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सुख-दुख

अगली तारीख और खोल दो!

संजय सिन्हा-

एक लड़की थी। नाम था सकीना। आप नाम कुछ भी सोच लीजिए संजय सिन्हा को कोई फर्क नहीं पड़ता। पर मैंने सकीना नाम उठाया मंटो की कहानी ‘खोल दो’ से।

जिन लोगों ने मंटो की कहानी ‘खोल दो’ पढ़ी है, वो मेरी आज की कहानी का मर्म तुरंत समझ जाएंगे। लेकिन जिन्होंने नहीं पढ़ी, उनसे अनुरोध है कि आप गूगल पर ढूंढ कर सआदत हसन मंटो की कहानी ‘खोल दो’ ज़रूर पढ़ें। मंटो ने देश विभाजन का काल बहुत करीब से देखा था और उन्होंने उस दौर में कई कहानियां लिखीं, जिन्हें तब पढ़ना अच्छा नहीं माना जाता था। खैर, जैसा कि कहानी के नाम से ही विदित है कि कहानी में कुछ खोलने की बात होगी।

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मैं बहुत कम में कहानी की रुपरेखा बता देता हूं कि सकीना एक लड़की का नाम है और बंटवारे के बाद अमृतसर से चलने वाली एक ट्रेन से कहीं पहुंचती है।

जब दंगा हुआ था तो बाप बेटी साथ ही भागे थे। फिर दोनों बिछड़ गए। कई दिनों तक दोनों मिल नहीं पाए। बूढ़ा बाप बेटी को ढूंढता रहा। लेकिन बेटी का कहीं पता नहीं चला। कई दिन गुजर गए। एक दिन पता चला कि रेल पटरी के किनारे एक लड़की पड़ी मिली है। उसे अस्पताल लाया गया। किसी ने बूढ़े बाप को बताया कि लड़की की लाश मिली है। बाप अस्पताल पहुंचा। सामने स्ट्रेचर पर लाश थी। बूढ़े ने पहचाना उसकी बेटी थी वो। उसने लाश की ओर देखा, कहा, “मैं इसका बाप हूं।”

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कमरे में अंधेरा था। डॉक्टर ने कहा खिड़की खोल दो।

अचानक हरकत हुई। स्ट्रेचर पर लड़की ने अपने पायजामे का नाड़ा खोलना शुरू किया। बाप चिल्लाया। “ये ज़िंदा है, ये ज़िंदा है।”

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मंटो ने कहानी यहीं खत्म कर दी थी। इसके आगे मुझे भी कुछ नहीं कहना।

सोचिए उस लड़की के अवचेतन में कितनी बार ‘खोल दो’ शब्द पड़ा होगा।

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कल मैं जबलपुर में जिला अदालत गया था।

एक बूढ़ा बाहर खड़ा था। बहुत देर से। मेरी नज़र बार-बार उससे टकरा रही थी।

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मैं सोच रहा था, क्या वो ज़िंदा है? नहीं। ये तो कई साल पहले मर गया होगा। फिर अदालत में क्यों? मैंने धीरे से पूछा, “क्या केस है बाबा?”
“नहीं पता बेटा। कोई केस है।”
“यहां क्यों आते हो?”
“नहीं पता बेटा। आता हूं, जज साहब वकील साहब से कहते हैं अगली तारीख एक महीने बाद।”
मैं जज के मुंह से सुनने आता हूं अगली तारीख।

बुजुर्ग बोल रहा था। मेरी आंखों के आगे पोलीथिन के घेरा के पीछे ऊंची कुर्सी पर बैठाई गई जज साहिबा/जज साहब घूम रहे थे। एक तरफ टाइपिस्ट। दूसरी ओर स्टेनोग्राफर। सामने बाबू। कमरे में कुछ कुर्सियां।

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जज लोग रोज़ अपनी अदालत में आते हैं। न्याय के देवता बन कर। बहुत से वकील भी आते हैं। वैसे ही जैसे अस्पताल में डॉक्टर साहब आते है, डॉक्टर साहब के पीए आते हैं। सब वही। वही अस्पताल। मंटो के समय का।

लड़की जि़ंदा है या मर गई पता नहीं? कैसे बची होगी? पता नहीं किस-किस ने कहा “खोल दो।” कितनी बार नाड़ा खुला। लड़की लाश थी। किसी ने नहीं सोचा था कि वो ज़िंदा हो सकती है। रेल पटरी के किनारे पड़ी हुई लड़की ज़िंदा कहां होती है? बाप की आंखों ने भी कहा था, “मर चुकी है।” डॉक्टर समझ चुका था मर चुकी है। उसने तो बस खिड़की खोलने की बात की थी। दो शब्द ‘खोल दो’ मृत लड़की के कानों में पड़े थे। हाथ खुद ब खुद चल पड़े थे।

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जज ने अभी कुछ नहीं बोला था। वकील सामने खड़ा था। बूढ़ा किनारे था। उसने वकील और जज की बात नहीं सुनी थी। उसे सुनने की ज़रूरत नहीं थी। जब वकील चला तो बूढ़े ने पूछा, “अगली तारीख?”

मंटो की कहानी आप पढ़िएगा। ज़िंदा गोश्त, खोल दो और बहुत-सी।

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पर जब आपको ये कहानियां देखनी हों तो मेरे पास जबलपुर आइएगा। मैं बहुत-सी कहानियां दिखलाऊंगा। ऊंची कुर्सी पर बैठे मी लार्ड की तारीख और बूढे की कंखियांती आंख में उगने वाला सवाल। बहुत कुछ बदल गया है। शायद कुछ नहीं बदला। लड़की अवचेतन में भी अपने पायजामा का नाड़ा खोलने को तैयार है, बूढ़ा बिना सुने अगली तारीख पर आने को तैयार है।

अगली तारीख। खोल दो।

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