प्रकाश के रे-
यूक्रेन से अलग हुए बेबी ट्वीन्स क्षेत्रों में रूसी सैन्य कार्रवाई तथा यूक्रेन के कुछ सैन्य ठिकानों को निशाना बनाने की घटनाओं से रूस-यूक्रेन मसला निर्णायक दौर में प्रवेश कर गया है. अब यूरोप (विशेषकर जर्मनी और फ़्रांस) को आगे बढ़कर स्थिति को शांत कराने पर ज़ोर देना चाहिए तथा अमेरिका और ब्रिटेन को अपनी आक्रामकता को थामना चाहिए.
युद्धोन्मादी मीडिया और हथियार लॉबी को भी थोड़ा संयम बरतना होगा. पीछे रूस ने अपनी सुरक्षा गारंटी के बारे में जो लिखित शर्तें अमेरिका के सामने रखी थी, उस पर गंभीरता से विचार करने के साथ मिंस्क प्रोटोकॉल को तुरंत बहाल किया जाना चाहिए. कोरोना महामारी, मंदी और महंगाई से त्रस्त वैश्विक अर्थव्यवस्था को बचाना सबसे अहम होना चाहिए. अमेरिका और नाटो देशों को आत्ममंथन करना चाहिए कि आख़िर पुतिन को सैन्य कार्रवाई पर क्यों मजबूर होना पड़ा है तथा पीछे चलीं कई दौर की बातचीत का कोई नतीज़ा क्यों नहीं निकला.
सुशील उपाध्याय-
रूस और यूक्रेन के मामले का सरलीकरण करना हो तो यूक्रेन को पाकिस्तान मान लीजिए और यूक्रेन के रूसी बहुल प्रान्तों दोनेत्स्क और लुहांस्क को पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) समझ लीजिए। तब भारत की मजबूरी थी कि उसे सुरक्षित रहना है तो पाकिस्तान के दो हिस्से करने ही होंगे। आज ये ही मजबूरी रूस की भी है। यदि उसे अपनी सीमा पर अमेरिकी सैन्य अड्डों को रोकना है तो यूक्रेन को तोड़ना ही होगा। आधार भी साफ ही है और वजह भी स्पष्ट है। दोनेत्स्क और लुहांस्क में रूसी मूल के लोग बड़ी संख्या में हैं। जैसे पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली थे।
जहां तक सही, गलत की बात है, युद्ध में सारे तर्क विजेता और ताकतवर के पक्ष में होते हैं। रूस सैन्य तौर पर ताकतवर है इसलिए सामने आकर लड़ने की ना अमेरिका की हिम्मत है और न नाटो की। यूक्रेन का दुर्भाग्य ये है कि वो यूरोप, अमेरिका का पिछलग्गू बनकर खुद की बर्बादी की तरफ बढ़ गया है। अमेरिका कितना साथ निभाता है, इसका अंदाजा इस बात से लगा लीजिये कि सबसे पहले उसी ने अपना दूतावास खाली किया। इसके बाद विदेशी लोगों के निकलने की जो भगदड़ मची उस पर यूक्रेनी राष्ट्रपति को कहना पड़ा कि युद्ध से बड़ा नुकसान इस भगदड़ के कारण हो चुका है।
चूंकि, हम में से ज्यादातर लोगों की राय यानी जनमत का निर्माण हिंदी चैनल कर रहे हैं इसलिये हमें रूस शैतान दिख रहा है और अमेरिका-यूरोप मानवता को बचाने वाले देवदूत। जबकि, दोनों ही बातें तथ्यों से परे हैं। हिंदी मीडिया की ये प्रवृत्ति उसके सनसनीवादी रुख के कारण पैदा होती है। फिलहाल, पूरे मामले को व्यावहारिक दृष्टि से देखिए तो रूस सही नजर आएगा।
अगर इस मामले में थोड़ा राष्ट्रवाद का छोंक लगाकर देखा जाए तो जिस तरह भारत के लोग पाक अधिकृत कश्मीर को पाना चाहते हैं, वैसी ही स्थिति रूसियों की भी है। उन्होंने अपनी चाह को सच्चाई में बदल लिया है। इसी का प्रमाण ये है कि दोनेत्स्क और लुहांस्क अब एक नया देश है, जिसे रूस के अलावा सीरिया, निकारागुआ ने मान्यता भी दे दी है। वैसे, ये इलाका देर-सवेर रूस में ही शामिल हो जाएगा।
हम लोगों को भारत सरकार की तरह दुविधा में नहीं रहना चाहिए कि आखिर तक ये तय न कर पाएं कि किसके साथ खड़े हों। दीर्घकालिक सैन्य और क्षेत्रीय हितों को देखें तो रूस का साथ ही ठीक है। वरना तो इमरान खान मत्था टेकने के लिए रूस जा ही रहे हैं। ये भी सच है कि भारत की यूक्रेन से कोई दुश्मनी नहीं है, लेकिन यूक्रेन किसी का मोहरा बनकर व्यवहार करें तो फिर उसका पक्ष लेने की भारत की कोई मजबूरी नहीं है।
वैसे, युद्ध कोई भी हो, उसका परिणाम कभी अच्छा नहीं होता। जितने वाला भी युद्ध की कीमत चुकाता ही है।