Om Thanvi : लोकपाल को वह क्या नाम दिया था अरविन्द केजरीवाल ने? जी, जी – जोकपाल! और जोकपाल पैदा नहीं होते, अपने ही हाथों बना दिए जाते हैं। मुबारक बंधु, आपके सबसे बड़े अभियान की यह सबसे टुच्ची सफलता। अगर आपसी अविश्वास इतने भीतर मैल की तरह जम गया है तो मेल-जोल की कोई राह निकल आएगी यह सोचना मुझ जैसे सठियाते खैरख्वाहों की अब खुशफहमी भर रह गई है। ‘साले’, ‘कमीने’ और पिछवाड़े की ‘लात’ के पात्र पार्टी के संस्थापक लोग ही? प्रो आनंद कुमार तक? षड्यंत्र के आरोपों में सच्चाई कितनी है, मुझे नहीं पता – पर यह रवैया केजरीवाल को धैर्यहीन और आत्मकेंद्रित जाहिर करता है, कुछ कान का कच्चा भी।
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बीते एक-डेढ़ दशक से यही लोग पत्रकारिता के अगुआ भी हो गए हैं….
Dayanand Pandey : पत्रकारिता और ख़बर की समझ तो हमें पहले भी थी, आज भी है। लिखने-पढ़ने का सलीक़ा भी। लिखने-पढ़ने और समझ का फख्र भी। हां, लेकिन दलाली, भड़ुवई, लाइजनिंग, चापलूसी, चमचई, बेजमीरी, चरण-चुंबन आदि-इत्यादि का शऊर न पहले था, न अब है, न आगे कभी होगा। दुर्भाग्य से यह दूसरी तरह के लोग पहले भी काबिज थे पत्रकारिता पर लेकिन अब बीते एक-डेढ़ दशक से यही लोग पत्रकारिता के अगुआ भी हो गए हैं।
यह तो शार्ली आब्दी का सरासर अपमान है!
Dayanand Pandey : हमारे भारतीय समाज में ही नहीं पूरी दुनिया में ही लेखक वर्ग अपनी सहिष्णुता, अपने प्रतिरोध और न झुकने के लिए जाना जाता है। इस के एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। भारत में भी, दुनिया में भी। लेखक टूट गए हैं, बर्बाद हो गए हैं, पर झुके नहीं हैं। अपनी बात से डिगे नहीं हैं। व्यवस्था और समाज से उन की लड़ाई सर्वदा जारी रही है। हर कीमत पर जारी रही है। इसी अर्थ में वह लेखक हैं। लेकिन इधर कुछ लेखकों में पलायनवादिता की प्रवृत्ति देखने को मिल रही है। इन लेखकों में एक सब से बड़ी दिक्कत आई है तानाशाही प्रवृत्ति की। इस तानाशाही ने लेखक बिरादरी का बड़ा नुकसान किया है।
किसी पत्रकार ने कोई सवाल नहीं पूछा, सब के सब हिहियाते हुए सेल्फी लेते रहे…
Dayanadn Pandey : लोकतंत्र क्या ऐसे ही चलेगा या कायम रहेगा, इस बेरीढ़ और बेजुबान प्रेस के भरोसे? कार्ल मार्क्स ने बहुत पहले ही कहा था कि प्रेस की स्वतंत्रता का मतलब व्यवसाय की स्वतंत्रता है। और कार्ल मार्क्स ने यह बात कोई भारत के प्रसंग में नहीं, समूची दुनिया के मद्देनज़र कही थी। रही बात अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की तो यह सिर्फ़ एक झुनझुना भर है जिसे मित्र लोग अपनी सुविधा से बजाते रहते हैं। कभी तसलीमा नसरीन के लिए तो कभी सलमान रश्दी तो कभी हुसेन के लिए। कभी किसी फ़िल्म-विल्म के लिए। या ऐसे ही किसी खांसी-जुकाम के लिए। और प्रेस? अब तो प्रेस मतलब चारण और भाट ही है। कुत्ता आदि विशेषण भी बुरा नहीं है।
डॉ. एसबी निमसे यानि लखनऊ विश्वविद्यालय का निकम्मा कुलपति
Dayanand Pandey : लखनऊ विश्व विद्यालय के कुलपति डॉ. एसबी निमसे क्या एक निकम्मे कुलपति हैं? और कि परीक्षा विभाग उन की बिलकुल नहीं सुनता? बीएड का इम्तहान प्रैक्टिकल सहित जुलाई में खत्म हो गया। लेकिन रिजल्ट का अभी तक अता-पता नहीं है। अखबारों के जिम्मे ऐसी खबरें नहीं होतीं। अखबारों को नेताओं अफसरों के खांसी जुकाम से फुर्सत नहीं है। तो अखबार इन के ठकुर-सुहाती खबरों से लदे रहते हैं।
लोक कवि जब अपनी सफलता के लिए डांसर लड़कियों के मोहताज़ हो जाते हैं
दयानंद पांडेय
लोक कवि अब गाते नहीं
यह उपन्यास एक ऐसे भोजपुरिया लोक कवि के बारे में है जो दरिद्रता और फटेहाली का जीवन व्यतीत करते हुए गांव से शहर की दुनिया में प्रवेश करता है। और फिर संघर्ष करते हुए धीरे-धीरे उस के जीवन की काया पलट होने लगती है या कहिए कि जैसे घूरे के दिन किसी दिन बदलते हैं वैसे ही उस की घूरे जैसी जिंदगी भी पैसा व शोहरत की मेहरबानी से चमकने लगती है। कुछ लोगों के अँधेरे जीवन में किस्मत से अचानक आशा की किरने फूटती हैं और रोशनी का समावेश होने लगता है तो ऐसा ही होता है लोक कवि के साथ भी। वरना पिछड़े वर्ग के कम पढ़े-लिखे गरीब इंसान कहां इतने ऊंचे सपने देख पाते हैं।
राजनीति के जंगल में औरतों के भूखे न जाने कितने भेड़िये रहते हैं जो उन की देह चाटते रहते हैं
अब तक मैं दयानंद जी की 25 कहानियों में गोता लगा चुकी हूं …यानि उन्हें पढ़ चुकी हूं। जिन में कुछ प्रेम कहानियां , कुछ पारिवारिक जीवन और कुछ व्यवस्था पर हैं। आप के लेखन में समकालीन जीवन के रहन-सहन और उनकी समस्यों का विवरण बड़े खूबसूरत और व्यवस्थित ढंग से देखने व पढ़ने को मिलता है। आपकी ये सात कहानियां व्यवस्था पर हैं। अगर जीवन में व्यवस्था सही ना हो तब भी बहुत समस्या हो जाती है।
धान फूटते गोभी वाले गांव में
शिवमूर्ति और दयानंद पांडेय
धान जब भी फूटता है गांव में
एक बच्चा दुधमुंहा
किलकारियां भरता हुआ
आ लिपट जाता हमारे पांव में।
गांधीवादी राजनीति का सपना देखने वाला, आज की जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति से हारता आनंद
दयानंद पांडेय
आज के जमाने में सिद्धांतों और आदर्शों पर चलना हर किसी के वश की बात नहीं। इंसान जीवन के आदर्शों को अपने स्वार्थ की खातिर भेंट चढ़ा देता है, कभी विवशता से और कभी स्वेच्छा से। दयानंद जी के इस उपन्यास ‘वे जो हारे हुए ‘ में राजनीति में उलझे या ना उलझे लोगों का ऐसा जखीरा है जिस में इंसान किसी और इंसान की कीमत ना आंकते हुए दिन ब दिन अमानवीय होता जा रहा है।