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नए पत्रकारों को मुझ जैसे दो चार लोगों को स्टार मानने की आदत छोड़ देनी चाहिए : रवीश कुमार

: स्टार यार पत्रकार! : ”सर, असली काम आप लोगों ने किया और फोटो लोग मेरे साथ खींचा रहे हैं। सब कुछ दिखने तक ही है सर।” क्लास रूम से निकलती भीड़ और दरवाज़े की दहलीज़ पर दबे अरुण कुमार त्रिपाठी से मैं इतना ही कह पाया। वरिष्ठ पत्रकार अरुण जी ने भी इतना ही कहा कि एन्जाय कीजिए। और भी कुछ कहा होगा पर अब ध्यान नहीं। उसके बाद वे अंदर चले गए और बीस पचीस छात्र मेरे साथ साथ बाहर तक आ गए। बारह पंद्रह घंटे तो बीत ही चुके हैं इस बात को लेकिन मुझे कुछ खटक रही है।

: स्टार यार पत्रकार! : ”सर, असली काम आप लोगों ने किया और फोटो लोग मेरे साथ खींचा रहे हैं। सब कुछ दिखने तक ही है सर।” क्लास रूम से निकलती भीड़ और दरवाज़े की दहलीज़ पर दबे अरुण कुमार त्रिपाठी से मैं इतना ही कह पाया। वरिष्ठ पत्रकार अरुण जी ने भी इतना ही कहा कि एन्जाय कीजिए। और भी कुछ कहा होगा पर अब ध्यान नहीं। उसके बाद वे अंदर चले गए और बीस पचीस छात्र मेरे साथ साथ बाहर तक आ गए। बारह पंद्रह घंटे तो बीत ही चुके हैं इस बात को लेकिन मुझे कुछ खटक रही है।

मैं कनाट प्लेस में होता या किसी सिनेमा हाल में तो कोई बात नहीं थी। लोग घेर ही लेते हैं और तस्वीरें खींचा लेते हैं। वहां भी अच्छा नहीं लगता मगर अब दांत चियार देता हूं क्लिक होने से पहले। दर्शक और पाठक की इस उदारता से आप यह सीख सकते हैं कि आपकी बात करने के तरीके में क्या खूबी है या क्या कमी। फिर भी संकोच होता है और लगता है कि मेरी निजता या अकेलापन अब घर में ही सुरक्षित है। बाहर नहीं। साथ चलने वाले मित्र भी मेरे कहीं होने की स्थिति को पहचानने और नहीं पहचानने में विभाजित करने लगते हैं। मुझे अच्छा नहीं लगता है। मैं यही चाहूंगा कि मैं चुपचाप लोगों को देखता रहूं, समझता रहूं, और लिखता रहूं। लेकिन टीवी में रहकर और वो भी रोज़ रात घंटा भर दिखकर इस सुविधा का मांग करना ही माध्यम से नाइंसाफी है। टीवी से इतनी शिकायत है तो मुझे किसी और माध्यम में रहना चाहिए। पर क्या करें टीवी ही जानता हूं और शायद कुछ हद तक इश्क जैसा भी है।

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पर जो पत्रकार बनने वाले हैं उनके बीच घिरे होने से क्या तकलीफ हो गई। हो गई। पत्रकार अगर किसी व्यक्ति से इतना प्रभावित हो सकता है कि वो क्लास रूम छोड़ कर बाहर निकल आए, उसे इतनी भी फिक्र नहीं कि कोई वरिष्ठ पत्रकार अंदर गया है जो उसी के लिए कहीं से आया होगा तो मुझे दिक्कत है। मेरे लिए यह गंभीर मामला है। एक युवा पत्रकार किससे मिलना चाहता है। स्टार से या पत्रकार से। मेरे कहने पर भी लड़के नहीं लौटे। फिर मैं यह समझ कर बात करने लगा कि शायद इनके मन में मेरे किसी काम का गहरा प्रभाव होगा जिसके किसी घेरे से वे कहने के बाद भी निकल नहीं पा रहे हैं। कुछ चेहरे मुझे सवालों के साथ देख रहे थे और यह मुझे ठीक लगा मगर ज्यादातर अति प्रभावित होकर, जो मुझे ठीक नहीं लगा। क्लास रूम से दोनों ही प्रकार के छात्र बाहर आ गए थे। वे मुझसे गंभीर ही सवाल कर रहे थे लेकिन फिर भी मेरा मन अरुण त्रिपाठी के क्लास रूप में होने और इन छात्रों के बाहर होने के बीच कहीं फंसा रहा। क्लास रूम में कुछ पत्रकारों की सांसे तेज़ हो रही थीं जब वे मुझसे सवाल पूछ रहे थे। एक किस्म के प्रदर्शन का भी भाव था। किसी के सवाल में मुझे उधेड़ देने का भी और किसी के सवाल में एक विद्यार्थी की तरह कुछ जानने का भी भाव नज़र आया। मैं उस हाल को एक टीवी सेट की तरह देख रहा था। अलग अलग किरदारों की भूमिका में विद्यार्थी मुझे नाप रहे थे। मैं उनको नाप रहा था। मैं सारे सवालों का जवाब जानता हूं ऐसा भ्रम मुझे कभी नहीं रहा है। मेरे सारे जवाब सही होंगे इस भ्रम से तो मैं और भी दूर हूं।

जिस तरह से मुझे कुछ दिखाई देता है उस तरह से सुनाई भी। बात होती रही। बीच बीच में मेरी कार का माडल का नाम किसी ने लिया, किसी ने भीतर भी घूरा ही होगा, किसी ने कहा ड्राईवर नहीं है, किसी ने उम्र पूछ दिया तो किसी ने कहां के हैं सर। आप सिम्पल रहते हैं। सुबह ही किसी मित्र ने फोन पर कह दिया था कि तुम ब्रांड हो। शाम को इन छात्रों की बातों सुनकर लगा कि मैं डालडा का कोई टिन हूं जिसे दुकान पर लोग घूर घूर कर मुआयना कर रहे हैं। फिर मैं कब मैं रहूंगा। क्या मुझे ब्रांड बने रहने के लिए कुछ नकली भी होना पड़ेगा। ख़ुद को किसी स्लोगन की तरह पेश करना होगा। जो भी मुझे देख रहा है किसी न किसी रैपर के साथ देख रहा है। शायद कोई एक्सपायरी डेट भी पढ़ने की कोशिश करता होगा। मुझे उन छात्रों की यह सहज दिलचस्पी ठीक नहीं लगी। मैं कोई शर्वशक्तिमान बिस्कुट नहीं हूं। यह मैंने क्लास में भी कहा। इतना काफी था पत्रकारिता के छात्रो की तंद्रा या कोई मोहजाल तोड़ने के लिए। पर यह काफी साबित नहीं हुआ।

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कई छात्रों के सवाल रूटीन टाइप ही थे। एक ने सही सवाल किया। आपने जो किया सो किया, अब अगर हम कुछ नया करना चाहें तो किस तरफ देख सकते हैं। ये वो सवाल था जो मैं अपने नज़दीक आने वाले किसी छात्र से कहता ही हूं। हम नया क्या कर सकते हैं, दो तीन छात्रों ने इसी के आस-पास सवाल पूछे जो मुझे बहुत पसंद आए। काश वक्त रहता तो घंटों इस पर उनके साथ दिमाग भिड़ाता। इसी तरह जाते जाते एक लड़की ने कहा कि घटना स्थल पर पत्रकार को बचाना चाहिए या शूटिंग करनी चाहिए। टीवी के पत्रकारों से ऐसे सवाल पूछे जाते हैं फिर भी एक पेशेवर के नाते ये ज़रूरी सवाल हैं। मेरे जवाब से शायद वह संतुष्ठ नहीं हुई लेकिन मैं इतना कह कर निकल गया कि इस सवाल पर कई तरह के जवाब हैं। जिसका अलग अलग संदर्भों में कुछ घटनाओं के साथ मूल्यांकन करना चाहिए। ऐसे कुछ सवाल थे जो मुझे भी नए सिरे या फिर से सोचने के लिए मजबूर कर रहे थे। दरअसल नए पत्रकारों के साथ इसी तरह का संवाद होना चाहिए। उन्हें मुझ जैसे दो चार लोगों को स्टार मानने की आदत छोड़ देनी चाहिए। उन्हें उन लोगों की तलाश करनी चाहिए जो मेरी तरह टीवी पर कुछ भी करते हुए नहीं दिखते हैं बल्कि गंभीर काम करते हैं। इससे उनकी ही जानकारी का दायरा बढ़ेगा। मैं अपने घर, दफ्तर, दोस्तों और हमपेशा लोगों के बीच सामान्य ही होना चाहूंगा। ये आपकी गलती है कि आप मुझे मूर्ति बनाते हैं फिर पूजते हैं फिर किसी दिन खुंदक में आकर तोड़ देते हैं। मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मैं यह बात अपने लिए नहीं, आपके लिए लिख रहा हूं। मुझे सही में कोई फर्क नहीं पड़ता सिवाय इस बात के कि आपने मेरे काम में कोई सार्थक गलती निकाली है।

पर क्या मैं अपने पाठकों दर्शकों और सह-पत्रकरों से यह सवाल पूछ सकता हूं कि वो एक पत्रकार में स्टार क्यों देखना चाहते हैं। इसके लिए तो न जाने कितने नाम रोज़ अंडा ब्रेड के ब्रांड के साथ आते ही रहते हैं। ऐसा क्या किया है मैंने कि कोई मेरे साथ क्लास रूम से बाहर निकल जाए। फिर तो मुझे वे सारे सवाल खोखले नज़र आने चाहिए जो छात्रों ने क्लास रूम में पूछे। यह तो नहीं हो सकता कि अंदर आप किसानों और गांवों या हाशिये के लोगों की पत्रकारिता में कम होती जगह पर सवाल पूछे और क्लास रूम से निकलते ही मेरे पीछे पीछे ऐसे दौड़े चले आएं जैसे मैं कर्ज़ फिल्म का टोनी हूं। दरवाज़े पर एक वरिष्ठ पत्रकार फंसा हो और लोग पन्ने बढ़ा दें कि आटोग्राफ दे दें। ठहरकर देखने और मुझे मेरी सीमाओं के साथ समझने की आदत तो होनी ही चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि क्लास रूम में बैठे लोग उन्हीं को पहचानते हैं जो रोज़ रात टीवी में बकवास करते हैं और कभी कभी सरोकार टाइप पर अखबारों में लिख देते हैं।

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उस बड़े से हाल में कुछ लड़कियां भी थीं। तीसरी या चौथी कतार में। मुझसे पूछने के लिए समेट ही नहीं पाईं।  लड़के तुरंत सहज हो गए और एक दूसरे से होड़ करते हुए पूछने लगे। अगर इस लेख को कोई युवा पत्रकारिन पढ़ रही है तो मैं बस इतना कहना चाहता हूं कि उसे इस पेशे में आकर एक दिन इसी तरह के स्पेस में जद्दोज़हद करनी पड़ेगी। किसी प्रेस कांफ्रेंस में अपना सवाल पूछने के लिए और दफ्तर की मीटिंग में कुछ कहने के लिए। उसे भी अपने कंधों को टकराने देना चाहिए। आवाज़ बुलंद कर लेनी चाहिए। बिना इसके ये गढ़ टूटेगा नहीं जो दिखता तो नहीं है मगर होता है। जिस लड़की ने मुझसे यह सवाल किया कि पत्रकार को मौके पर क्या करना चाहिए मैंने देखा कि पूछने से पहले अपने चेहरे पर काफी कुछ समेट कर लाई थी। सांसे थोड़ी तेज़ थीं और लड़कों की भीड़ में जगह बनाते हुए चेहरा थोड़ा सुर्ख। वो गुस्से में थी कि किसी टीवी चैनल ने एक पंचायत में डायन बताकर किसी महिला के वस्त्र उतारने की आधे घंटे की रिपोर्ट दिखाई थी। जल्दबाज़ी में जितना समझ सका वो यह कि उस चैनल ने कथित रूप से तस्वीरों को धुंधला नहीं किया और इतनी देर तक पत्रकार शूटिंग करता रहा तो क्या उसे रोकना नहीं चाहिए था। पुलिस नहीं बुलानी चाहिए थी। इस सवाल का जवाब हां या न में नहीं दिया जा सकता था, वो भी सारी बातों को जाने बगैर। मगर मुझे उसके चेहरे की उत्तेजना पसंद आई। इतने बच्चों के बीच किसी के चेहरे पर पत्रकार दिखा। शायद यही वजह थी कि भीड़ से घिरे होने के बाद भी जाते-जाते उसके सवाल पर कुछ बोलता रहा। उसकी तरफ देखता रहा। वो तब तक दूर बैठ चुकी थी । मैं ज़ोर ज़ोर से उस तक पहुंचने का प्रयास कर रहा था। उसके चेहरे की आग बची रहे बाकी सब भी बच जाएगा।

ऐसे ही कुछ अच्छे लड़के भी मिले। मैं भी उनके साथ कुछ समेट कर बांटने का प्रयास कर रहा था। बहुत ज्यादा किसी आदर्श स्थिति के होने के संदर्भ में सवाल पूछने की बचकानी हरकत के बजाए हम सबको अपने अपने लघुस्तरों पर संघर्ष करते रहना पड़ेगा कि हम पत्रकारिता में आदर्श स्थिति पैदा करते रहें। समंदर न सही तालाब ही। तालाब नहीं तो कुआं ही सही। यह आपका व्यक्तिगत प्रयास है। समाज सवाल करता रहेगा मगर सवाल कंपनी से नहीं करेगा आपसे करेगा। आपकी हालत सत्तारूढ़ पार्टी के प्रवक्ता सी रहेगी जिसे नहीं मालूम कि सरकार क्या करेगी लेकिन उसे सरकार और पार्टी दोनों का बचाव करना है। पत्रकारिता में आदर्श स्थिति कभी नहीं रही है। पर यही लक्ष्य है जिसके लिए न जाने कितने ही पत्रकार संघर्ष कर रहे होंगे जो कभी प्राइम टाइम पर नहीं आते होंगे। इसके लिए ज़रूरी है कि अपने कौशल के निरंतर विकास को ज़रूरी काम मानें। अपने लिखने का सख्त मूल्यांकन करें। लगातार प्रयोग करें। पढ़ाई करते रहें और अपने काम को जितना गंभीरता से लें उससे ज्यादा खुद को भी। यह बात उनके लिए है जिनका जीवन लक बाई चांस नहीं कटता है। जिनका कट जाता है उन्हें मेरा लिखा कूड़ा करकट पढ़ने की कोई ज़रूरत नहीं। ज्यादातर लोगों का जीवन कट ही जाता है। कुलमिलाकर अच्छा लगा। बस मुझे ज्यादा भाव देने की बात खटक गई। आप कह सकते हैं कि मैं अति विनम्रता का प्रदर्शन कर रहा हूं। आप कुछ भी कह सकते हैं जैसे मैं भी कुछ भी कह सकता हूं। मुझे लगा कि यह कहना चाहिए तो कह दिया।

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लेखक रवीश कुमार एनडीटीवी से जुड़े पत्रकार हैं. उनका यह लेख उनके ब्लाग कस्बा से साभार लिया गया है.

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