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सुख-दुख

बीते एक-डेढ़ दशक से यही लोग पत्रकारिता के अगुआ भी हो गए हैं….

Dayanand Pandey : पत्रकारिता और ख़बर की समझ तो हमें पहले भी थी, आज भी है। लिखने-पढ़ने का सलीक़ा भी। लिखने-पढ़ने और समझ का फख्र भी। हां, लेकिन दलाली, भड़ुवई, लाइजनिंग, चापलूसी, चमचई, बेजमीरी, चरण-चुंबन आदि-इत्यादि का शऊर न पहले था, न अब है, न आगे कभी होगा। दुर्भाग्य से यह दूसरी तरह के लोग पहले भी काबिज थे पत्रकारिता पर लेकिन अब बीते एक-डेढ़ दशक से यही लोग पत्रकारिता के अगुआ भी हो गए हैं।

<p>Dayanand Pandey : पत्रकारिता और ख़बर की समझ तो हमें पहले भी थी, आज भी है। लिखने-पढ़ने का सलीक़ा भी। लिखने-पढ़ने और समझ का फख्र भी। हां, लेकिन दलाली, भड़ुवई, लाइजनिंग, चापलूसी, चमचई, बेजमीरी, चरण-चुंबन आदि-इत्यादि का शऊर न पहले था, न अब है, न आगे कभी होगा। दुर्भाग्य से यह दूसरी तरह के लोग पहले भी काबिज थे पत्रकारिता पर लेकिन अब बीते एक-डेढ़ दशक से यही लोग पत्रकारिता के अगुआ भी हो गए हैं।</p>

Dayanand Pandey : पत्रकारिता और ख़बर की समझ तो हमें पहले भी थी, आज भी है। लिखने-पढ़ने का सलीक़ा भी। लिखने-पढ़ने और समझ का फख्र भी। हां, लेकिन दलाली, भड़ुवई, लाइजनिंग, चापलूसी, चमचई, बेजमीरी, चरण-चुंबन आदि-इत्यादि का शऊर न पहले था, न अब है, न आगे कभी होगा। दुर्भाग्य से यह दूसरी तरह के लोग पहले भी काबिज थे पत्रकारिता पर लेकिन अब बीते एक-डेढ़ दशक से यही लोग पत्रकारिता के अगुआ भी हो गए हैं।

समूचा नेतृत्व जैसे इन्हीं के हाथ में चला गया है। हम या हमारे जैसे लोग अफ़सोस की नदी में डूबे नेपथ्य में खड़े अपना माथा पीटने के लिए जैसे अभिशप्त हैं। और आप लोग चाहते हैं कि समाज और राजनीति फिर भी साफ-सुथरी रहे? कितने मासूम हैं आप लोग भी! कुर्बान जाऊं आप सब की इस अदा पर भी! गंदा और प्रदूषित पानी पी कर भी स्वस्थ रहने का सपना कुछ अटपटा नहीं लगता? ख़ुमार बाराबंकवी का एक शेर याद आता है :

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चरागों के बदले मकां जल रहे हैं
नया है ज़माना, नई रौशनी है

लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार दयानंद पांडेय के फेसबुक वॉल से.

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