मजीठिया वेज बोर्ड 11 साल से लागू न करा पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट भी जिम्मेदार… मजीठिया वेज बोर्ड के लिए संघर्ष कर रहे साथियों से यह कहना चाहता हूं कि प्रिंट मीडिया में जो मजीठिया वेज बोर्ड की सिफारिशें लागू नहीं हो पा रही हैं, मांगने वालों को बर्खास्त किया जा रहा है, ट्रांसफर किया जा रहा है, काम करने के बावजूद साथी अपना हक मांगने से डर रहे हैं, इसके लिए मोदी सरकार के साथ-साथ सुप्रीम कोर्ट भी जिम्मेदार है। सरकारें तो दोषी हैं ही, ये सुप्रीम कोर्ट भी लगता है सरकार के साथ है।
ये ही महाशय जो मुख्य न्यायाधीश बने हुए हैं, अवमानना मामले में इन्होंने ही मीडिया मालिकों को क्लीन चिट दी है। इन्होंने ही यह तर्क दिया था कि इन लोगों को सही जानकारी नहीं थी…. अब तो हो गई है… अब क्यों नहीं दे रहे हैं? क्यों हक मांगने वालों को बर्खास्त कर रहे हैं। मेरा प्रश्न है कि उसका आदेश मनवाने के लिए संघर्ष कर रहे मीडिया कर्मियों को सुप्रीम कोर्ट ने क्या सुरक्षा दी है।
इसे हम सुप्रीम कोर्ट की बेबसी माने। मीडिया मालिकों का दबाव माने या फिर जिम्मेदारी से बचना कि जिन मीडियाकर्मियों ने मजीठिया वेज बोर्ड़ मांगा उन्हें बर्खास्त कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने कुछ नहीं किया। जो लोग उसकी शरण में गए तो उन्हें लेबर कोर्ट भेज दिया गया। सुप्रीम कोर्ट का आदेश का सम्मान कराने के लिए लड़ रहे मीडियाकर्मी सड़कों पर हैं। उनके परिवार भुखमरी के कगार पर हैं। जब सुप्रीम कोर्ट ने इन कर्मचारियों के लिए कुछ नहीं किया तो मालिकों ने काम कर रहे मीडियाकर्मियों में भी भय पैदा कर दिया। यही वजह है कि रिपोर्टिंग के साथियों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर मीडियाकर्मी गम्भीर बीमारियों से ग्रसित हैं।
राष्ट्रीय सहारा से 22 मीडिया कर्मियों को 2015 इसलिए बर्खास्त कर दिया था क्योंकि ये लोग उस आंदोलन की अगुआई कर रहे थे, जिसमें मजीठिया वेज बोर्ड को लागू करना और 7 महीने का बकाया वेतन मांगा जा रहा था। इस बर्खास्तगी को नोएडा के साथ ही नई दिल्ली डीएलसी ने भी अवैध ठहराया है। इन सबके बावजूद ये लोग अभी भी कानूनी दांवपेंच में फंसे हैं। इसके अलावा लगभग 30 साथियों को और बर्खास्त कर दिया गया। इसके बाद यह सिलसिला जारी है और चैयरमैन को पैरोल पर जेल से बाहर आये हुए दो साल से ज्यादा हो गए हैं पर उनके लिए कोई नियम कानून नहीं है।
दैनिक जागरण, हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर समेत कई अखबारों और पत्रिकाओं में हजारों साथियों को बर्खास्त किया जा चुका है। सुप्रीम कोर्ट ने इन साथियों के लिए क्या सुरक्षा दी ? क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसा कोई आदेश पारित नहीं कर सकता था कि मजीठिया वेज बोर्ड मांगने वाला कोई कर्मचारी बर्खाश्त नहीं किया जाएगा। या फिर बर्खाश्त कर्मचारियों को वापस लिया जाए। जो मीडिया मालिक सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवमानना कर रहे हैं उनको कोर्ट ने क्या सजा दी ? जब इन मालिकों पर कोई कार्रवाई नहीं होगी तो ये अपनी मनमानी तो करेंगे ही।
अब इससे ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि मजीठिया वेज बोर्ड़ के केस को निपटाने की अंतिम डेट सुप्रीम कोर्ट कई बार दे चुका है। अब 31 मार्च है। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि 31 मार्च तक भी ये केस नहीं निपटेंगे। तो फिर क्या मतलब रह गया है सुप्रीम कोर्ट का ?
क्या जब ये मीडियाकर्मी मर जायेंगे तब मिलेगा इन्हें न्याय? सुप्रीम कोर्ट को अंदाजा भी है कि उसके मजीठिया वेज बोर्ड के आदेश के बाद प्रिंट मीडिया कर्मियों पर कितनी आफत आ गई है। यदि अपना आदेश मनवाया नहीं जा सकता है तो फिर क्यों दिए जाते हैं ऐसे आदेश। जब देश का मुख्य न्यायाधीश भी अपना ही आदेश नहीं मनवा सकता है तो फिर इस न्याय पालिका पर कौन विश्वास करेगा।
हमारे कुछ साथी कांग्रेश अध्यक्ष राहुल गांधी को अपनी पीड़ा को लेकर पत्र भेज रहे हैं। उनका मानना है कि राहुल गांधी उन्हें मजीठिया दिलवा देंगे। यह समझ लीजिए कि राहुल भी कांग्रेस शासित प्रदेशों में ऐसे ही मजीठिया दिलवायेंगे जैसे कि दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने दिलवा दिया है। इन राजनीतिक दलों को मीडिया की जरूरत होती है। इसलिए ये मीडिया मालिकों के खिलाफ कुछ नहीं कर पाते हैं। यदि राहुल गांधी कर सकते हैं तो फिर अपने शासनकाल में क्यों नहों किया? आदेश तो 2008 का है। 2009 से 14 तक तो कांग्रेस ही केंद्र की सत्ता में रही है।
साथियों यदि कोई मजीठिया वेज बोर्ड दिलवा सकता है, बर्खास्त और स्थानांतरित कर्मियों को राहत दे सकता है तो वह सुप्रीम कोर्ट ही है। तो यदि कोई बड़ा अभियान छेड़ना है तो पत्र सुप्रीम कोर्ट में पत्र भेजिए। मुख्य न्यायाधीश को उनके अपने ही आदेश को मनवाने के लिए।
सुप्रीम कोर्ट को बस इतना करना है कि उसके अनुसार जो प्रिंट मीडिया मालिक मजीठिया वेज बोर्ड़ लागू नहीं करता है तो उसे जेल में डालो और बर्खास्त व स्थानांतरित कर्मियों को वापस लिया जाए। इससे होगा सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान।
लेखक चरण सिंह राजपूत सोशल एक्टिविस्ट हैं.
अशोक अनुराग
January 11, 2019 at 2:28 pm
जब सुप्रीम कोर्ट का आर्डर है तो लेबर कोर्ट में क्यों गये? लेबर कोर्ट सुप्रीम कोर्ट से बड़ी है क्या?
सुप्रीम कोर्ट का आर्डर नहीं मानना अब रूटीन वर्क होता जा रहा है, याद रखिये इसके दूरगामी परिणाम या तो भीषण होंगे या आदत पड़ जाएगी कि करम में इहे लिखल बाटे…