान से आए लोग भारत और पाकिस्तान की तुलना करते हुए पाकिस्तान को बड़ा और अच्छा सिद्ध करने की कोशिश करते थे। यह कोशिश काफी बचकानी होती थी लेकिन मध्यम वर्ग को आकर्षित करती थी। जैसे पाकिस्तान में ‘टेरिलीन’ बहुत सस्ता है, जापानी गाड़ियां कितनी सस्ती है, खाना-पीना कितना सस्ता है, कितनी आसानी से मकान बनाया जा सकता है। कितनी आसानी से नौकरियां मिलती हैं।

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बांग्लादेश बन जाने के बाद स्थिति बिल्कुल बदल गई है अब कोई पाकिस्तानी कभी यह नहीं कहता कि पाकिस्तान भारत से अच्छा है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि भारत का एक रुपया पाकिस्तान के दो रुपए के बराबर है। भारत में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में जो काम हुआ है (जो अपर्याप्त है और जिसकी हम सब आलोचना करते हैं) वह पाकिस्तान की तुलना में बहुत उल्लेखनीय है।

उनमें से एक ने कहा – आप चाहे जो कहें, भारत में लाख कमियां हो सकती हैं ..लेकिन भारत ने तरक्की की है…. और कोई मुल्क जब तरक्की करता है तो उसका फायदा सबको होता है…

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महिला ने कहा- मेरी तो भारत जाने की बड़ी ख्वाहिश है।

एक आदमी बोले- पाकिस्तान में तो हर दूसरा आदमी भारत जाना चाहता है… देखने के लिए घूमने के लिए….

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मैंने कहा – भारत में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो एक बार पाकिस्तान आना, देखना और घूमना चाहते हैं

उनमें से एक ने कहा- लेकिन दोनों तरफ की सरकारें यह नहीं चाहतीं।

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दूसरे ने कहा- देखिए किसी भी मुल्क के अवाम किसी भी दूसरे मुल्कों के अवाम के दुश्मन नहीं होते… अब पाकिस्तानी अवाम को भारत दुश्मनी से क्या मिल जाएगा? हां दोस्ती से बहुत कुछ मिल सकता है….. लेकिन अफसोस यह है कि सरकारों को दुश्मनी से बहुत कुछ मिलता है…..

मुझे रघुवीर सहाय की कविता ‘पैदल आदमी’ याद आ गयी।

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कराची कंटोनमेंट रेलवे स्टेशन पर वे उतर गए। मैं अकेला रह गया। ट्रेन लगता था अपने गंतव्य पर पहुंचने के प्रति बहुत उदासीन है। इस तरह चल रही थी जैसे कोई ठेल रहा हो।

कराची रेलवे स्टेशन पर इतना सन्नाटा था कि मुझे बहुत बुरा लगा। स्टेशन तो बड़ा था लेकिन कोई चहल-पहल नजर न आती थी। न तो ट्रेनें ही खड़ी थीं, न मुसाफिर। यह लगता था जैसे इस स्टेशन का बहुत कम इस्तेमाल होता है। अलीगढ़ के पुराने दोस्त डॉ जमाल नकवी जरूर मुझे लेने के लिए खड़े थे।

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