क्या यूपी में कोई आज़म खान की मर्ज़ी के बगैर उनके बारे में कोई खबर चला सकता है? इस सवाल का जवाब लखनऊ में आसानी से मिल सकता है लेकिन एक बात तो साफ़ है कि सत्ता में आने के बाद आज़म खान ने जितने मुकदमे पत्रकारों पर दर्ज कराये हैं उतने मुकदमे सरकार ने सूचीबद्ध माफिया सरगनाओं पर भी नही दर्ज कराए. सोशल मीडिया से लेकर मेन स्ट्रीम मीडिया तक, आज़म खान अपने बारे में अखबार क्या, फेसबुक पर भी लिखी कोई तल्ख़ लाइन बर्दाश्त नही करते. और वो हर स्तर पर कार्रवाई करने को बेताब रहते हैं. उनकी पुलिस कभी उनकी खोई हुई भैंसों को या फिर खोई हुई प्रतिष्ठा के ज़िम्मेदार पत्रकारों को पकड़ने में मुस्तैद रहती है. लोहिया की खुली विचारधारा वाली समाजवादी पार्टी की ये प्रेस विरोधी नीति अभूतपूर्व विरोधाभास से भरी है.
आवास से लेकर बिजली और शिक्षा से लेकर स्वास्थ्य जैसी ज्वलंत समस्याओं पर उत्तर प्रदेश विधान सभा की समितियां निष्क्रिय रहीं लेकिन एक समिति दो साल से जनता के लाखों रुपए खर्च करके सदन पर हावी रही. दरअसल ये समिति खुद विधान सभा के संसदीय कार्य मंत्री आज़म खान के लिए उन्हीं के हाथों बनाई गयी थी. इस जांच समीति का काम मुज़फ्फरनगर दंगों में उछले आज़म खान के नाम को हर तरह के आरोप से बरी करना था. आज़म खान का नाम टीवी न्यूज़ चैनल आजतक में दिखाए गये एक स्टिंग ऑपरेशन के बाद चर्चा में था. हालांकि कई अखबारों और न्यूज़ चैनल में आज़म खान पर पहले से आरोप लग रहे थे.
ये स्टिंग न सदन के भीतर किया गया और न ही इसमें सदन की कोई अवमानना थी लेकिन अाजम खान ने इसे सदन में हुए हंगामे से जोड़कर इस पर जाँच समिति बैठा दी और अपने कई शिष्य इस समिति में शामिल कर दिए. अगर आज़म खान को स्टिंग ऑपरेशन से शिकायत थी तो वो अदालत से लेकर NBSA यानी ब्राडकास्टिंग अथॉरिटी तक जा सकते थे. सारे विकल्प खुले थे उनके पास लेकिन आज़म खान ने लीक से हटकर अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए बीएसपी नेता स्वामी प्रसाद मौर्या को मिलाकर जनता के खर्च पर एक जांच समिति बना दी. इससे पहले भी संसदीय व्यवस्था का दुरूपयोग कर चुके थे. एक ऐसे ही मामले में वो IBN-7 चैनल को भी अपने व्यक्तिगत मसले पर सदन में घसीट चुके थे. IBN-7 ने रामपुर में बनाई गयी उनकी निजी यूनिवर्सिटी के ज़मीन विवाद पर खोज खबर की थी.
आज़म खान जानते थे कि एक बार वो जांच अपने हाथ में ले आये तो फिर सदन के अधिकार क्षेत्र के बाहर इसे तब तक चुनौती नहीं दी जा सकती जब तक जांच पूरी न कर ली जाए. इस दौरान उन्हें साक्ष्य से खिलवाड़ करने का भी खुला मौका मिलेगा. वो सदन में किसी को भी बुलाकर कुछ भी बुलवा सकते हैं और कभी भी समिति किसी ऐतराज़ पर अवमानना का मामला बना सकती है. आज़म खान ने अवसर का लाभ उठाकर यूपी में घूम घूम कर भाषण दिए और कहा- ”मुझे दंगों का गुनाहगार बनाया जा रहा है. असली गुनाहगार मीडिया है. मीडिया ने स्टिंग ऑपरेशन में जन भावनाएं भड़काई और दंगा करवाया.” जबकि सच ये हे कि दंगा खत्म होने के बाद स्टिंग ऑपरेशन किया गया और खबर प्रशासनिक विफलता पर केन्द्रित रही. खबर में जो खुलासे हुए उससे कटघरे में पुलिस और सरकार खड़ी हो रही थी. स्टिंग ऑपरेशन में भावना भड़काने जैसा कुछ नही था. इस बीच आज़म खान ने आजतक के मालिकों का खुला तौर पर नाम लेना शुरू किया और कहा कि वो ऑपरेशन से जुड़े सभी पत्रकारों को जेल भिजवाएंगे.
आज़म खान यूपी सरकार में बेहद ताकतवर हैं. इसलिए उनकी धमकियों का असर होने लगा. मेरिट पर स्टिंग ऑपरेशन के तथ्यों को सामने रखने की जगह आजतक का प्रबंधन घबराकर सरकार के आगे पीछे दौड़ने लगा. कुछ लोग आजतक के सीईओ बग्गा और मालिक अरुण पुरी को सब्जबाग दिखाते रहे कि आप यूपी सरकार पर साफ्ट हो जाएं तो हम आज़म खान को मना लेंगे. सारी कोशिश थी कि चाहे जो हो, बिना किसी कारण उच्च प्रबंधन को सदन में बुलाकर अपमानित न करें क्यूंकि सदन के मामले में अदालत से भी कोई रिलीफ नही मिल सकती है. परेशान आदमी को और परेशान करने की फितरत वाले आज़म खान कुछ दिन के लिए जांच भूलकर सिर्फ अरुण पुरी को सदन में तलब करने की जिद करते रहे और उनका राम गोपाल से इस बात पर मतभेद भी हो गया. मामले को ठंडा करने के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी आज़म से बात की पर आज़म की जिद पर किसी की नहीं चलती है.
ऐसा बताया जाता कि आखिर में नेताजी के कहने पर ये समझौता हुआ कि पुरी साहब को अब सदन में नहीं बुलाया जायेगा. दरअसल सदन की एक जांच समिति की आड़ में एक सरकार देश के एक बड़े चैनल को दो साल तक शिकंजे में दबाती रही. लोकशाही में सत्ता के दुरपयोग का ये बेहद गलत सन्देश है और सदन की गरिमा के खिलाफ भी हैं. जनता के पैसे पर चलने वाले सदन को आप अपने निजी मसलों के लिए दुरूपयोग नही कर सकते. अगर आजतक के स्टिंग से आज़म खान को शिकायत थी तो उनके पास सारे विकल्प खुले थे. वो आजतक को कोर्ट से लेकर NBSA तक ले जा सकते थे. लेकिन आज़म खान ने उस सदन का लाभ उठाया जिसके खुद वो मंत्री हैं और जहाँ बहुमत में उनकी सरकार है.
देश की मीडिया सैकड़ों स्टिंग करती है. वो गलत हो या सही, अगर किसी पक्ष को शिकायत है तो वो न्यायालय जाता है. सदन में जांच या अवमानना का मामला वही उठाया जाता है जहाँ मामला सदन से सीधे तौर पर जुड़ा हो. सदन के बाहर घटित मामले और बाहर रिपोर्ट किये गये मामलों और मीडिया रिपोर्ट को विधानसभा के अन्दर घसीट कर उसकी जांच कराना सदन के अधिकार क्षेत्र की प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए. आखिर में, बस एक सवाल… सदन के मुखिया से… क्या यूपी विधानसभा के अध्यक्ष ये बताएंगे कि दो साल में इस जांच समिति पर जनता के कितने पैसे खर्च किये गये और ये भी बताएं कि जिस राज्य सरकार ने दंगों की जांच के लिए आयोग बनाया था, उसने दो साल में अब तक क्या क्या खुलासा किया है?
लेखक यशवंत सिंह भड़ास के संस्थापक और संपादक हैं. संपर्क: [email protected]
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vikram singh
August 22, 2015 at 5:41 pm
Bahut achha lekh ke liye badhai.
Shyam Singh Rawat
August 23, 2015 at 3:52 am
जो हिटलर की चाल चलेगा, वो हिटलर की मौत मरेगा।