Mahendra Mishra : भारत, पाक और बांग्लादेश एक ही जिगर के टुकड़े हैं। क्रूर हालात ने इन तीनों को एक दूसरे से अलग कर दिया। इनके बीच दोस्ती और मेल-मिलाप हो। एकता और भाईचारा का माहौल बने। अमन और शांति में विश्वास करने वाले किसी शख्स की इससे बड़ी चाहत और क्या हो सकती है । इस दिशा में किसी पहल का स्वागत करने वालों में हम जैसे लाखों लोगों समेत व्यापक जनता सरहद के दोनों तरफ मौजूद है। इसी जज्बे में लोग प्रधानमंत्री मोदी की लाहौर यात्रा का स्वागत भी कर रहे हैं। लेकिन इस यात्रा का क्या यही सच है? शायद नहीं। यह तभी संभव है जब मोदी जी नागपुर को आखिरी प्रणाम कह दें।
अगर कोई आरएसएस को जानता हो। या कि बीजेपी की राजनीति से उसका वास्ता हो। या फिर उसे मोदी की सियासत की परख हो। वह किसी भ्रम में नहीं रह सकता। एक तरफ मंदिर बनाने की तैयारी (सुगबुगाहट ही सही) और दूसरी तरफ पाकिस्तान से दोस्ती की लंबी पारी। दोनों एक साथ नहीं चल सकते। कहते हैं कि विदेश नीति और कुछ नहीं बल्कि घरेलू नीति का ही विस्तार होती है। कम से कम पाकिस्तान के मामले में यह 100 फीसद सच है। दोनों देशों के रिश्ते एक दूसरे की घरेलू राजनीति के साथ मजबूती से जुड़े हैं। विदेश नीति वैसे भी रोज-रोज नहीं बदला करती। यह किसी एक यात्रा या कुछ यात्राओं से तय नहीं होती। यह एक लंबे कूटनीतिक मंथन और रणनीतिक जद्दोजहद का नतीजा होती है। यहां तक कि सरकारें बदल जाती हैं लेकिन विदेश नीति नहीं बदलती। ऐसे में मोदी जी की लाहौर यात्रा का क्या मतलब निकाला जाए। यह एक बड़ा सवाल है। पहली बात तो यह यात्रा भले अचानक हुई है। लेकिन इसके पीछे अपने तरह की एक कूटनीति भी काम कर रही है। जो पूरी सोची और समझी है। हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस यात्रा का एक तात्कालिक बड़ा कारण लोगों का ध्यान जेटली प्रकरण से हटाना है।
इस यात्रा को एक दूसरे नजरिये से समझा जाए तो शायद समझना ज्यादा आसान होगा। घरेलू मोर्चे पर जिस तरह से मोदी साहब जनता को कुछ नहीं देना चाहते। बल्कि उल्टा पिछले 65 सालों में जो कुछ मिला था उसे छीना जा रहा है। लेकिन सरकार है कि उसे जनता के लिए कुछ करते दिखना भी चाहिए। इस लाज में मोदी जी ने स्वच्छता अभियान और जनधन योजना जैसे कुछ लॉलीपॉप खोज लिए। लेकिन अब लोग भी नहीं समझ पा रहे हैं कि इस झुनझुने को लेकर वो हंसे कि रोएं। ठीक इसी तर्ज पर मोदी का पाकिस्तान के साथ रिश्ता भी है। जिसमें रिश्ते को ठीक करते हुए दिखना मजबूरी है। इसीलिए इसमें अनौपचारिकताएं ज्यादा हैं योजनाबद्ध काम कम। यात्राएं ज्यादा हैं ठहराव कम। मुलाकातें ज्यादा हैं समस्याओं पर बातें कम। इस तरह के रिश्तों के अपने फायदे हैं। गहरी जड़ न पकड़ने के चलते जब चाहे उन्हें तोड़ा जा सकता है। सचिव स्तर की वार्ता को हुर्रियत नेताओं के पाक उच्चायुक्त से मिलने के चलते रद्द कर दिया गया था।
रिश्ते गहरे हों और आपस में विश्वास हो तो उसके लिए मिलना जरूरी नहीं होता। अगर कोई रिश्ते को गहराई की तरफ नहीं ले जाना चाहता तो उसकी मंशा पर सवाल उठना लाजमी है। पिछले डेढ़ सालों के मोदी शासन का विश्लेषण पाकिस्तान के संदर्भ में करने पर निष्कर्ष उसी तरफ ले जाएगा। इस बीच मोदी और नवाज के बीच तीन मुलाकातें हो चुकी हैं। पहली मोदी जी के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान। दूसरी पेरिस में जलवायु सम्मेलन के मौके पर। और अब एक महीने के भीतर यह तीसरी मुलाकात हुई है। लेकिन नतीजा सिफर है। न ही कोई जमीनी तैयारी। न ही कोई भविष्य की रणनीति और सोच। बस ऊपर-ऊपर माहौल। विदेश नीति इतनी लचर रस्सी पर नहीं चलती है। किसी भी रिश्ते की अनिश्चितता उसकी कमजोरी की प्रतीत होती है।
दरअसल मोदी साहब को लंबा रास्ता तय भी नहीं करना है। इसलिए उन्हें किसी जमीन और गहराई की जरूरत भी नहीं है। और आसमानी तौर पर कूद-फांद कर रिश्ते की औपचारिकता पूरी भर कर लेनी है। यह और कुछ नहीं बल्कि मोदी की विदेश नीति का टुटपुजियापन है। क्योंकि जिस पार्टी और सरकार की राजनीति मुस्लिम और पाकिस्तान विरोध पर टिकी हो। उससे किसी लंबे समय के लिए पाकिस्तान के साथ दोस्ती की आशा करना महज एक ख्वाब ही हो सकता है। या तो आरएसएस के अस्तित्व को खत्म मान लिया जाए। या फिर बीजेपी की राजनीति बदल गई है। शायद ही कोई राजनीतिक विश्लेषक अभी इस नतीजे पर पहुंचा हो।
रिश्तों का बीज अभी पड़ा भी नहीं कि संघी फावड़ा सक्रिय हो गया। अनायास नहीं बीजेपी महासचिव और संघ के प्रिय राम माधव ने लाहौर यात्रा पर संघी गोबर डाल दिया। उन्होंने भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की एकता का पुराना राग अलापा है जिसमें भगवा ध्वज के नीचे अखंड भारत के निर्माण की बात शामिल है। अब अगर नवाज शरीफ चाहें भी तो क्या पाकिस्तान की जनता और विपक्ष उनको आगे बढ़ने देगा? ऊपर से अलजजीरा चैनल के साथ बहस में उन्होंने एंकर को आईएसआईएस का एजेंट तक करार दे दिया। सत्ताधारी पार्टी के किसी वरिष्ठ नेता से क्या ऐसी उम्मीद की जा सकती है? अगर यह मोदी जी की विदेश यात्राओं के सूत्रधार का पाकिस्तान को लेकर रवैया है। तो ऐसे में यह डगर कितनी आगे बढ़ेगी अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है। नहीं तो भारत-पाक रिश्ते में विदेश मंत्रालय, सुषमा स्वराज और सरकार के किसी व्यक्ति से ज्यादा राम माधव क्यों रुचि ले रहे हैं। या फिर मोदी साहब उनसे इसके लिए मांफी मांगने के लिए कहेंगे?
खुदा ना खाश्ता रिश्तों की डोर किन्हीं परिस्थितियों में टूटी तो कहने के लिए मोदी साहब और उनके समर्थकों के पास अब बहुत कुछ रहेगा। मसलन उन्होंने रिश्तों को बढ़ाने का बहुत प्रयास किया। लेकिन पाकिस्तान नहीं सुधर सकता। उसे डंडे की ही भाषा समझ में आती है। अब क्या चाहते हैं कि मोदी जी जाकर नवाज शरीफ का तलवा चाटें आदि..आदि। इसके साथ ही पाकिस्तान से दोस्ती की हिमायत करने वालों के भी मुंह बंद कर दिए जाएंगे।
लेखक महेंद्र मिश्रा सोशल एक्टिविस्ट और प्रखर जर्नलिस्ट हैं. उनका यह लिखा उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है. महेंद्र इलाहाबाद विश्वविद्यालय से पढ़े लिखे हैं और कई न्यूज चैनलों में वरिष्ठ पदों पर कार्य कर चुके हैं.