संदीप ठाकुर
राहुल गांधी का नाम सुनते ही आपके जहन में सबसे पहले उनकी कौन सी छवि
उभरती है…पप्पू वाली या गंभीऱ। पप्पू वाली न। आप बिल्कुल सही हैं। इसके
बाद उनकी कौन सी बात याद आती है। यदि में गलत नहीं हूं तो आपको याद आती
हाेगी, आलू की फैक्ट्री या नारियल जूस वाली कहानी। या फिर याद आती होगी
उनके ऊपर चल रहे सोशल मीडिया के जोक्स और भाजपा नेताओं द्वारा समय समय
पर किए गए कटाक्ष। जरा सोचिए, क्या इन बातों के आधार पर राहुल को जज
किया जा सकता है? सही मायने में राहुल गांधी पप्पू हैं? क्या राहुल
गांधी पॉलिटिकल मैटीरियल नहीं हैं? क्या राहुल गांधी में नेतृत्व क्षमता
नहीं है?
यह सवाल मेरे जहन में तब आया जब मैंने हाल ही में अमेरिका दौरे के
दौरान दिए गए उनके चंद भाषण सुने। आपको भी यूएस दौरे में दिए उनके
भाषणों पर एक नजर डालनी चाहिए.। वो इसलिए कि अगला सवाल जो मैं उठाने जा
रहा हूं उसे समझने में मदद मिलेगी। सोनिया गांधी के बाद राहुल गांधी ही
कांग्रेस पार्टी की कमान थामेंगे, ये तो तय है लेकिन कब? ये सवाल कई
सालों से फ़िज़ा में तैर रहा है। लेकिन अब राहुल की अध्यक्ष पद पर ताजपोशी
नहीं टल सकती क्योंकि चुनाव आयोग की फटकार के बाद कांग्रेस संगठन में
चुनावी प्रक्रिया ने रफ़्तार पकड़ ली है। ऐसे में प्रश्न यह है कि क्या
उन्हें देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की कमान दी जा सकती है?
क्या वे इसके काबिल हैं? क्या राहुल गांधी राजनीति को पूरी तरह समझने
लगे है?
नोटबंदी और जीएसटी के सताए हुए करोड़ों लोगों के मन में उठ रहे इस
सवाल के जवाब को तलाशने का प्रयास करते हैं। शुरुआत साेशल मीडिया से
करते हैं जिसकी इनदिनों किसी को भी हीरो और जीरो बनाने में अहम्
भूमिका है। सोशल मीडिया पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की लोकप्रियता
बढ़ती नजर आ रही है। पिछले दो महीनों में उनके ट्विटर फॉलोवर्स की संख्या
करीब 10 लाख बढ़ कर 34 लाख हो गई है। लेकिन आज भी राहुल मोदी के
मुकाबले पीछे हैं। वे विश्वसनीय चेहरा न बन सके हैं। आप उनेस मिलें जो
नरेंद्र मोदी से खुश नहीं है, विकल्प की सोच रहे हैं। बदलाव चाहते हैं।
लेकिन वे सवाल करते हैं कि फिर दूसरा कौन है? राहुल गांधी और कौन? नाम
सुनते ही ऐसे लोगों का पहला रिएक्शन हाेता है राहुल गांधी उन्हें
उत्साहित तो करते हैं लेकिन देश का चेहरा बनने योग्य नहीं दिखते।
दूसरे शब्दों में कहें तो छवि आड़े आ रही है। इसके लिए कौन जिम्मेदार
है। कांग्रेस के बड़े नेता, राहुल स्वंय या फिर मीडिया। राहुल गांधी ने
कई मौकों पर कुछ ऐसा बोल दिया और जब-तब कुछ ऐसा किया कि उनकी छवि
पप्पू वाली बन गई। रही सही कसर भाजपा नेताओं ने पूरी कर दी। कैसे? आइए
समझते हैं।
जब अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार विराेधी आंदोलन अपने उफान पर
था, तब राहुल गांधी खामोश थे। जब पूरा देश उनकी ओर अपेक्षा भरी निगाहों
से देख रहा था, वे एक शब्द नहीं बोले। लोगों को लगा कि देश और
व्यवस्था को लेकर राहुल गांधी गंभीर नहीं हैं। साल 2014 के चुनाव में
हार के बाद वे तकरीबन 50 दिनों के लिए छुट्टी पर चले गए थे। उनकी वह
छुट्टी आज भी रहस्य बनी हुई है। राष्ट्रपति चुनाव अंतिम स्तर पर था और
राहुल गांधी देश से गायब थे । किसानों का आंदोलन उग्र था। इस दौरान गत 9
जून को राहुल गांधी मंदसौर पहुंचे। बढ़ते कृषि संकट पर उन्होंने
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर आरोप लगाया और एक नाटकीय घटनाक्रम के बाद
अंत में हिरासत में लिए गए। उनके साथी इस मुद्दे पर आंदोलन करते रहे और
सरकार को घेरते रहे। तीन दिन बाद 13 जून को राहुल ने ट्वीट किया, कुछ
दिनों के लिए नानी के घर जा रहा हूं। परिवार के साथ कुछ दिन बिताने को
लेकर उत्सुक हूं। इसके बाद ट्वीटर पर वह ट्रोल किए जाने लगे। विपक्षी दल
उनका मजाक उड़ाने लगे। मंदसौर में उनके कदम की प्रशंसा करने वाले उनके
साथी हताश हो गए। एक कांग्रेस नेता ने कहा, ऐसा पहली बार नहीं हुआ है।
हर समय हम सोचते हैं कि मुद्दों पर हमारी पकड़ बन गई है। कार्यकर्ता
उत्साहित हो जाते है। लेकिन ऐन मौक पर राहुल चले जाते हैं। ऐसे में
कैसे रिएक्ट करें कि देश में जब गंभीर मुद्दे हैं तो उनका नेता छुट्टी पर
चला गया है, वह भी उस समय जब देश में एक मजबूत विपक्ष नहीं है।
इन सब कारणों से राहुल पर की गई टिप्पणियों ने उनकी छवि को गंभीर
नहीं बनने दिया। मसलन, एक बार शीला दीक्षित ने कहा था कि कांग्रेस
उपाध्यक्ष राहुल गांधी अभी मेच्योर नहीं हुए हैं। उन्हें अभी और वक्त
दिया जाना चाहिए। हंगामा मचने पर वे अपने बयान से मुकर गई थीं। हरियाणा
में विधानभा चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह
ने तंज कसते हुए कहा था कि महात्मा गांधी चाहते थे कि कांग्रेस खत्म हो
जाए। गांधीजी का सपना राहुल पूरा कर रहे हैं। राहुल गांधी के हालिया यूएस
दौरे पर टिप्पणी करते हुए केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा था कि
राहुल की देश में कोई सुनता नहीं, इसलिए बोलने के लिए उन्हें विदेश जाना
पड़ता है। इन टिप्पणियों का कोई दमदार जवाब न राहुल ने दिया और न ही
कांग्रेस ने।
अपनी बात मज़बूत और तर्कसंगत ढंग से न कह पाना राहुल की सबसे बड़ी असफलता
है। नोटबंदी जैसी पॉलिसी जिसका हर भारतीय पर नकारात्मक असर पड़ा, उसे भी
मोदी काले धन और आतंकवाद के खिलाफ वरदान के रूप में प्रचारित करने में
सफल रहे। राहुल इसे भी नहीं भुना पाए। राहुल की राजनीति में उत्साहहीनता
और जनता के बीच भाषण देते समय सुस्ती साफ झलकती है। यह उनका दूसरा ड्रॉ
बैक है। राहुल की तीसरी बड़ी समस्या है युवा नेताओं पर अत्यधिक निर्भरता
और ज़मीनी कार्यकर्ता पर पकड़ नहीं होना। 2009 में यूपीए की सरकार आई
थी और राहुल गांधी को बढ़ाना शुरु किया गया। राहुल ने अपनी एक टीम बनाई
जो लैपटॉप, आईपैड से लैस थी। पूरी हाईटेक थी। फिर उन्होंने फैसले लेने
शुरू किए। पार्टी के फैसले को दरकिनार करते हुए राहुल ने चुनाव में एकला
चलो की नीति पर अमल करने का मन बनाया। राज्यां के चुनाव अकेले लड़े
और 2010 में बिहार और 2012 में यूपी बुरी तरह हारे। युवाओं को
नेतृत्व में आगे लाने के चक्कर में पुराने कई वरिष्ठ नेता दरकिनार कर दिए गए
और कई खुद पार्टी छोड़ कर चले गए। तब से लेकर आज तक कांग्रेस का हर
चुनाव में प्रदर्शन खराब होता चला गया है। इसके बाद वे 2017 में सपा के
साथ हाथ मिला यूपी विधानसभा का चुनाव लड़े। सपा से गठबंधन के बाद भी
रायबरेली और अमेठी के कांग्रेस के गढ़ को बचाने में पूरी तरह नाकामयाब
रहे। यहां पहली बार भाजपा ने कुल 10 में से 6 सीटों पर कब्जा कर लिया।
राहुल की अन्य कमजोरियां हैं कि वे लच्छेदार भाषण नहीं दे पाते। अपने
बयानों में कई बार गलतियां कर जाते हैं। कभी-कभार अपनी भाषा में अटक जाते
हैं। शायद अंग्रेजी में वो ज्यादा कंफर्टेबल महसूस करते हों, इसलिए
विदेशों में उनकी भाषणों की इतनी तारीफ भी हो रही है।
कांग्रेस पार्टी में राहुल‘भक्त कई नेता ऐसे भी हैं जिन्हें राहुल के
नेतृत्व में कोई कमी नज़र नहीं आती। उनका मानना है कि राहुल गांधी को
कांग्रेस का अध्यक्ष बना देना चाहिए। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह
ख़ुद राहुल की ताजपोशी की वकालत कर चुके हैं। वैसे कैप्टन इज़ कांग्रेस,
कांग्रेस इज़ कैप्टन.., पंजाब चुनाव का यह नारा बताता है कि जीत वहां
किसकी हुई है। सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद गोवा में कांग्रेस की
सरकार बना पाने में नाकाम दिग्विजय सिंह भी राहुल गांधी को पार्टी की
कमान सौंपने के पक्ष में हैं। आलोचक यह सवाल उठाते है कि आखिर पार्टी की
कमान संभालने से राहुल को कौन रोक सकता है। अध्यक्ष न होते हुए भी राहुल
गांधी पार्टी तो चला ही रहे हैं। कांग्रेस कार्यकर्ताओं को उम्मीद है कि
राहुल के अध्यक्ष बन जाने के बाद संगठन में निर्णय तेज़ी से होंगे और नए
जोश के साथ कार्यकर्ता चुनावी तैयारी में लग जायेंगे। राहुल के सामने न
सिर्फ पार्टी के पुराने नेताओं से सामंजस्य बैठाने की बल्कि खुद को नेता
साबित करने की भी चुनौती है।
संदीप ठाकुर
वरिष्ठ पत्रकार
sandyy.thakur32@gmail.com