Connect with us

Hi, what are you looking for?

सुख-दुख

मुझे तब भी इंडियन एक्सप्रेस वाले राजकमल झा याद आ गए थे!

Nitin Thakur : 3 साल पहले इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप रामनाथ गोयनका एवॉर्ड बांट रहा था। टाइम्स ऑफ इंडिया के वरिष्ठ पत्रकार अक्षय मुकुल ने पुरस्कार लेने से मना कर दिया क्योंकि वो कार्यक्रम में मौजूद देश के प्रधानमंत्री के विचारों और परोक्ष-अपरोक्ष नीतियों से असहमत थे। मुझे याद है कि उस मंच से पीएम ने आपातकाल में बहादुर पत्रकारिता का ज़ोरदार ढंग से ज़िक्र किया था। उन्हें बहादुर पत्रकारिता के एक छोटे से उदाहरण को देखने के लिए बहुत इंतज़ार नहीं करना पड़ा। थोड़ी ही देर बाद एक्सप्रेस के मुख्य संपादक राजकमल झा ने पांच ही लाइनों में मोदी के सामने जो कुछ कहा वो दिखाने के लिए काफी था कि इंदिरा के घोषित आपातकाल को झेल चुका मीडिया अब किसी के अघोषित आपातकाल को झेलने से भी पीछे नहीं हटेगा।

राजकमल ने एक बात कही थी- ‘इस वक़्त हमारे पास ऐसे पत्रकार हैं जो रिट्वीट और लाइक के ज़माने में जवान हो रहे हैं, जिन्हें पता नहीं है कि सरकार की तरफ से की गई आलोचना हमारे लिए इज़्ज़त की बात है।’

सचमुच ये वो बात है जो तीन तरह के लोगों की समझ में नहीं आएगी।

Advertisement. Scroll to continue reading.
  1. वो जिन्होंने मजबूरी में इस पेशे को अपनाया है.
  2. किसी और एजेंडे को पूरा करने के लिए इस पेशे में घुस आए लोग.
  3. ग्लैमर से अंधे होकर पत्रकारिता की गलियों में आवारगर्दी कर रहे पत्रकार जैसे दिखनेवाले लोग.

इनके लिए रिपोर्टिंग करते किसी पत्रकार का पिटना हास्य का विषय है। किसी पत्रकार या पत्रकारिता संस्थान पर चलनेवाले सरकारी डंडे को ये इज़्ज़त देते हैं। दरअसल इन्हें अपने पेशे पर शर्म है लेकिन ये लोग इस पेशे के लिए खुद शर्म का विषय हैं। इस घटना के ठीक अगले ही दिन एनडीटीवी इंडिया को एक दिन के लिए ऑफ एयर करने का सरकारी फरमान आया था और बहुत सारे पत्रकारों ने जिनका सरकारी रुझान पहले से साफ था इतने तर्क रख दिए थे जितने वो कभी सरकारी नीतियों की आलोचना के लिए नहीं इकट्ठे कर पाते। इसके बाद साल दर साल से वायर या क्विंट के साथ किस तरह सरकार पेश आ रही है वो हम देख ही रहे हैं। संतोष सिर्फ इतना है कि दरबारी पत्रकार बढ़ रहे हैं तो प्रतिरोध की आवाज़ें भी बढ़ती जा रही हैं, भले दमन उससे भी तेज़ हो रहा हो।

साल 2018 में जब आवारा, हिंसक और बद्तमीज़ ट्रोल्स को ट्विटर पर फॉलो करनेवाले पीएम ने कुछ पत्रकारों को फॉलो किया था तब एक मीडिया संस्थान ने बादशाही दरबार में झुकने के अंदाज़ में इस पर बाकायदा धन्यवाद लेख लिखा और अपने वेब पोर्टल पर छपवाया था। फॉलो होने से धन्य हुए ‘पत्रकारों’ ने निजी तौर पर धन्यवाद में क्या क्या लिखा वो भी दर्ज है और गूगल पर आसानी से ढूंढा जा सकता है। मुझे तब भी राजकमल याद आ गए थे। वो शायद इन्हीं पत्रकारों की बात कर रहे थे, लेकिन इनमें से कई हैं जो रिट्वीट और लाइक के ज़माने में जवान नहीं हो रहे बल्कि करियर के अवसान पर हैं। बावजूद इसके वो अब भी अपने पेशे से ईमानदारी बरतने को राज़ी नहीं।

राजकमल झा ने जिस दिन मंच पर मौजूद पीएम के सामने पत्रकारिता पर अंग्रेज़ी में ज़ोरदार किंतु संक्षिप्त भाषण दिया था उससे कुछ हफ्ते पहले गृह राज्यमंत्री रिजीजू ने एक ऐतिहासिक ट्वीट किया था। उन्होंने पीएम से सवाल करनेवालों को ताना मारा था। उन्होंने सवाल करने को ‘नया फैशन’ करार दिया था। मुझे आज तक समझ नहीं आया कि जब मोदी बतौर ‘सीएम गुजरात’ नकली लाल किला बनवाकर दिल्ली की तरफ सवाल उछाला करते थे तब वो सवाल ‘फैशन’ की श्रेणी में ही आते थे, या फिर उन्हें रिजीजू जैसे भाजपाई किसी और कैटेगरी में मानते थे? अगर सवाल करने का ‘फैशन’ इतना बुरा है तो सरकार को कानून बनाकर इसे खत्म कर डालना चाहिए। इसके बाद तमाम मीडिया संस्थानों पर ताला डाल देना चाहिए क्योंकि उनका सारा कारोबार तो इसी ‘फैशन’ पर टिका है।

Advertisement. Scroll to continue reading.

पिछले साल न्यूज़क्लिक ने कुछ पत्रकारों के सवाल इकट्ठा करके एक वीडियो प्रकाशित किया था जिसमें मेरा सवाल भी शामिल था (वीडियो नीचे देखें)। मुझे मालूम नहीं कितने लोग इस बात की गंभीरता को समझ पा रहे हैं कि एक लोकतंत्र में पत्रकार देश के सबसे बड़े सेवक से सवाल पूछने के लिए तड़प रहे हैं और वो बस एकालाप से ही खुश है।

अपनी रैलियों में बसों के अंदर ठूंसकर लाए जानेवाले गरीब गुरबों से जो मंच से कम से कम सत्तर फीट की दूरी पर बैठाए जाते हैं चलताऊ अंदाज़ में पूछ लेना कि ‘बताइए होना चैइए कि नईं होना चैइए’ सवालों को निमंत्रण नहीं होता। चिलचिलाती धूप में खाने के पैकेट, शराब की बोतलों या रैली में आने के लिए मिलनेवाले पैसों का इंतज़ार कर रही लहालोट भीड़ की ‘मोदी-मोदी’ दोतरफा संवाद नहीं होता। चीयरलीडर की तरह सवाल कर रहे किसी प्रसून जोशी का ‘आप में एक फकीरी तो है’ को आलोचना नहीं कहा जाता। आपकी पकौड़ा इकोनॉमिक्स पर हां-हां में सिर हिलाना असली इंटरव्यू नहीं होता। साथ में सेल्फी खिंचवाना पत्रकारों का आमना-सामना करना नहीं होता।

Advertisement. Scroll to continue reading.

टीवी पत्रकार और सोशल मीडिया राइटर नितिन ठाकुर की एफबी वॉल से.

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement