रोहित देवेंद्र-
उपलब्धि या तारीफ के रुप में जज करने जाएंगे तो ‘मट्टो की साइकिल’ फिल्म की बड़ी उपलब्धि तो यही है कि इस तरह की फिल्म बनाने का साहस किया गया। यह साहस तब और बढ़ जाता है जब बगल की ऑडी में 450 करोड़ के बजट वाली फिल्म चल रही हो। उसका नायक दुनिया बचा रहा हो और इस फिल्म का नायक 3500 रुपए की साइकिल के लिए संघर्ष कर रहा हो…

फिल्म इंडस्ट्री के लिए अपेक्षाकृत नया नाम एम गनी M. Gani की यह फिल्म शायद चर्चा में भी ना आ पाती यदि इसके मुख्य किरदार प्रकाश झा ना होते। थिएटर तक लाने का काम बेशक प्रकाश झा करते हैं। एक दिहाड़ी मजदूर की जिंदगी, उसके संघर्ष और बहुत छोटे-छोटे सपनों की कहानी कहने की नियत से निकली यह फिल्म सिस्टम या गरीबी के बारे में ऐसा कुछ नहीं बता पाती जो हमसे छिपा हुआ हो। हमें ना तो कुछ नया लगता है ना ही हम उससे चौंकते हैं। हो सकता है कि हमारे अंदर की असंवेदनशीलता इसकी आदी हो चुकी हो। या ये भी हो सकता है कि जिस ढंग से यह बात कही गई उसमें हमें कुछ नयापन ना लगा हो। हमें गरीबी भी तभी समझ आती है जब उसमें मेलोड्रामा हो।
फिल्म की अच्छी बात गांव को देखने की ‘दृष्टि’ है। “करण जौहर बिरादरी” वाले निर्देशक जब सिनेमा में गांव एक्सप्लोर करते हैं तो उन्हें गांव में ऐसे लोग दिखते हैं जो हमेशा खुश रहते हैं। आमतौर पर सब चटख रंगों वाले धोती कुर्ता या पटियाला पहने होते हैं। साल के 365 दिन मक्के की रोटी और सरसो का साग खाते हैं। पंजाबी बीट पर बढ़िया डांस करते हैं और सभी नेकदिल होते हैं।
यह फ़िल्म गांवों के साथ में ऐसा नहीं करती है। फिल्म का बैकग्राउंड मथुरा के आसपास का रखा गया है। निर्देशक का वास्ता उसी क्षेत्र से है। आज के गांव को देखने का जो उनका तरीका है उसे देखकर ऐसा लगता है कि वह भले ही अब दशकों से गांव में ना रहते हों लेकिन गांवों के बदलावों से वह वाकिफ हैं। प्रधानी के चुनाव से लेकर यूटयूब तक की भूमिका को वह सही तरीके से पकड़ते हैं। पोशाक से लेकर प्रेम के तरीकों पर आज की समझ उनके पास है।
एक सीन में प्रकाश झा अपनी चारपाई की ओरचावन (चारपाई का निचला हिस्सा जहां वर्टिकल रस्सियां लगी रहती हैं, जिसे समय-समय पर टाइट करना होता है) को कस रहे होते हैं। मुझे याद नहीं कि हिंदी सिनेमा में इस सीन को कभी रखा गया है या नहीं। इस सीन से इस नियत का पता चलता है कि निर्देशक गांव की डिटेलिंग करना चाहते हैं। कैमरा कई सारे अतरंगी दृश्यों को कैप्चर करता है। ज्यादातर एक दर्शक की तरह ही। बगैर कुछ कहे या कंमेट्री किए हुए। लगता है कि गांवों पर बनी एक फोटो गैलरी पर्दे पर चल रही है। इसके लिए फ़िल्म के स्क्रिप्ट राइटर पुलकित फिलिप Pulkit Phillip की भी मेहनत और ईमानदारी दिखती है।
फिल्म के मुख्य पात्र प्रकाश झा के हिस्से तारीफ भी है और चूंकि वह एकलौते हैं तो आलोचना भी उन्हीं के हिस्से। तारीफ यह कि वह जब चुपचाप मुंह जमीन में गड़ाए अपना काम कर रहे होते हैं तो सच में दिहाड़ी मजदूर ही लगते हैं लेकिन जब उनके चेहरे पर दुखः का भाव आना होता है तो वह हिस्सा बनावटी सा हो जाता है। साइकिल चोरी के उस पूरे एपीसोड में कैमरा एक बार भी उनका क्लोजअप नहीं लेता। तब भी प्रकाश झा रियल नहीं लगते जब वह थाने में फरियादी बनकर जाते हैँ और तब भी नहीं जब अपने प्रधान से लड़ जाते हैं। उस समय वह प्रकाश झा हो जाते हैं मट्टो नहीं रह जाते।
जहां से शुरुआत हुई थी, वहीं से अंत। ऐसी फिल्मों की तारीफ ही होनी चाहिए। फिल्म की अच्छाई-बुराई से इतर इस बात के लिए कि ऐसी फिल्म बनाने के बारे में सोचा गया। बेशक यह यह दो बीघा जमीन या मदर इंडिया नहीं है लेकिन कम से कम यह मट्टो की साइकिल तो है…